सोमवार, 19 नवंबर 2018

उपन्यास 'दरमियाना' लेखक सुभाष अखिल से डॉ. फ़िरोज़ ख़ान की बातचीत

कथाकार/संपादक सुभाष अखिल से फ़ीरोज़ और डॉ. शमीम की बातचीत

आप अपने जन्म स्थान, घर-परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएँ।
 मेरा जन्म अवश्य दिल्ली में हुआ, मगर हम लगभग 350 वर्षों से ग़ाज़ियाबाद निवासी हैं। पिता जी भारत सरकार में राजपत्रित अधिकारी थे। लिहाजा मेरी पढ़ाई-लिखाई और परवरिश दिल्ली में ही हुई। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से 1978-79 में एम.ए. किया और फिर पी.एच-डी. करने के दौरान दिल्ली में ऑटो भी चलाया। इसके बाद दिल्ली प्रेस पत्रा प्रकाशन समूह में पत्राकार बन जाने के बाद पी.एच-डी. छूट गई।
 मैंने 10वीं कक्षा  से  ही लेखन  कार्य शुरू कर दिया था। लेखन के संस्कार भी मुझे   पारिवारिक रूप से ही मिले। पिता जी (स्व.) श्री सी.पी. अखिल स्वयं बहुत अच्छे कवि थे। उन्होंने अनेक खण्ड काव्य लिखे, जिनमें  ‘यशोधरा’, ‘सत्य पुष्प’ एवं ‘कुंती’ आदि प्रमुख रहे। पिता जी आज़ादी के आंदोलन में भी  सक्रिय रहे।  उसी दौरान एक अवसर पर, पिता जी का काव्य पाठ सुन कर नेहरू जी तथा नीरज जी ने उन्हें ‘अखिल’ की उपाधि दी थी, क्योंकि उनकी कविता में अखिल भारत के स्वरूप का वर्णन था। बस तभी से वे ‘अखिल’ हुए और फिर मैं भी।
 ‘दिल्ली प्रेस’ में कार्य करने के बाद मैं टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की बाल पत्रिका ‘पराग’ में चला आया और दस वर्षों तक बाल पत्राकारिता तथा बाल साहित्य पर जम कर कार्य किया। इसके बाद पंद्रह वर्ष तक ‘नवभारत टाइम्स’ दिल्ली में कार्य किया। यहाँ विशेष रूप से मुख्यधारा एवं प्रादेशिक पत्राकारिता पर विशेष कार्य किया। सन् 2005 में स्वेच्छा से नौकरी छोड़ दी तथा Connexxion media pvt. Ltd. संस्थान खड़ा किया और इसके बाद व्यावसायिक पत्राकारिता की शुरुआत की। यहाँ एक पत्रिका और एक अखबार का समूह संपादक रहा।
आपकी प्रिय विधा कौन-सी है और क्यों?
 यूँ तो मैंने लगभग सभी विधाओं में लिखा है, जिनमें- कहानी, कविता, व्यंग्य, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना, पटकथा लेखन आदि सभी कुछ रहा। फिर भी कहानी और व्यंग्य के साथ ही कविताओं में विशेष रुचि रही। मुझे लगता है कि कहानी विधा में अपनी बात कहने के लिए विस्तार मिलता है। यहाँ पात्रों का सृजन करते हुए, जब आप ‘परकाया प्रवेश’ करते हैं, तब भिन्न-भिन्न पात्रों और उनकी मनःस्थितियों को समझने में आनंद आता है। कहानी जहाँ ठोस धरातल पर उगती है, वहीं कविता का जन्म बहुत ही भावुक या संवेदनशील अनुभूतियों से होता है... और व्यंग्य तो समाज तथा व्यवस्था की विद्रूपताओं पर कटाक्ष करने का एक सशक्त माध्यम है। यहाँ भी हमें हास्य और व्यंग्य के बीच एक महीन अंतर को समझना चाहिए। व्यंग्य आनंद नहीं देता, बल्कि झकझोरता है।
‘दरमियाना’ उपन्यास लिखने का उद्देश्य क्या था?
