सोमवार, 30 सितंबर 2019

कथाकार मेराज अहमद से फ़ीरोज़ अहमद की बातचीत - अकरम हुसैन

कथाकार मेराज अहमद से फ़ीरोज़ अहमद की बातचीत

आप अपने जन्म स्थान, शिक्षा, घर-परिवार और साहित्यिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में विस्तार से बताइए?
 मेरा जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश जनपद फैजाबाद (वर्तमान में अंबेडकरनगर) के मुख्यालय से कफी दूर स्थित ननिहाल के गांव जैनुद्दीन पुर में हुआ। दरअसल 1996 में बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने फैजाबाद जिले को दो हिस्सों में बाँट दिया पूर्वी भाग को अंबेडकरनगर नाम देकर के नए जनपद का सृजन हुआ जिसका मुख्यालय तहसील अकबरपुर को बनाया गया। मेरे ननिहाल का गाँव अकबरपुर से लगभग 40 किलोमीटर उत्तर में घाघरा नदी से लगभग मीलभर की दूरी पर स्थित है। नदी के दूसरे किनारे से बस्ती जनपद की सीमाएं आरंभ हो जाती हैं, जबकि मेरा पैतृक गाँव अकबरपुर (वर्तमान में अंबेडकरनगर मुख्यालय) से दक्षिण में लगभग 20 किलोमीटर दूर सुल्तानपुर जनपद की सीमा के पास स्थित है। मेरे पिताजी का परिवार नौकरी पेशा परिवार था। चाचा, ताऊ और गाँव के दूसरे खानदान के लोग छोटी-छोटी नौकरियों में थे। दादाजी 1956 में पेशकार के पद से सेवानिवृत्त हुए और ताऊजी लेखपाल थे। चाचा जूनियर हाई स्कूल में अध्यापक और मेरे पिताजी प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करते थे। मेरे तीन छोटे भाई हैं। बहन कोई नहीं है। खेती भी ठीक-ठाक ही थी यानी कि इतनी थी कि परिवार की बहुत सारी आवश्यकताएं उसी से पूरी हो जाती थीं। ऐसे में पिताजी की नौकरी से मिलने वाले वेतन के कारण हमारे परिवार की अपने समय में गाँव की सुख सुविधा संपन्न परिवारों में गणना होती थी, यद्यपि उस समय संसाधन बहुत सीमित होती थे तो आवश्यकताएं भी अधिक नहीं होती थीं। ननिहाल का परिवार  पूर्ण रूप से कृषि पर आधारित था। मेरी माँ के दादाजी अपने समय के प्रगतिशील किसानों में परगणित किए जाते थे। ट्रैक्टर संभवतः मेरी पैदाइश या उससे पहले के वर्ष में ही उनके यहाँ आ गया था और अपने समय के उत्कृष्ट कृषि औजार भी उनके  यहाँ उपलब्ध थे। वह लोग छोटे जमीदार थे। उनके यहाँ दो पत्नियों से छः संताने हुईं। चार बहने और दो भाई। मेरी माँ बहनों में केवल एक से बड़ी थीं। दो छोटे भाई थे जो कि उसे बहुत छोटे थे। उनके दादाजी अपने अंतिम समय में लगभग आठ-दस वर्ष तक चारपाई पर ही रहे इसलिए उनकी देखभाल के निमित्त माँ का अधिकांश समय अपने पीहर में ही व्यतीत होता क्योंकि मेरी ददिहाल में संयुक्त परिवार था इसलिए कोई समस्या भी नहीं थी। यद्यपि मेरे दादा के कारण अपने इलाके में मेंरे परिवार का नाम था लेकिन संभवतः जैसी प्रतिष्ठा माँ के परिवार की थी वैसी पिता के परिवार की नहीं थी। प्रतिष्ठित होने के साथ मैंने पहले ही बताया कि माँ के दादा बहुत प्रगतिशील किसान थे इसलिए इलाके के जितने भी नामवर और प्रतिष्ठित लोग थे उनका आना-जाना लगा रहता था और वह सभी मेरी माँ से बेहद लगाव रखते थे। मेरे नाना दो भाइयों के बीच इकलौती संतान थे वह एक सूफी शिफत के व्यक्ति थे। दुनियादारी से उनको कोई बहुत लगाव नहीं था। अपनी ही धुन में जीने वाले थे। उन्होंने बहुत लम्बी उम्र पाई थी। सन् उन्नीस सौ में जन्मे थे और दुनिया से उनकी बिदाई दो हजार एक में हुई। जब उनके पिता यानी कि मेरी माँ के दादाजी की मृत्यु हुई तो नाना जी लगभग 70 वर्ष के थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि बड़े वृक्ष के नीचे दूसरे वृक्ष सहजता से नहीं पनपते। इसकी जीती-जागती मिसाल नाना थे। दादा की जाने के बाद घर की बागडोर दादा जी के चहेते किशोरवय के मेरे बड़े मामा जी के हाथों में आ गयी। मामा की उम्र उस समय बमुश्किल पन्द्रह-सोलह वर्ष थी। अपने दादा के दुलारे थे मेरी माँ भी उनकी प्रिय थीं। इसलिए मेरी माँ के प्रति उनका लगाव दूसरी बहनों से अधिक था। मेरा जन्म वहीं हुआ। ऐसे में स्वाभाविक है ही उनका मुझसे भी बेहद लगाव हो गया। चार-पाँच वर्ष की आयु तक तो मैं माँ के साथ अपने पिताजी के घर जाता रहा लेकिन मामा जी का लगाव जो मेरे प्रति था वह प्रगाढ़ होता गया। उसका नतीजा ये हुआ कि बस यूँ ही खेल-खेल में मुझे ठीक से याद भी नहीं है कब गाँव से चार-पाँच किलोमीटर दूर स्थित अपने इंटर कॉलेज की बेसिक पाठशाला में पढ़ाने के लिए मुझे भी ले जाने लगे। हालांकि जब मैं अपने पैत्रिक गाँव में होता तो पिता जी अपनी साइकिल के फ्रेम पर बैठाकर कभी गिनती तो कभी पहाड़ा और कभी-कभी कहानियाँ सुनाते अपने स्कूल ले जाते। यह यादें बहुत स्पष्ट नहीं हैं। लेकिल यह जरूर याद है कि मैं जितने दिन उनके साथ गाँव में रहता उनके ही साथ रहता। इसका मतलब है कि उनकामुझसे लगाव स्वाभाविक था। मैं उनकी पहली संतान भी तो था! पर क्यों मैं अपनी ननिहाल में रह गया या रोक लिया गया मेरे पास इसका कोई स्पष्ट उत्तर आज भी नहीं है। जहाँ तक पढ़ाई-लिखाई का सवाल है तो मेरे पिताजी अध्यापक थे और वह उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे जिस पीढ़ी के अध्यापक बेशक प्राइमरी स्कूल के ही क्यों ना रहे हो बच्चों की शिक्षा में अपना सब कुछ लगा देते वस्तुतः यह उनके लिए रोजगार के बजाय कर्तव्य था मुझे याद रहे सर्दियों की शुरुआत होते ही हमारे घर का एक बड़ा-सा कमरा पिताजी