 दरअसल, अपने बचपन में कभी मैं किसी ‘किन्नर’ के संपर्क में आया। बाद में बड़े होने तक भी वे स्मृतियाँ मन में कुलबुलाती रही थीं। फिर जब लेखन शुरू हुआ और उसमें कुछ परिपक्वता आने लगी, तब सबसे पहले मैंने ही इस विषय पर ‘दरमियाना’ शीर्षक से एक कहानी लिखी, जो उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सारिका’ के अक्टूबर 1980 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद कुछ संयोग ऐसा बना कि मुझे ‘इनके बीच’ और ‘इनके लिए’ कार्य करने का अवसर मिला। मेरे उन्हीं अनुभवों को देखते हुए, मित्रों का दबाव बना कि ‘दरमियाना’ को उपन्यास बना देना चाहिए। सो, अब 38 वर्ष बाद यह उपन्यास सामने आ पाया। इस बीच व्यावसायिक व्यस्तताओं और प्रतिबद्धता के चलते समय नहीं मिल पाया। अब सेवा निवृत्ति का लाभ उठाते हुए उस     अधूरे स्वप्न को पूरा कर पाया। उद्देश्य तो केवल यही था कि ‘किन्नर विमर्श’ को भी समाज की मुख्य चिंतनधारा के पटल पर लाया जाना चाहिए। वे भी हमारी तरह ही हाड़-मांस के इंसान हैं और उनकी भी भावनाएँ, संवेदनाएँ, आकांक्षाएँ, इच्छाएं, आवश्यकताएँ और सम्मान है- जो इन्हें मिलना ही चाहिए।... और यह सम्मान, समानता के स्तर पर ही मिल सकता है।
क्या कारण है कि हिंदी के अधिकांश लेखक किन्नर पर लिखना पसंद नहीं करते?
 इसका प्रमुख कारण तो यही है कि इनकी अपनी दुनिया बहुत संदिग्ध है और प्रायः ये अपने बीच सामान्य लोगों को नहीं आने देते। इनकी अपनी सांकेतिक भाषा, अपने रीति-रिवाज, परम्पराएँ, मान्यताएँ, अपनी देवी, अपने नियम-कायदे होते हैं, जो प्रायः सामान्य जनजीवन से भिन्न हैं।
 दूसरा प्रमुख कारण यह है कि अभी तक समाज में इनकी स्थिति भी घृणात्मक, नकारात्मक और त्याज्य व्यक्ति के रूप में ही बनी हुई है। इसी के चलते ज्यादातर लेखक इनसे दूरी बनाये रखते हैं या फिर इनके बारे में जानते ही नहीं।... और कुछ केवल ‘खबरों की कतरनों में कल्पना के रंग भरकर’ रचना करते हैं। बहुत कम लोगों ने इनके निकट जा कर समझने का प्रयास किया है। सच तो यह भी है कि आप इनके साथ होते हैं या ये आपके घर आते-जाते हैं, तो आप भी संदिग्ध दृष्टि से ही देखे जाते हैं। इसीलिए लोग इनके बारे में कम जान पाते हैं। फिर ये लोग भी अपने जीवन और समाज की विद्रूपताओं को सामने आने देना नहीं चाहते हैं।
15 अप्रैल 2014 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किन्नरों को  L.G.B.T की मान्यता दी है, फिर भी केंद्र/राज्य सरकारें 4 साल बीत जाने पर भी लागू नहीं कर पाई हैं। उत्तर प्रदेश और दिल्ली में इनकी स्थिति क्या है?
 प्रश्न केवल मान्यता दे दिये जाने भर का नहीं होता। यहाँ दो बातें विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं- एक, यह कि ‘अधिकार देने वाले की इच्छाशक्ति कितनी है?’... और दूसरा, यह कि ‘अधिकार लेने वाले की समझ और संगठन शक्ति कितनी है?’ सरकारें प्रायः दूसरे ऊल-जलूल मुद्दों पर ही उलझी रहती हैं, उन्हें ‘इन जैसे नगन्य’ विषयों पर सोचने की फुर्सत ही कहाँ है! फिर ये स्वयं इतने शिक्षित, जागरुक, समर्थ और संगठित ही नहीं हैं कि अपने अधिकार माँग सकें।
 फिर भी, कुछ जगहों पर इनमें से बहुत सारे लोग सामने आये हैं, जिन्होंने ऊँचे पदों तक भी अपनी पहुँच बनाई है। कुछ जगह पुलिस भर्ती में इनकी एक अलग बटालियन है, कोई    प्राध्यापक हैं तो कोई प्रधानाचार्य भी हैं। अन्य पेशों में भी अब ये लोग सामने आ रहे हैं।
 जहाँ तक उत्तर-प्रदेश और दिल्ली की बात है, तो जो लोग गुरु-शिष्य परंपरा में एक कुनबे की तरह रहते हैं, वे अधिक सुरक्षित और सम्पन्न भी हैं। जो लोग एक-दो की टोली में रहते हैं, उनमें से अधिकतर सड़कों- पार्कों, ट्रेनों, चौराहों पर भीख माँगते हुए मिल जाते हैं। इन्हीं में से कुछ देह व्यापार में भी लिप्त पाये जाते हैं, जहाँ हस्तमैथुन, गुदामैथुन, मुखमैथुन आदि क्रियाओं के अलग-अलग दाम होते हैं। यूँ कमोबेश देश-भर में इनकी स्थिति लगभग एक जैसी ही है।
 इनमें एक विशेषता यह भी है कि हिंदू गुरु की चेली मुस्लिम और मुस्लिम गुरु की चेली हिंदू भी हो सकती है।
आम पाठक असली और नकली में फर्क कैसे जान पायेगा?
 दरअसल इनमें भी कई श्रेणियाँ होती हैं। प्रायः लिंग सहित वाले को ‘अकुआ’ और लिंग हटवा देने वाले को ‘छिबरी’ कहा जाता है। कुछ ‘सुच्चे’ भी होते हैं, जो प्रायः जन्म से ही यौनिक विकलांग के रूप में पैदा होते हैं। शेष में, हार्मोनिक संतुलन गड़बड़ा जाने के कारण यह समस्या होती है। इन तीनों वर्गों को असली माना जा सकता है।
 किन्तु ‘मुफ्त की कमाई’ के लालच से, कुछ सामान्य युवक भी इनका ‘भेष धारण कर’ नाचने-गाने और माँगने के धंधे में लग जाते हैं।
 एक अन्य स्थिति यह भी है कि जो लोग ‘अपने ही इलाके’ में माँगते हैं- वे ‘पन के’ कहलाते हैं... और जो ‘दूसरों के इलाकों’ में घुस कर माँगने लगते हैं, वे ‘खैर गल्ले के’ कहलाते हैं।
आपके उपन्यास के माध्यम से पाठक किन्नर संस्कृति व भाषा को बहुत करीब से देख व जान पाता है। आपके अपने जीवन में किन्नरों के प्रति क्या अनुभव रहे हैं?
 दोनों ही प्रकार के अनुभव रहे हैं- अच्छे भी और बुरे भी। किन्तु ज्यादातर अच्छे ही रहे हैं। यदि आप इन्हें प्यार, आदर और अपनापन देते हैं, तो उनसे भी आपको यही मिलता है। अनेक बार ‘इन्हें समझने’ के लिए ‘ऐसी गलियों’ से भी गुजरना पड़ा, जो किसी सम्भ्रांत व्यक्ति के लिए सहज और सुरक्षित नहीं होतीं। इनके सम्पर्क में कई प्रकार के खतरों की संभावनाएँ भी बनी रहती हैं।... क्योंकि अशिक्षा, सामाजिक-पारिवारिक तिरस्कार, यौनिक कुंठाएँ और असामान्य परवरिश के कारण से भी ये स्वाभाविक सहज नहीं रह पाते। मेरा ‘पत्राकार होना’ भी इस दृष्टि से काफी फायदेमंद रहा, क्योंकि अनेक स्तरों तथा परिस्थितियों में, मैं इनके लिए सहायक ही बना रहा। अनेक बार यह तथ्य छिपाना भी पड़ा कि मैं पत्राकार हूँ। ऐसा इसलिए कि वे मुझे एक ‘सामान्य व्यक्ति’ मानकर सहज बने रहें।
आपके द्वारा प्रयोग किया गया शब्द ‘दरमियाना’, इससे पूर्व प्रचलन में नहीं रहा है। आप इस शब्द की पृष्ठभूमि से अवगत कराने का कष्ट करें।