के स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा पाँच के विद्यार्थियों के लिए खाली कर दिया जाता था। धान के पुवालों का बिस्तर बनता और शाम होते ही लगभग सभी लड़के खाना खा-पीकर के अपने-अपने घरों से आ जाते। रोशनी के लिए लालटेन का इंतजाम रहता था। बाकायदा पिताजी मगरिब की नमाज़ के बाद से इशां की नमाज़ तक लागभग दो घंटे उन सभी बच्चों को उसी तन्मयता से उनको पढ़ाते जिस तन्मयता से स्कूल में काम करते थे। इसके विपरीत ननिहाल में पढ़ाई-लिखाई का कितना माहौल था मैं आज भी नहीं समझ सका। इस तथ्य का उल्लेख करना जरूरी है। ननिहाल के खानदान की दूसरी पट्टी में कई लोग पढ़े-लिखे बड़ी-बड़ी पदवियों पर थे पर वह लोग बाहर रहते थे। बहरहाल मेरी पढ़ाई-लिखाई व्यवस्थित रूप से ननिहाल के ही गाँव में आरंभ हुई और हाई स्कूल तक की शिक्षा वहीं पास के गाँव में स्थित दो इंटर कॉलेजों से पूरी हुई। मेरी माँ अपने दादा की मृत्यु के बाद पीहर में उतना नहीं रहतीं जितना पहले रहती थीं। घर में नानी थीं छोटी खाला थीं। लेकिन उनका विवाह मेरी होशमंदी के दिनों से पहले ही हो गया। मेरे पालन-पोषण में उन दोनों महिलाओं का बड़ा योगदान रहा। लेकिन मेरी हर तरह से देख-रेख की जिम्मेदारी मेरे मामा जी की ही थी। मैं आपको यह भी बताना चाहूँगा कि मेरी उम्र और मामा जी की उम्र में मुश्किल से आठ या नौ वर्ष का ही अंतर है लेकिन वह घर की जिम्मेदारी संभालने के बाद अपनी आयु से कई वर्ष आगे के समाज का हिस्सा बन गए उनका व्यक्तित्व भव्य था। पढ़ाई-लिखाई में बहुत अधिक रुचि न लेने के कारण वह डिग्रियाँ तो हासिल नहीं कर सके लेकिन इसके बावजूद उनकी समझ और नेतृत्व की क्षमता और हिम्म्त और दिलेरी के विशिष्ट गुण ने उनको अपने समाज में बहुत अधिक प्रतिष्ठा दी। यद्यपि आर्थिक धरातल पर सामान्य स्थिति में ही रहे और कभी-कभी परेशानियों रहने के बावजूद मेरी शिक्षा के प्रति अपनी सीमाओं के बावजूद सजग ही रहे। उनका विवाह मेरे ही सामने ही हुआ। उनकी पत्नी एक साधारण स्त्रा से उनके प्रभाव और पारिवारिक परम्पराओं को आत्मसात् करते हुए भव्य व्यक्तित्त्व में तब्दील हो गयीं। किशोरावस्था के बाद मेरे पालन-पोषण में उनका भी बहुत योगदान रहा है। उनके चार पुत्रा और एक पुत्रा हुई, लेकिन मुझे और मेरी पत्नी दोनों एक मत हैं कि वह हमें सदैव ही अपने बड़े पुत्रा के रूप में देखती थीं।
 अब जहाँ तक साहित्यिक पृष्ठभूमि का प्रश्न है तो मेरे लिए यह बताना कि उसकी नींव मेरे भीतर कैसे पड़ी जरा मुश्किल काम है। जहाँ तक बात साहित्यिक माहौल की है तो परिवार खानदान ही नहीं बल्कि पूरे आसपास के वातावरण में ही दूर-दूर तक साहित्य आदि से किसी का कोई नाता नहीं रहा है। पढ़ाई का मतलब था साइंस की पढ़ाई, इसीलिए मैं अर्थहीन रूप से साइंस ही पढ़ता रहा बस पढ़ता रहा। हाँ याद आ रहा है कि हमारे ननिहाल में नाना के एक खानदानी भाई थे वह प्रशासनिक अधिकारी थे। संभवतः वह डिप्टी कमिश्नर के पद पर थे तभी उनकी असमय मृत्यु हो गई तो जीवन-यापन के लिए उनके बच्चों को लौटकर के गाँव में आना पड़ा। उनके छोटे बेटे जो मुझसे चार-पाँच वर्ष ही बड़े थे उन्हें मैं मामू कहता था। उनके पास छोटी-छोटी भूतों की, देव की और दूसरी कहानियों की बहुत सारी पुस्तकें थीं और याद आ रहा है एस.सी. बेदी नाम के एक लेखक की किशोरों के लिए जासूसी पर आधारित पतले-पतले उपन्यास थे। उनको मैं पढ़ने लगा और उसमें मज़ा भी आने लगा। कुछ समय और बीता संभवतः में जब आठवीं कक्षा में पहुँचा तब पॉकेट बुक्स वाले रोमानी उपन्यासों को पढ़ने की लत लग गई। मनोज, राजवंश, राजहंस, रानू और गुलशन नंदा के उपन्यासों के गाँव में हमारी पहले की पीढ़ी के लोगों में कई एक रसिया थे। उनसे एन केन प्रकारेण ये पुस्तकें हासिल करके पढ़ने लगा। शायद छुप-छुप कर यह याद नहीं है। मामा जी के स्टाक में भी इस प्रकार के बहुत सारे उपन्यास थे वह भी मेरी जद में आ गए। उन रचनाकारों में गुलशन नंदा का तो बहुत ही नाम था। कई एक फिल्में उनके उपन्यासों पर बन चुकी है। पता नहीं कितना सच है लेकिन मुझे यही लगता है कि गुलशन नंदा ने लगभग 52 उपन्यास लिखे हैं। उनमें से अधिकांश मैंने पढ़ लिए थे लेकिन साहित्य किस चिड़िया का नाम है इससे मैं अनभिज्ञ था। कभी-कभी मनोहर कहानियाँ, सत्य कथा और याद आता है कि माया नाम की पत्रिका भी हाथ लग जाती थी। याद आता है कि हमारे पिताजी भी पॉकेट बुक वाले रोमांटिक उपन्यास और कुछ दूसरी पत्रा-पत्रिकाएं हिंदी-उर्दू की कभी-कभी ला करके रखते थे। इसका मतलब है कि पढ़ते भी थे ददिहाली गाँव जाने पर वह भी मेरे हाथ लग जाती थीं। फिल्में देखने का शौक भी लग गया। नवीं कक्षा में आने के बाद गाँव से लगभग इस बाईस किलोमीटर दूर स्थित टांडा कस्बे में हम लोग छुपत-छुपाते फिल्में भी देखने जाने लगे। फिल्में देखते थे और फिल्म बनाने का सपना भी पालने लगे। कभी-कभार खेल की पत्रिकाएं भी पढ़ने को मिल जाती। डाक्टर साहब मैं बीच में विषयांतर करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि वर्तमान संभवतः मोबाइल के कारण इस तरह की पुस्तकें पढ़ने का सिलसिला लगभग समाप्त ही हो चुका है। नाना के भाई का जो परिवार था। गाँव में आकर के बस गया था उनके बच्चे भी मुझे बहुत प्यार करते थे। सच कहूँ तो पूरा खानदान और सारा गाँव ही मुझसे अतिरिक्त लगाव रखता था। शहर से आये