 वस्तुतः मैं ‘इनके’ लिए- हिजड़ा, छक्का, नामर्द या किन्नर जैसे शब्द प्रयोग करना नहीं चाहता था। पहले के तीन या इस प्रकार के अन्य शब्द एक तिरस्कारात्मक ध्वनि देते हैं। फिर हिमाचल प्रदेश में एक जिला है- ‘किन्नौर’। वहाँ के लोग अपने को ‘किन्नर समाज’ का कहलाना पसंद करते हैं। वहाँ सदियों तक ‘बहुपति प्रथा’ अर्थात् एक से अधिक पति रखने की परंपरा चली आती रही है। वहाँ एक भाई विवाह करता है और वह महिला सभी की पत्नी होती है। इसके बहुत से सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक कारण रहे हैं, किन्तु वह प्रसंग फिर कभी। मैंने ‘किन्नौर’ पर भी शोध कार्य किया है और एक वृत्तचित्रा भी किन्नौर पर लिखा है। वस्तुतः उन्हें ‘इनके लिए’ ‘किन्नर’ कहे जाने पर आपत्ति है।
 एक अन्य कारण यह भी रहा कि जिस समय यह कहानी लिखी गई थी, ‘किन्नर’ शब्द उतना प्रचलन में नहीं था। तीसरा, यह कि मैंने ‘इन्हें’ कभी भी ‘तीसरा’ (यानी थर्ड) नहीं माना। मेरा मानना रहा कि जो न जनाना है, न मर्दाना- वह ‘दरमियाना’ है। अर्थात् ‘तीसरा नहीं’, बल्कि स्त्रा और पुरुष के ‘मध्य’ (दरम्यान) में है।
जेण्डर और सेक्स को समानार्थी मानने वाले समाज में L.G.B.T को जिस प्रकार प्रभावित किया है, उसके प्रति आपका दृष्टिकोण क्या है?
 वस्तुतः पहले तो यही समझना चाहिए कि जेण्डर और सेक्स समानार्थी हैं ही नहीं। जेण्डर तो स्त्री-पुरुष या अन्य होना हो सकता है और सेक्स इनके बीच होने वाली ‘काम क्रीड़ा’ है। अब यह दूसरा विषय है कि यह रति क्रिया कितनी स्वाभाविक, नैसर्गिक, प्राकृतिक और मनःस्थिति के अनुकूल है या विपरीत। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि यहाँ पहले L.G.B.T को समझा जाए।
 L.- प्रयोग होता है ‘लेस्बियन’ के लिए, जब दो स्त्रियाँ परस्पर समानधर्मा होते हुए यौनाचार करती हैं। इसी प्रकार G.- से यहाँ तात्पर्य है, जब दो पुरुष आपस में यौनाचार करते हैं। तीसरा वर्ग है B.- जब स्त्री या पुरुष, दोनों ही, दोनों ही के साथ यौनाचार करते हों।
 इन तीनों वर्गों का यौनाचार इनकी मानसिक बुनावट, झुकाव, लगाव आदि कारणों से समलैंगिक या समानधर्मा होता है।... किन्तु जिसे चौथे पायदान पर रखा गया है, वह है T.- अर्थात् ट्रांसजेण्डर। यहाँ सबसे अधिक विचारणीय विषय है कि इस ‘थर्ड जेण्डर’ या ‘अन्य’ का यौनाचार तो उनकी यौनिक विकलांगता के कारण होता है। यहाँ मानसिक बुनावट या अन्य किसी प्रकार की क्रियाओं का तो विकल्प ही नहीं है। इससे इतर, पहले के तीनों वर्गों में सिलेब्रिटी भी शामिल हैं, जो गर्व से कहते हैं कि हाँ हम ‘ऐसे’ हैं। यही वे लोग भी हैं, जो शिक्षित हैं, समर्थ हैं, जागरुक हैं और साधनसंपन्न भी हैं। सच पूछें तो अदालती लड़ाई भी इन्हीं तीनों वर्गों ने, चौथे वर्ग के कंधों पर चढ़ कर लड़ी गई... और जश्न भी उन्हीं लोगों ने ही ज्यादा मनाया। चौथे वर्ग को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि धारा-377 रहती या खत्म हो जाती।
 अब प्रश्न यह भी उठता है कि इस लड़ाई से ‘इन्होंने’ क्या पाया?... जबकि वास्तव में तो इन्हें ही आरक्षण, संरक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा पुनर्वास की आवश्यकता है। इस विषय पर अभी भी, सरकारें और समाज बहुत ज्यादा सोचने या कुछ करने की मानसिकता में नहीं हैं।
आपकी कहानी ‘दरमियाना’ प्रतिष्ठित कहानी की पत्रिका ‘सारिका’ में, अक्टूबर 1980 में छपी और लम्बे अंतराल के बाद अब उस कहानी ने उपन्यास का रूप लिया। कोई खास वज़ह?... और हाँ, जब यह ‘सारिका’ में प्रकाशित हुई थी, तब पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही?