मामाओं के सानिध्य के कारण क्रिकेट की कमेंट्री का भी शौक लग गया। बस अब इसे चाहे तो साहित्यिक पृष्ठभूमि के रूप में देख सकते हैं लेकिन मैं विश्वास के साथ यह बिल्कुल ही नहीं कह सकता कि यह सारी स्थितियाँ मेरी साहित्यिक पृष्ठभूमि के रूप में देखी जा सकती हैं। हाईस्कूल के बाद इंटरमीडिएट के लिए मुझे फैजाबाद भेज दिया गया। वहाँ पुराना खंडहर नुमा मकान था जिसे मेरी अम्मा के दादा ने मुकदमा इत्यादि लड़ने के लिए ठीहे के रूप में खरीदा था वहीं रहने लगा। फिर तो पढ़ाई के बजाय पत्रा-पत्रिकाओं को पढ़ने की लत लग गई लेकिन वह फिल्मी पत्रिकाएं होती थीं या फिर घटिया स्तर की कहानियों इत्यादि की पत्रिकाएं। कभी-कभार जिस मोहल्ले की लाइब्रेरी से किराए पर पुस्तकें ले आता उसमें कुछ अच्छी पुस्तकें जैसे बंगाली और उर्दू की िर्हंदी में अनूदित हाथ लग जाती थीं। शायद शरतचंद विमल मित्रा और कृष्ण चंदर के कुछ उपन्यास मैंने उसी जमाने में पढ़े। फिर इंटरमीडिएट के बाद इलाहाबाद एडमिशन लेने के लिए गया लेकिन विश्वविद्यालय में प्रवेश की तारीख समाप्त हो चुकी थी। जिन साहब के पास गया था उन्होंने समझा-बुझाकर जौनपुर के प्रसिद्ध तिलकधारी महाविद्यालय में अपने एक मित्रा के नाम चिट्ठी लिख करके मुझे वही दाखिला करवा लेने की राय देते हुए वापस गाँव भेज दिया। मेरा कुछ दिनों बाद वहीं पर दाखिला हो गया। सरदार जी की पुस्तकों की दुकान थी। वह किराए पर पत्रिकाएं और पुस्तकें देते थे। वहाँ पर भी मैंने खूब-खूब पत्रा-पत्रिकाएं पढ़ीं और दूसरे प्रकार का साहित्य जिसे घासलेटी साहित्य भी कहा जाता है खूब-खूब पढ़ा, लेकिन साहित्य किस चिड़िया का नाम है मुझे अब तक इसका कोई इल्म नहीं था। छुट-पुट रूप में वहाँ कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी मेरी भागीदारी होने लगी। इन सब तथ्यों को अगर आप चाहे तो इसे मेरी साहित्यिक पृष्ठभूमि के रूप में रेखांकित कर सकते हैं। एक बात मैं जरूर स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि साहित्य क्या है, इसकी समझ मुझे बिल्कुल ही नहीं बन पाई थी, न तो साहित्यकारों के संबंध में मेरी कोई जानकारी ही थी। प्रेमचंद, सूरदास, कबीरदास और तुलसीदास इत्यादि के नाम से मैं अवश्य परिचित था। कुछ और नाम थे जिन्हें मैं जानता था लेकिन इसलिए नहीं जानता था कि वह बड़े साहित्यकार थे। बारहवीं तक पढ़ी जाने वाली िर्हंदी में इनका नाम था और मुझे लगता है सर्वसाधारण में इनकी पहुँच भी। वही यह कारण था संभवतः इसीलिए उनसे मैं परिचित था। एक बात का उल्लेख मैं जरूर करना चाहूँगा वह यह कि हॉस्टल में हमारे दो साथी ऐसे थे जो हिंदी विषय में एम.ए. कर रहे थे। हम कई लोग उनके हिंदी पढ़ने को ले करके उनका मज़ाक खूब उड़ाते। इससे आप समझ सकते हैं कि हमारे और साहित्य के उस समय तक क्या संबंध रहे होंगे?
 आपको मैं पहले भी बता ही चुका हूँ कि हमारे परिवार में किसी का साहित्य से दूर-दूर तक नाता नहीं था लेकिन मुझे याद आता है कि ननिहाल में एक प्रौढ़ व्यक्ति थे उनका नाम मंसूर था। धुनिया बिरादरी के थे। उनका घर भी ननिहाल के घर के निकट ही था। काफी अंतर के बावजूद पारिवारिक संबंध बेहद प्रगाढ़ थें। वह बेहद गरीब थे। हाथ के करघे पर बुनाई का काम होता था। लेकिन जब मैंने उन्हें देखा तब तक वह करघे पर बैठना छोड़ चुके थे। बकरी इत्यादि चराते। कभी किसी के यहाँ चारपाई बुन देते तो फुरसत में अक्सर सन से रस्सी बनाते रहते। हाँ, कभी-कभार बुनाई के लिए बाग में ताना तनने में परिवार की मदद जरूर करते। गर्मियों में तो अक्सर मैंने उन्हें नंगे बदन ही देखा सर्दियों में भी मारकीन की बनियान और कभी-कभार दो सूती चादर उनके कंधे पर दिख जाती। रूई भरकर बनी सदरी जिसे मिर्जई कहा जाता उनके पास थी। उनका व्यक्तित्व मुझे बेहद प्रभावित करता था। घर में जगह कम होने के कारण वह और उनका एक अपाहिज बेटा हमारे ननिहाल के घर पर ही अपना खाली समय बिताता और रात में तो सोता ही था। सोते समय वह किस्से सुनाते। तरह-तरह के देवों के नए पुराने किस्सों की उनके पास पर्याप्त मात्रा थी। कभी-कभी एक ऐसी कहानी सुनाते जिसके बीच में कुछ गाते भी। बाद में मुझे पता चला कि असल में वह हो पद्मावत की कहानी होती थी। घटनाओं का वर्णन बड़े ही विस्तार से करते और वह रस से भरा होता। अपने अपाहिज बेटे के इलाज के सिलसिले में लगभग दो से ढाई घंटे की रेल यात्रा का वर्णन तीन-चार घंटे में भी पूरा नहीं होता। हफ्त-पंद्रह दिन पर वह गाँव के दूसरे बुनकरों की तरह तैयार कपड़े को घाघरा नदी पार करके खलीलाबाद की मशहूर कपड़े की मंडी में ले जाते। अन्य लोग तो साइकिल के पीछे कैरियर पर कपड़े की गांठ बनाकर ले जाते, लेकिन उनकी गठरी उनकी कंधे पर होती और वह पैदल ही जाते। लोग बताते उनके और साइकिल वालों के सफर के समय में बमुश्किल दो-तीन घंटे का अंतर होता जबकि दूरी लगभग 35 से 40 किलोमीटर की थी। मैं उनकी हर यात्रा के बाद रात में उन्हीं के पास बिछी अपनी चारपाई पर सोने से पहले जरूर उनकी इस पैदल यात्रा का वृत्तांत सुनता। तो मुझे लगता है अगर मैं तलाश करूं तो साहित्यकार के रूप में मंसूर जिनको मैं मनसूर नाना कहता के सानिध्य का योगदान रहा हो तो रहा हो! मुझे लगता है।

जहाँ तक मेरी जानकारी है आपकी स्नातक तक की शिक्षा विज्ञान में हुई तो फिर आपने एम. ए. हिंदी में प्रवेश क्यों लिया?