 लगभग इसी समय मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कदम रखा था। सच पूछें तो पत्रकारिता बहुत सहज-सरल कार्य नहीं है। यदि आप बेहतरीन कार्य करना चाहते हैं, तो आपको बहुत अध्ययन और परिश्रम करना पड़ता है। ऐसे में अपने और परिवार के लिए भी समय का अभाव बना रहता है। फिर दूसरा कारण यह भी रहा कि इस दौरान मैं ऐसे अनेक पात्रों के संपर्क में आया, जिनसे बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला। फिर सेवानिवृत्ति के बाद, जब सहयोगी मित्रों और अमन प्रकाशन के भाई श्री अरविंद वाजपेयी जी का दबाव बना- कि इतनी बेहतरीन रचना को आप अपने भीतर क्यों छिपाये हुए हैं- तब इस उपन्यास का जन्म हुआ।
 हाँ, जिस समय यह ‘सारिका’ में प्रकाशित हुई थी, उस समय तो जैसे कोई विस्फोट हुआ था। ‘सारिका’ के तत्कालीन संपादक कन्हैयालाल नंदन सहित सभी हमारे समकालीन और वरिष्ठ साहित्यकार ‘उछल’ पड़े थे। किसी के लिए भी यह कल्पना करना कठिन हो रहा था कि ‘इस उम्र का कोई लड़का’... ‘ऐसी कहानी’ लिख सकता है। कारण कि उस समय यह सोच पाना भी बहुत असम्भव-सा था कि ‘ये लोग साहित्य का पात्र भी हो सकते हैं?’
 वरिष्ठ साहित्यकार जैनेंद्र कुमार, कमलेश्वर, अजित कुमार, विष्णु प्रभाकर, राजेंद्र यादव, नरेंद्र कोहली... और तमाम साहित्य जगत यह सोचकर रोमांचित था कि जो विषय प्रेमचंद जैसे महानतम कथाकार से भी छूट गया, उसे ‘यह लड़का’ निकाल कर लाया है।... क्योंकि प्रेमचंद ने जीवन और समाज का शायद ही कोई पहलू छोड़ा हो। सभी ने ‘दरमियाना’ को इस विषय पर पहली रचना माना था। पाठकों के बहुत पत्रा मेरे पास तथा ‘सारिका’ कार्यालय भी आये थे। कुछ ने इस कहानी का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किया था।
मुगल काल के पतन के साथ किन्नर समाज भी हाशिए पर आ गया, जबकि हम देखते हैं कि हिंदू संस्कृति में इन्हें सम्मानपूर्वक स्थान मिला हुआ था। फिर आज इनकी इस दशा का कारण क्या है?
 जिन्हें हम किन्नर कह रहे हैं, वे तो युगों से रहे हैं। पहले इनकी यौनिक विकलांगता तो हास्य, घृणा, त्याज्य जैसी मानसिकता के साथ नहीं देखा जाता था। इसका एक प्रमुख कारण तो यही समझ में आता है कि पहले ‘इन्हें’ राजाश्रय प्राप्त होता था। मुगलों के दौर में भी ये राजाओं के संरक्षण में रहते थे। इस कारण भी इन्हें माँगना-कमाना नहीं पड़ता था... और रनिवासों एवं जनानखानों की सुरक्षा में रहने के कारण ये राजाओं के ‘निकट’ भी समझे जाते रहे। अलाउद्दीन खिलजी का निजी अंगरक्षक भी इसी वर्ग से था।
 फिर जैसे-जैसे ‘संरक्षण’ खत्म होता रहा, इन्हें जीवन-यापन के लिए नाचना-गाना-कमाना, माँगना पड़ा। ... फिर अपनी कुछ ‘विशेषताओं’ या ‘विवशताओं’ के कारण इन्होंने भी समाज से एक दूरी बना ली। धीरे-धीरे ये समाज के लिए भी ‘अजूबा’ होते चले गये- और दोनों के बीच की दूरी निरंतर बढ़ती चली गई।
 अब पुनः इन्हें हाशिए से उठाकर ‘किन्नर विमर्श’ को साहित्य और समाज के केंद्र में लाने की जरूरत है।
आपके उपन्यास में सुनंदा का चरित्र तथा इस चरित्र से संबंधित कहानी कुछ अधूरी रह जाती है। आपका इस संबंध में क्या विचार है?