 जी हाँ, आप की जानकारी बिल्कुल सही है। बी.एससी. करने के पश्चात् एम. ए. हिंदी में प्रवेश लेना निश्चित ही थोड़ी-सी असहज या अगर कहें तो अस्वाभाविक बात है। दरअसल मेरे एम. ए. हिंदी में प्रवेश ही घटना भी बड़ी दिलचस्प है। बी.एससी. करने के बाद मैं उहापोह की स्थिति में था। मेरा मन तो यह था कि मुंबई जा करके फोटोग्राफी सीखूं और उसको पेशा बनाऊँ। मेरे एक रिश्तेदार के जरिए नौकरी की भी बात चल रही थी। मामा जी की ख्वाहिश थी कि मैं सिविल सर्विस की तैयारी करूँ इसके लिए मैंने इलाहाबाद में जा करके एक कमरा लिया और कुछ सामान भी लिए लेकिन मेरी अरुचि और संभवतः आर्थिक समस्याओं के कारण बात आई-गई हो गई। कमरा गया और बिस्तर भी। मुझे अब याद भी नहीं कहा? अब मुझे ऐसा लगता है कि पिताजी की इच्छा थी कि मैं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लिए फार्म भरूं क्योंकि उनके चचेरे और ममेरे भाई वहाँ पर अध्यापक थे। प्रश्न था विषय क्या भरा जाय फॉर्म में? स्नातक की परीक्षा के बाद रिजल्ट आने पर पता चला कि मेरे एक विषय की उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन ही नहीं उसके लिए भी भागदौड़ करनी पड़े यह सारे कारण ऐसे थे मेरा एक वर्ष बेकार चला गया तो मैं आपको बता रहा था कि प्रवेश के लिए फॉर्म भरना था तो समझ में नहीं आ रहा था कि विषय कौन-सा भरूँ!  दरअसल मुझे पता था कि साइंस में मेरे बहुत अच्छे नंबर नहीं हैं इसलिए आगे की पढ़ाई का बहुत अधिक लाभ नहीं मिलने वाला है। ऐसा लोगों का भी मानना था। फिर दूसरे विषयों की पढ़ाई अंग्रेज़ी में होती है यह भी मुश्किल थी। हालांकि मैंने अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों माध्यमों में मिला कर के परीक्षा दी थी लेकिन मैं आश्वस्त नहीं था कि आगे की पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम में कर पाऊँगा। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में तो स्नातकोत्तर स्तर की सारी पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम में होती है। विज्ञान विषय में फॉर्म भरने का सवाल इसलिए भी नहीं पैदा होता था कि अभी तक की पढ़ाई तो मेरी इच्छा के विपरीत की विज्ञान में हुई ही थी। आगे मैं बिल्कुल ही इतिहास दुहराना नहीं चाहता था। डॉक्टर साहब! मैं आपको एक महत्त्वपूर्ण घटना बताना भूल गया। बी.एससी. वित्तीय वर्ष के अध्ययन के दौरान एक दिन यूँ ही मैंने सादे कागज़ पर अपने पिछले अध्ययन को आधार बना करके एक कहानी लिखी उसे उस समय की एक प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका मुक्ता में भेज दिया। इत्तेफाक से वह छप गयी और सत्तर रुपये भी मिले। इसे भी हिंदी विषय के साथ फॉर्म भरने के कारण के रूप में देख सकते हैं। असल बात यह थी कि मुझे एडमिशन लेना ही नहीं था।  जिन जनाब ने फॉर्म भरवाया था उनका कहना था कि पीछे आपने क्या पढ़ा है इससे ऐडमीशन में कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मुझे लग रहा था कि ऐडमिशन नहीं होगा।
 बहरहाल वहाँ से एडमिशन के लिए पत्रा आ गया लेकिन क्योंकि मुझे प्रवेश नहीं लेना था इसलिए मैंने किसी को बताया ही नहीं। मैं खाली था इस बीच मामा जी के बच्चे पढ़ाई के लिए फैजाबाद में शिफ्ट कर गए थे और उन्हीं के साथ मेरे दो छोटे भाइयों का भी वही दाखिला करवा दिया गया। पिताजी ने अपना तबादला फैजाबाद शहर के पास ही करवा लिया और सारे बच्चों के  देखभाल की जिम्मेदारी उठा ली। छोटी वाली खाला का मंझला बेटा भी वहीं पढ़ाई के लिए आ गया। इधर मामी गाँव से आ गयीं। मैं कभी गाँव तो कभी फैजाबाद आता रहता कहने को तो मेरे यह बुरे दिन थे लेकिन वास्तव में ऐसी बात नहीं! घर बैठे मस्ती चल रही थी। मुझसे छोटे भाई का एक छोटा- सा ऑपरेशन हुआ था। जनपद के हॉस्पिटल में। सुबह का वक्त था। उसके पास पिताजी और मामा जी तथा मैं बैठे थे यूँ ही किसी ने पूछा अलीगढ़ में दाखिले का क्या हुआ तो मैंने बताया कि दाखिला तो हो गया लेकिन अब जाना मुमकिन नहीं है क्योंकि कल ही की तारीख दाखिले की आखिरी तारीख है। फिर तय यह हुआ कि अब दाखिला हो गया है तो जाओ देख लो मन लगे तो पढ़ना ना लगे तो चले आना। मामा जी का कहना था कि कहीं भी घुसना मुश्किल होता है लेकिन छोड़ने का क्या? जब चाहो छोड़ दो! फिर मैं गाँव गया वहाँ से वापस देर रात में आया और इस बीच पैसे का इंतजाम हो गया था। रात बारह बजे लखनऊ के लिए रवाना हो गया। तब लखनऊ से दिल्ली चलने वाली गोमती एक्सप्रेस बड़ी ही महत्त्वपूर्ण रेलगाड़ी थी। सुबह छः बजे चलती और ग्यारह-बारह तक अलीगढ़ पहुँचा देती। अलीगढ़ पहुँचा और दाखिला हो गया और आगे की पढ़ाई चल निकली। हालांकि पढ़ाई आगे बढ़ेगी इसके प्रति मैं बहुत आश्वस्त नहीं था, अभी भी इरादा ही था कि मन लगेगा तो पढ़ाई को कंटीन्यू किया जाएगा नहीं लगा तो वापसी हो जाएगी। एक दिलचस्प बात मैं आपको यह भी बताना चाहूँगा उस समय कुछ एक लड़के ऐसे थे जिन्होंने हिंदी में दूसरे विषयों से इसलिए आकर की ऐडमिशन लिया था कि हिंदी आसान है और आसानी से नौकरी मिल जाएगी लेकिन जहाँ तक मेरी बात है तो पहली बात तो यही कि मुझे यह पता ही नहीं था की उच्च शिक्षा के क्षेत्रा में नौकरी कैसे हासिल की जाती हैं। एम.फिल. और पी.एचडी. की डिग्री क्या और कैसी होती है? उसकी क्या अहमियत है यह भी मैं नहीं जानता था तो ऐसे में हिंदी आसान है या कठिन या फिर उसकी लाभ क्या है मेरी समझ से परे थे। लेकिन आप कह सकते हैं कि मेरा विज्ञान से साहित्य में पलायन अकस्मात् या निरुद्देश्य ही था। कोई सोची-समझी योजना के तहत तो ऐसा बिल्कुल ही नहीं हुआ।

आपकी साहित्य में रुचि कब और कैसे हुई?