 दरअसल सुनंदा का चरित्र थोड़ा-सा जटिल है। इस चरित्र की खूबसूरती, ताई अम्मा और सुलतान के साथ उसके संबंधों की बुनावट में है। उसका व्यक्तित्व बहुत ही सुलझा हुआ, स्पष्ट और दृढ़ है। एक ओर वह किसी भी हद तक जाकर इन दोनों की मदद करती है, वहीं एक गलत बात पर वह अपने ‘गिरिया’ तक को थप्पड़ मार कर निकाल देती है। इस दृष्टि से यहाँ कहानी उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाती, जितना कि इन पात्रों का चरित्र-चित्रण या फिर परिस्थितियों का आकलन महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वह कहानी इस कारण अधूरी-सी लग सकती है कि उस घटना के बाद स्वयं सूत्रधार खुद को जिम्मेदार मानते हुए उन पात्रों के जीवन से हट जाता है।... उसके बाद क्या हुआ होगा, यह महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता।
रेशमा का चरित्र-चित्रण अद्वितीय है। वह एक दोस्त और माँ के रूप में भी सूत्रधार के जीवन में आती है। उनके बारे में कुछ बताएँ!
 रेशमा के चरित्र में बहुत-से ‘शेड्स’ हैं। वह खिलंदड़ी भी हैं, तो गंभीर भी है। उनमें ममता भी है और आक्रामकता भी है। वह अपनी तारा गुरु के प्रति समर्पित भी है और आशु के प्रति स्नेह भी रखती है। वे संध्या को गाली देकर दुत्कारती भी है और अंत में उसका शव लेने चली भी आती है। सूत्रधार के साथ उसकी पत्नी को देखकर वह तुरंत अपना हास्य रोक लेती है और आदरसूचक सम्बोधन में बात करने लगती है।
ताई अम्मा के बारे में कुछ बताइये!
 ताई अम्मा का चरित्र बहुत उदात्त है। वे पाँचों वक़्त की नमाज़ी मुस्लिम महिला हैं, जिन्होंने एक हिंदू लड़के को अपने बच्चे की तरह सम्भाला। यह पता चलने पर भी कि वह वास्तव में किन्नर है, उसका साथ नहीं छोड़ा। बाद में स्थितियाँ बदल गईं और फिर सुनंदा ने ताई अम्मा और सुलतान को सम्भाला। वे हमेशा सुनंदा को अपनी पुत्र की तरह ही मानती रहीं। उसका हर तरह से ख्याल रखती रहीं। दरअसल, ताई अम्मा का चरित्रा किसी भी माँ की तरह बहुत भावपूर्ण है। सुनंदा के अपने परिजनों ने उन्हें त्याग दिया, मगर ताई अम्मा ने जीवन-भर उनका हाथ नहीं छोड़ा।
संजय और संध्या में बहुत भ्रम बना रहता है! एक व्यक्ति को दो तरह से कैसे देखा जा सकता है? कोई विशेष कारण?