 साहित्य में रुचि के संदर्भ में तो मैंने विस्तार से बताया ही दरअसल फ़ीरोज़ साहब मुझे लगता है आपका प्रश्न यह होना चाहिए कि मेरे भीतर साहित्य की समझ कब पैदा हई। अध्ययन में तो बालपन से ही रुचि मेरी थी ही, लेकिन मुझे समझ नहीं थी कि मैं जो पढ़ता हूँ वह क्या है? अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद कुछ दिन अध्यापकों और वरिष्ठ छात्रों के सानिध्य में रहने के बाद मेरे अंदर धीरे-धीरे साहित्यिक अभिरुचि पैदा होने लगी इसको यूँ कहें कि साहित्य की समझ पैदा होने लगी इसमें कई एक लोगों का योगदान है। उस समय हमारे विभागीय पुस्तकालय में हमारे इलाके के एक नौजवान श्री रोशन खयाल साहब पुस्तकालय के इंचार्ज थे। मुझे काफी उत्साहित किया इधर हॉस्टल में मेरे वरिष्ठ सहवासी कलीम साहब ने भी पढ़ाई-लिखाई की तरफ मुझे मोड़ने में भूमिका निभाई। कक्षाओं के आरंभिक ही दिन थे। शायद पहला या दूसरा दिन रहा होगा। उस दिन मेरे उस्ताद-ए-मोहतरम प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी साहब ने साधारण परिचय के दौरान मुझसे पूछा कि अलीगढ़ ही पढ़ने क्यों आए हो तो मैंने सच-सच बात बता दी। आया हूँ पढ़ने अगर मन लगा तो पढ़ाई करूँगा नहीं तो थोड़ी मस्ती करूँगा और बड़े शहर को देखभाल करके लौट जाऊँगा। संभवतः मेरी सच बयानी से प्रभावित हुए। अपने समय के नामी-गिरामी उस्ताद थे। उनकी विद्वता के सभी कायल थे। और उनसे उसी के बाद जो संबंध बन गया मेरी उच्च शिक्षा से लेकर साहित्यिक समझ बनने में उसकी बड़ी अहम् भूमिका है। धीरे-धीरे अध्यापकों से भी संबंध बनने लगे। हमारे दूसरी अध्यापकों में प्रोफेसर नज़ीर मुहम्मद, प्रोफेसर रवीन्द्र भ्रमर प्रोफेसर वी. एन. शुक्ल, प्रोफेसर के. पी. सिंह और कई दूसरे महत्त्वपूर्ण अध्यापक थे। उनके सहचर्य का भी सीखने में योगदान रहा। मेरे ख़्याल से उसी सुमय विभाग में डॉ. भरतसिंह की नियुक्ति हुई थी साथ बेहद काबिल विद्यार्थी अजय बिसारिया और आशिक अली आदि के साथ कभी-कभी उठने-बैठने का अवसर मिलने लगा। सब बेहद जोशीले और पढ़ने वाले थे। व्यतीत होते समय के साथ धीरे-धीरे पढ़ाई में रुचि उत्पन्न होने लगी। साहित्यकारों के नामां से थोड़ा-थोड़ा परिचित होने लगा। किताबें पढ़नी शुरू की, हालांकि जिस व्यक्ति का साहित्य से कोई संबंध ना हो तो उसके लिए कहानियाँ पढ़ना भले ही संभव हो लेकिन मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ना सहज नहीं, क्योंकि मुझे पढ़ने की आदत थी तो इसलिए मुझे इस समस्या से नहीं जूझना पड़ा। मैं पढ़ने लगा कक्षाओं में, अध्यापकों से, बाहर वरिष्ठ सहपाठियों से कुछ और दूसरे साथियों से धीरे-धीरे बातचीत से जानकारी मिलने के साथ-साथ साहित्य की समझ भी बनने लगी। तो आप कह सकते हैं कि यह समझ एक दिन या महीने में नहीं बनी ना आरंभ से ही थी बल्कि जिन लोगों का मैंने ज़िक्र किया उनके अतिरिक्त विश्वविद्यालय के परिवेश से बनी। सीखने के जानने और समझने की प्रयास में आप कहें तो साहित्य पढ़ने की आवश्यकता आदत में तब्दील हो गयी। कदाचित इसे ही आप मेरी रुचि के संदर्भ में देख सकते हैं सच्ची बात तो यह है कि अभी भी मैं समझ नहीं पाया कि क्या वाकई में मेरे अंदर साहित्यिक समझ पैदा भी हुई भी है या नहीं है या नहीं अथवा रुचि है या नहीं बस यूँ ही सब कुछ ना जाने कैसे और क्यों हो गया। एक बार जरूर कहूँगा मैं खुद को कहीं से भी साहित्यकार के रूप में नहीं पाता। थोड़ा बहुत लिखा है बस यूँ ही! हालांकि आप विश्वास नहीं करेंगे शायद कोई ना विश्वास करें! मुझे साहित्यकार के रूप में पहचाने जाने में कोई विशेष इच्छा नहीं, लेकिन सच यही है लिखता जरूर हूँ बस यूँ ही शायद एक अध्यापक हूँ। हिंदी भाषा और साहित्य से मेरी रोजी-रोटी चलती है उसी को सुचारू रूप से चलाने के लिए जो लिखना जरूरी है। उसी क्रम में थोड़ा-बहुत इसका भी अभ्यास ही समझिए बस!

आप की पहली रचना कब प्रकाशित हुई?
  मैंने आपको बताया था कि मैं बी. एससी. फाइनल में था उसी समय सादे कागज पर एक कहानी लिखकर के अपने समय की प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका मुक्ता में भेज दिया और वह प्रकाशित भी हो गयी, लेकिन संभवत आप साहित्य के संदर्भ में बात कर रहे हैं? अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एम.ए. के दौरान हॉल मैगजीन में भी मेरी एक छोटी-सी रचना प्रकाशित हुई शायद उसका नाम ‘उम्मीद’ था कहानी की शक्ल में लिखने की कोशिश की थी। हालांकि बहुत ही छोटी-सी और कुछ कुछ अधूरी भी थी।  डॉक्टर साहब उस रचना का भी संभवतः मेरी लेखन की पृष्ठभूमि के रूप में निश्चित रूप से योगदान है। हुआ कुछ यूं कि जो भी दस-बारह पैराग्राफ मैंने लिखे थे उसको अपने भावी उस्ताद प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी के पास ले गया उन्होंने उसे देखा और यह कहते हुए तुम लिख सकते हो राय दी अब अगर आगे लिखने की कोशिश करना तो उससे पहले ढेर सारी पुरानी नई जो भी मिले कहानियां पढ़ो। कहानियों से उनकी मुराद साहित्यिक कहानियों से थी। उन्होंने आरंभ प्रेमचंद के मानसरोवर पढ़ने से करने की सलाह दी। मैंने उनकी राय पर कितना अमल किया यह बताना तो मुश्किल है, लेकिन कदाचित जो भी मैं लिखने की कोशिश करता हूं उसमें उसका भी बड़ा योगदान है। तमाम प्रतिभा के बावजूद तकनीक तो मुझे लगता कि अध्ययन से ही आती है। मैंने व्यस्थित रूप से पहली कहानी लिखी जिसको की आप साहित्यिक रचना के रूप में रेखांकित कर सकते हैं इसका नाम ‘अंतहीन’ था। कई लोगों को सुनाया भी लगभग लगभग कहानी मुझे याद हो गई थी।  जहाँ तक प्रकाशित होने की बात है तो संभवतः मेरी पहली कहानी राजस्थान की एक दैनिक पत्रा नव्यज्योति में छपी या फिर बिहार में पटना से निकलने वाली अपने समय की महत्त्वपूर्ण पत्रिका ज्योत्सना प्रकाशित हुई कह नहीं सकता। राजस्थान पब्लिक सर्विस में दिये गये साक्षात्कार के बाद की वापसी में मैंने उस समय तक जो कुछ भी लिखा था थोड़ा-बहुत उसको वहीं छोड़ आया। मेरा सारा लिखा जो एक छोटे से बैग में था वह मैं कहीं भूल आया या किसी ने चुरा लिया। उसकी हस्तलिखित प्रति हॉस्टल के कमरे में ही एक पुरानी रेग्जीन की अटैची में थी। वह भी दिल्ली, अलीगढ़ और फिर राजस्थान में की जाने वाली नौकरी की भाग-दौड़ में इधर-      उधर हो गयी। उसमें से कई चीजं़े अब तक नहीं मिलीं। बहरहाल बहुत बाद में बने साहित्यिक संस्कारों की परिणत के रूप में आरंभ हुआ छुटपुट लेखन धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। अकादमिक आवश्यकताओं और उस्ताद-ए-मोहतरम की प्रेरणा या कह सकते हैं कि डांट-फटकार के भय से काम चलाऊँ शोध आलेख, आलोचना और समीक्षाएं भी लिखनी आरम्भ कर दी। कुछ एक साक्षात्कार भी लिए। हिन्दी में इंटरनेट की सुविधा के आमफहम होने के साथ अपने एक छोटे भाई की प्रेरणा से हिन्दी में ब्लाग भी लिखना आरम्भ किया। तब इसका आरम्भिक दौर था। उसपर भी थोड़ी-बहुत आपबीती और कुछ जगबीती है। यूँ ही लेखन का सिलसिला चल निकला। बाकी बहुत ही स्पष्ट रूप से कहना चाहूँगा कि मैं खुद को जब समझने की कोशिश करता हूँ तो बहरहाल साहित्यकार के रूप में तो नहीं ही पाता हूँ। कब कैसे और क्यों लिखने लगा अभी भी कोई स्पष्ट उत्तर मेरे पास नहीं है।

आप अपनी रचनाओं की पृष्ठभूमि के संदर्भ में थोड़ा-सा बताइए।
 आपको पता भी है कि अब तक मेरे तीन कहानी-संग्रह, एक उपन्यास और तीन आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित हैं। शोध आलेख, आलेख समीक्षाएं और मेरे ब्लाग जो अब साइट में तब्दील हो चुका है उसपर भी थोड़ी सामग्री है। एक उपन्यास पर काम चल रहा हैं हालांकि जो गति होनी चाहिए थी वह है नहीं। जहाँ तक पृष्ठभूमि का सवाल है तो मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आया हूँ, हालांकि शहर में रहते हुए बहुत दिन हो गए लेकिन संस्कार ग्रामीण ही हैं। स्वाभाविक भी है क्योंकि संस्कार के निर्मिति की आयु अट्ठारह से बीस वर्ष तक की ही होती है। वह समय मेरा मुख्य रूप से गाँव में ही बीता इसलिए मेरी रचनाओं में ग्रामीण जीवन और समाज की अभिव्यक्ति ही हुई है। सच्ची बात तो यह है की इतना लंबा अरसा शहर में व्यतीत करने के बावजूद अभी तक मुझे शहरी जीवन की बहुत गहरी समझ भी नहीं है। हालांकि एक लेखक की हैसियत से यह ठीक बात नहीं लेकिन जो है सो है। यद्यपि कोई मेरा विशेष आग्रह या ध्येय नहीं रहा है लेकिन मेरी अधिकांश रचनाओं में प्रायः मुस्लिम जीवन और समाज की ही पृष्ठभूमि है शायद इसलिए है कि मैं मुस्लिम समाज से संबंध रखता हूँ तो निश्चित ही उसकी प्रवृत्तियों से परिचित होना अधिक स्वाभाविक है। हालांकि मुझे साहित्य को इस प्रकार के यानी धर्म जाति अथवा वर्ग की खाने में विभाजित करके देखना या समझना ठीक नहीं लगता है लेकिन वर्तमान में यही हो रहा है इसी की प्रतिष्ठा है।

आपकी अधिकांश रचनाओं के केंद्र में स्त्रा है। ऐसा क्यों?