 वस्तुतः संजय आगरा का रहने वाला है, जहाँ उसकी माँ, छोटी बहन और एक छोटा भाई रहता है। वह ‘अकुआ’ (लिंग सहित) और ‘कड़ेताल में’ (पुरुष वेशभूषा) में रहने के कारण, आगरा में ‘संजय’ ही जाना जाता है। वह अपनी बहन ‘संध्या’ से बहुत प्यार करता है, इसलिए दिल्ली आ जाने और ‘सात्रे’ (स्त्री वेश) में रहने पर वह अपना नाम ‘संध्या’ ही बताता है। थोड़ा भ्रम वहाँ जरूर होता है, जब उसकी माँ अपने दोनों बच्चों के साथ, उससे मिलने दिल्ली चली आती हैं और सूत्रधार से मिलती हैं। इससे पूर्व संजय ने सूत्रधार को अपने दोनों ही नाम बताये थे। इसलिए थोड़ा भ्रम होता है, किंतु ध्यान से पकड़ने पर संजय और ‘दोनों संध्याओं’ का अंतर समझ में आ जाता है।
आपने थर्ड जेण्डर वर्ग से संबंधित कुछ शब्दों का प्रयोग किया है, जैसे ‘कड़ेताल’ या ‘सात्रे’ आदि। क्या आपका आगे के लेखन में इनकी भाषा पर कुछ लिखने का विचार है?
 यूँ इनके बीच बहुत-से गुप्त या कोड शब्दों की शब्दावली होती है, जिसका प्रयोग ये प्रायः आपसी बोलचाल में करते हैं। ऐसा वे कई कारणों से करते हैं। मसलन यदि वे कहीं नाच-गा रहे हैं, तो वे नहीं चाहेंगे कि आप उनकी बातचीत समझें।... दूसरा इनकी अपनी दुनिया काफी संदिग्ध होती है, जिसे ये समाज के सामने नहीं खुलने देना चाहते। मैंने उन्हीं स्थानों पर इनकी शब्दावली का प्रयोग किया है, जहाँ पात्रों और परिस्थितियों के अनुसार उन शब्दों की आवश्यकता पड़ी है। यूँ अलग से इनकी भाषा या शब्दों पर लिखने का कोई विचार नहीं है। फिर स्थान और स्थानीय भाषा के अनुसार भी इनके शब्दों में अंतर आ सकता है। जैसे, उत्तर भारत और दक्षिण भारत की भाषाओं में अंतर होने के कारण हो सकता है।
आपने उपन्यास के समस्त अध्यायों में गुरु-चेला परंपरा का उल्लेख किया है, फिर भी कहीं-कहीं चेलों ने अपने गुरुओं से बगावत की है। गुरु-चेला संबंधों और उनके    मध्य स्थापित होने वाले रिश्तों के बारे में बताएँ!
 दरअसल, गुरु परिवार के मुखिया की तरह होती हैं। उन्हें वह इलाका अपनी गुरु से पारंपरिक विरासत की तरह से मिला होता है। फिर या तो कोई चेली स्वयं ही अपनी वास्तविकता को समझते हुए किसी गुरु के पास चली आती है या फिर गुरु ही अपनी अन्य चेलियों के साथ ऐसे व्यक्ति को ‘उठा’ लाते हैं। एक गुरु की चेलियाँ भी, किसी नई चेली को, अपनी चेली बना लेती हैं। वह तीसरी पीढ़ी कहलाई जाएगी। हर ‘कुनबे में’ वरिष्ठता के अनुसार सभी का स्थान होता है। इनमें भी उत्तराधिकार के प्रश्न पर अनेक बार टकराव हो जाता है। सम्पत्ति, मकान, इलाका, सोना-चाँदी, गाड़ी आदि के मुद्दों पर कई बार तो वरिष्ठ गुरु पहले ही स्थिति स्पष्ट कर देती हैं या फिर गुरु के बाद सभी चेलियाँ मिल-बैठ कर इन मसलों को सुलझा लेती हैं। अनेक बार, अनेक कारणों से बगावत भी हो जाती है। कई बार ‘गिरिया’ (कोई पुरुष) रखने के नाम पर भी, यदि गुरु को पसंद नहीं, तब भी बगावत हो जाती है। जैसा हमारे समाज में भी उत्तराधिकार या प्रेम संबंधों के कारण ऐसा हो जाता है।