 बिल्कुल आप सही कह रहे हैं। लिखते समय मेरा यह प्रयास नहीं होता है, लेकिन जब मैं बाद में जब अपने लेखन पर गौर करता हूँ तो आपकी बात बिल्कुल सही लगती है। ऐसा क्यों है ईमानदारी से कहूँ तो कोई कारण मुझे दिखाई नहीं देता। हाँ! अगर तलाश किया जाए तो कहाँ जा सकता है कि वास्तव में संसार की सृष्टि के केंद्र में नारी ही है और उसका क्षेत्रा इतना व्यापक है कि उसकी जद से कुछ भी बाहर नहीं। भले ही पुरुष वर्ग ही केंद्र में दिखता है। उसका वर्चस्व है लेकिन सृजन की शक्ति के केंद्र में स्त्रा ही है। स्त्रा के रूप में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माँ होती है। मैं आपको बड़ी दिलचस्प बात बताऊँ के माँ से मेरा बहुत अधिक संबंध नहीं रहा है। मैं आपको बता चुका हूँ कि छुटपन में ही मैं अपने ननिहाल में चला गया शायद माँ की ममता की अतृप्ति की पूर्ति हेतु मेरी रचनाओं में स्त्रा केंद्रित विषयों को महत्त्व प्राप्त हो जाता हो। निश्चित ही यह चुनाव सप्रयास नहीं होता है। वर्तमान में लेखन का जो  काम चल रहा है उस विषय के केंद्र में ही औरत की ही शक्ति ही है।

औरत जब इतनी शक्तिशाली है तो फिर यह पहचान का संकट क्यों?
 यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है। प्रतिभा मेधा और क्षमता इत्यादि से पहचान का सीधा संबंध होता है हमें ऐसा शायद लगता है। बहुत से साधारण क्षमता वाले लोगों की पहचान बड़ी व्यापक होती है, जबकि इसके विपरीत तमाम लोग ऐसे भी होते हैं जो तमाम प्रतिभा से लैस होते हुए भी हाशिए पर भी बमुश्किल अपनी उपस्थिति दर्ज करवा पाते हैं। नारी के शक्तिशाली होते हुए भी उसकी पहचान का संकट है। दरअसल हमारे समाज की संरचना ही कुछ ऐसी है कि अपनी तमाम शक्तियों के बावजूद स्त्रियों को दोयम दर्जे की जिं़दगी गुजारनी पड़ती है। दरअसल इस विडंबना के पीछे भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पुरुषों के वर्चस्व की पृष्ठभूमि काम करती रही। मुझे लगता है कि प्राचीन काल से ही भारत विचार और दर्शन की दृष्टि से उर्वर भूमि रही है। विडंबना यह है कि स्त्रियों की शक्ति की चर्चा विविध स्तरों पर होती तो रही, कहना अनुचित न होगा कि व्यवहार में उनके साथ पुरुषों की वर्चस्ववादी मानसिकता का प्रभाव ही सदैव से विद्यमान रहा। जहाँ दूसरी कई क्षेत्रों में संसार की उन्नत से उन्नत सभ्याताओं से बराबरी करते दिखते हैं इस दृष्टि से पिछड़े ही रहे, लेकिन बहुत दिनों तक ऐसा चलने वाला नहीं और अगर चलता रहा तो हम बिछड़ते ही जाएंगे आप मेरी कहे को समझिए। बड़ी-बड़ी बातें करना, आदर्श और नैतिकता की दुहाई देना और बात है और उस पर अमल करना और बात है। मुझे तो लगता है की तमाम संसाधनों और प्रतिभाओं के बावजूद हमारी इसी द्वंद्वात्मक प्रवृत्ति के कारण हमें प्रगति और विकास के क्षेत्रा में वह उपलब्धि कदाचित हासिल नहीं हो पाई है जो हो जानी चाहिए थी। मैं अतीत की कहानियों के बजाय वर्तमान की स्थितियों-परिस्थितियों और वास्तविकता को मद्देनज़र रखते हुए करने में अधिक विश्वास रखता हूँ इसीलिए मुझे लगता है कि हमें शक्ति को पहचान प्रदान करनी ही होगी।

पहचान का संकट क्या केवल ग्रामीण परिवेश में ही है अथवा नगरों में भी?
 पहचान का संकट गाँव और शहर में विभाजित नहीं हुआ। दोनों ही स्थानों पर स्थितियाँ एक जैसी हैं। बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि बजाहिर भले ही शहरी जीवन में वह अधिक स्वतंत्रा दिखाई देती हैं, लेकिन गहराई से अगर आप देखें तो ग्रामीण जीवन की अपेक्षा शहरी जीवन में स्त्रियों की स्थिति अधिक बदतर है। मैं एक दिलचस्प बात की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करवाना चाहूँगा। गाँव में विवाह के बाद जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है स्त्रियाँ प्रभावशाली होती जाती है जबकि नगरीय सभ्यता में उनकी स्थिति कमजोर होने लगती है। हमारे यहाँ ग्रामीण जीवन में शादी के बाद धीरे-धीरे अक्सर-व-बेस्तर स्त्रियाँ अपने रख-रखाव के प्रति उदासीन होने लगती हैं। एक कहावत हमारे यहाँ प्रचलित है भयल ब्याह मोर करबे का! इसका मतलब है की शादी होने के बाद जब-बाल बच्चे हो गए तो धीरे-धीरे वह इसलिए संभवतः अपना ख़्याल करना छोड़ देती है कि अब किसी की क्या मजाल उसका कोई कुछ कर ले। लेकिन इसके विपरीत शहरों में ढलती उम्र हो में स्त्रियों को एक अजीब-सा डर सताने लगता है। परिणाम स्वरूप वह अपने रूप और सौंदर्य के प्रति अधिक सचेत हो जाती हैं। मेरी इस बात से भले ही आप सहमत ना हो और असहमति के संदर्भ में आपके पास बहुत सारे तर्क भी हां सकते हैं लेकिन यह वास्तविकता है। कुछ एक ऐसे क्षेत्रा हैं जहाँ पर उनकी आजादी को सीधे-सीधे देखा और समझा जा सकता है। इसी के बरक्स शहरी समाज में दिखने वाली आज़ादी के पीछे की जकड़न उस समाज में थोड़ा गहराई में जाने पर दिखाई देने लगती है। तो कुल मिला करके दोनों ही परिवेश में स्त्रियाँ दोयम दर्जे की ज़िंदगी व्यतीत करने के लिए ही मानो पैदा होती हैं।

बहुसंख्यक वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग के सामाजिक संदर्भ में स्त्रियों के अस्तित्व या कहे पहचान की संकट की स्थिति पर आपके विचार क्या हैं?