 प्रायः गुरु ही सभी चेलियों और उनकी भी चेलियों के लिए संरक्षक होती हैं। अनेक बार नाचने-गाने-माँगने के अलावा भी मकानों या अन्य कारोबार में भी ये पैसा लगाते हैं। जैसे कोई टैक्सी, ऑटो आदि डाल दिया। इस प्रकार सारी कमाई पहले गुरु के पास ही आती है और वे ही आवश्यकता के अनुसार सभी की जरूरतें पूरी करती हैं। यदि कुछ सामूहिक खर्चा होता है, वह भी गुरु ही करती है। कोई-कोई अपनी बचत में से कुछ पैसा ‘गिरिया’ पर भी खर्च करती है और कुछ अपने ‘गिरिया’ से भी खर्चा-पानी लेती रहती हैं।
 कुनबे की परंपराओं या गुरु द्वारा निर्धारित नियम-कायदों का पालन सभी चेलियों को करना पड़ता है। कोई चेली चोरी-छिपे भी ऐसा कुछ कर लेती है, जो गुरु को पसंद नहीं। कोई दो-तीन चेली, आपस में भी एक-दूसरे की राजदार बनकर, कुछ काम कर लेती हैं।... किन्तु आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक आधार पर, कुनबे के सभी सदस्यों को परस्पर मिल-जुलकर ही रहना पड़ता है। हाँ, यहाँ उन किन्नरों की बात अलग है, जो गुरु-चेला परम्परा में नहीं रहते। ऐसे किन्नर दो-तीन की टोली में मिले रहते हैं और सड़कां-चौराहों पर मांगने का काम करते हैं।... या फिर देहव्यापार, चोरी-चकारी, राहजनी, लूट, ठगी, नशाखोरी जैसे जरायमपेशा कामों में लिप्त रहते हैं।
‘खैरगल्ले’ के किन्नरों की क्या पहचान होती है?
 जैसा मैंने बताया कि हर गुरु का अपना एक ‘इलाका’ होता है, जो प्रायः उसे अपने गुरु से विरासत में मिला होता है।... या फिर किसी गुरु द्वारा ही किसी नई विकसित हो रही कॉलोनी को, अपनी मंडली के ‘दमखम’ पर, ‘नया इलाका’ घोषित कर, अपनी किसी चेली को सौंप दिया जाता है।... जो लोग ‘अपने इलाके’ में ही माँगते हैं, वे ‘पन के’ कहलाते हैं और जो ‘किसी दूसरे के इलाके’ में चोरी-छिपे घुसकर माँगते हैं, उन्हें ‘खैरगल्ले’ के कहा जाता है।
 ऐसा करने वालों में, किसी गुरु से बगावत कर अपनी मंडली बना लेने वाली चेली भी हो सकती है और ‘छुट्टे घूमने वाले’ किन्नर भी हो सकते हैं। कुछ जगह ऐसा भी देखा गया है कि ठीक-ठाक सामान्य युवक भी, जो नाचने-गाने का हुनर रखते हैं, वे भी बेरोजगारी के चलते या मुफ्त की कमाई के लालच में ऐसा करते हैं। ‘खैरगल्ले’ वालों की अलग से कोई पहचान नहीं होती। उनसे केवल पूछ कर ही जाना जा सकता है। ऐसे में, जो ‘पन के’ होंगे उनमें एक आत्मविश्वास होगा... और ‘खैरगल्ले’ के होंगे, वे जान जाएँगे कि आप इनके बारे में जानते हैं। कोई चेली, किसी दूसरे गुरु की चेली हो जाने पर यदि उसके इलाके में माँगती है, तो वह खैरगल्ले की नहीं कहलाएगी।
 ‘इलाकों’ पर कब्जा करने या अपने कब्जा बनाये रखने के लिए, इनके गुटों में प्रायः काफी खून-खराबा तक हो जाता है। यूँ, जो ‘पन के’ होते हैं, वे अपने इलाकों के लोगों को सीधे तौर पर भी जानते हैं। इन इलाकों के प्रेस वाले, पान-बीड़ी वाले या ठेले-खोमचे वाले भी इनके लिए मुखबरी का काम करते हैं। ये लोग ही इन्हें बता देते हैं कि कहाँ बच्चा हुआ है या शादी हुई है। इसलिए ये लोग भी अपने इलाके के किन्नरों को पहचानते हैं कि यही यहाँ के वास्तविक और ‘पन के’ हैं। कई बार ये लोग भी ‘खैरगल्ले’ वालों के आने की सूचना ‘पन के’ किन्नरों को पहुँचा देते हैं।

डॉ. फीरोज/डॉ. शमीम, हलीम मुस्लिम पी.जी. कॉलेज, कानपुर
सुभाष अखिल, सत्यपुष्प कुटीर, सेक्टर-2, बी/507, वसुंधरा, गाजियाबाद, 201012