 दोनों ही समाजों में स्थितियाँ लगभग एक-सी हैं। असल में दोनों ही समाज की संरचना में कोई विशिष्ट अंतर नहीं है। मुझे तो लगता है जिस अंतर को ले करके मीडिया इत्यादि में बड़ी चर्चा की जा रही है और एक वर्ग के लिए अतिरिक्त रूप से संवेदना प्रकट की जा रही है वह मात्रा दिखावा है और अंतर जो है वह कृत्रिम है। दोनों ही समाज की मूलभूत आवश्यकताओं में जब कोई अंतर नहीं है तो उनको प्राप्त करने के साधनों में भला अंतर कैसे हो सकता है। बेरोजगारी, गरीबी, बीमारी, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार इत्यादि की मार दोनों ही समाजों पर एक ही जैसी पड़ती है। दोनों ही समाज के आचार-विचार रहन-सहन खानपान मौलिक रूप से एक हैं। वर्तमान में भले ही उन्हें अलग बताने का कृत्रिम प्रयास किया जाए लेकिन वह अलग नहीं। अध्ययनों से यह सत्य सिद्ध है कि बंगाल का मुसलमान उत्तर प्रदेश की मुसलमानों की अपेक्षा जीवनशैली के धरातल पर बंगाल के हिंदुओं के अधिक निकट है। प्रभाव धार्मिक कर्मकांडों तक पर भी महसूस किया जा सकता हैं। बंगाल में मोहर्रम के जुलूस पर दुर्गा पूजा के प्रभाव को आप आसानी से देख सकते हैं। यही स्थिति लगभग देश के अधिकांश हिस्से में दिखाई देती है और यह सिद्ध करती है कि दोनों समाजों में मौलिक अंतर नहीं है तो भला स्त्रियों की स्थिति में अंतर कैसे हो सकता है? मुस्लिम समाज के स्त्रियों की स्थिति बदतर या आप कहें कि अपेक्षाकृत भयावह उसी प्रकार से है जिस प्रकार से आप यह भी कह सकते हैं कि सवर्ण समाज की अपेक्षा दलित दमित समाज की स्त्रियों की स्थिति बदतर और भयावह है। मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन के पीछे उसका शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ापन है। प्राचीनकाल से ही पीड़ित और दमित दलित वर्ग से भी बदतर स्थिति वर्तमान में मुस्लिम समाज की है तो स्वाभाविक है। इस समाज की स्त्रियाँ अधिक दबी-कुचली जाती प्रतीत होती हैं।

पहचान के संदर्भ में शिक्षा की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
 शिक्षा की भूमिका तो जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करती है। यह सर्वविदित तथ्य है कि विविध कारणों से दिन पर दिन मुस्लिम समाज की स्थिति दयनीय होती जा रही है वह पिछड़ता जा रहा है। उसकी इस स्थिति के पीछे अशिक्षा एक महती कारण है। वस्तुतः अशिक्षा आपको हर क्षेत्रा में पीछे कर देती है। मुस्लिम समाज में पुरुषों की शैक्षणिक स्थिति अकथ है तो स्त्रियों की स्थिति की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि वास्तव में क्या हो सकती है या होगी! मुझे लगता है कि मुस्लिम समाज की संभवतः वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या उसका शैक्षणिक पिछड़ापन है। स्त्रियों की शिक्षा का प्रभाव समाज पर भी विविध रूपों से पढ़ करके उसे जड़ता की स्थितियों से उबरने नहीं दे रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि बजाय आगे बढ़ने के यह समाज पीछे की ओर जा रहा हैं फ़ीरोज़ जी! मेरे उपन्यास की मूल समस्या मुस्लिम समाज में शिक्षा की बदहाली ही है। शिक्षा की स्थिति में सुधार ही वह मार्ग है जोकि स्त्रियों को खासतौर से मुस्लिम समाज की स्त्रियों को और सर्व समाज की स्थितियों को पहचान के संकट से मुक्ति दिला सकता है। मुक्ति के लिए संघर्ष की जरूरत हैं। मैं स्त्रावादी लेखकों से विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि वृहत्तर भारतीय समाज में स्त्रा मुक्ति के संदर्भ में सबसे महती भूमिका शिक्षा की होगी। स्त्रावादी रचनाकार जिन मुद्दों को उठाकर स्त्रा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में लगे हुए हैं वास्तव में वह मुद्दे हैं ही नहीं। असल में डॉक्टर साहब ना जाने क्यों बुद्धिजीवी वर्ग या आप कहें कलाकार समाज के एक बहुत ही सीमित वर्ग को आधार बनाकर के ही समाज की कल्पना करता है और अक्सर समाज का बड़ा तबका उसके चिंतन और उसके विचार यहाँ तक कि विषय चयन की दृष्टि से भी उनके दायरे में आता ही नहीं। उत्साह के अतिरेक और फटाफट छा जाने की मंशा से यह लोग ऐसे -ऐसे मुद्दों को ला करके हंगामा मचा देना चाहते हैं जो वायवीय और कृत्रिम ही होते हैं या फिर उनका सरोकार समाज के सीमित तबके से होता होता है। मैं नहीं कहता कि उसे उठाना नहीं चाहिए। निश्चित ही वह भी समाज का हिस्सा होते हैं, लेकिन भारतीय नारी समाज की प्रमुख समस्या के रूप में तो अगर देखे जाते हैं तो संदेहास्पद ही होते हैं। विमर्शों की आपाधापी में बुजुर्ग विमर्श भी दस्तक देने लगा है। निश्चित रूप से हमारे देश में बुजुर्गों की समस्याएं हैं, लेकिन वह उस रूप में नहीं है जिस रूप में पश्चिमी देशों में होती हैं। हमारे देश में उनकी समस्याओं के मूल में प्रायः आर्थिक कारण ही होते हैं जबकि पश्चिमी देशों में आर्थिक समस्या उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं। कम-से-कम बुजुर्गों के जीवन में। मैं कभी-कभी अपनी कक्षा में अपने छात्रों से यह सवाल करता हूँ कि बताओ कि किसके-किसके घर में बुजुर्ग है। डॉक्टर साहब मैं देश के एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक हूँ। वहाँ पर आने वाले अधिकांश छात्रा मध्यवर्ग अथवा निम्न मध्यवर्ग की तो होते ही हैं। सभी छात्रा हाथ उठा देते हैं। लगभग सभी के घरों में नानी, दादी, दादा, नाना, ताऊ इत्यादि के रूप में बुजुर्ग होते हैं। जब सवाल करता हूँ कहाँ रहते हैं जवाब यही मिलता है कि घर में ही रहते हैं। लोग कहते हैं कि वर्तमान में विश्वविद्यालयी प्राध्यापक उच्च मध्यवर्ग से संबंध रखते हैं। मेरे आस-पास जितने भी मेरे वर्ग के मेरे जानकार हैं किसी भी एक व्यक्ति के परिवार का कोई भी बुजुर्ग सदस्य वृद्धाश्रम इत्यादि में नहीं रहता है। दिल्ली या दूसरे महानगरों में जो कहानियां हैं मैं दावे तो नहीं लेकिन विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आनुपातिक रूप से बहुत कम लोगों की कहानियाँ हैं। मेरा मानना है कि ऐसे संदर्भों को भी विषय के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए, अभी भी हम लोगों को समाज के उन मूलभूत प्रश्नों से ही लड़ना है जो सदियों से खड़े हैं। एक दूसरा नया मुद्दा जो विकराल रूप ग्रहण कर रहा है वह सामाजिक समरसता पर विशिष्ट कारणों से हो रहा कुठाराघात! लेकिन ना जाने क्यों लोग उससे आँखें मूंदे हुए हैं।

आपने ‘अपनी बात’ में लिखा है कि मुस्लिम समाज मुसलमान होने से पहले भारतीय है आपका आशय क्या है?
 प्रश्न बड़ा गंभीर है और जटिल भी। लेकिन मेरा जो यह लिखने का आशय है वह बड़ा ही स्पष्ट है। मैं अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए तो आपका ध्यान हिंदी साहित्य परिदृश्य की तरफ आकृष्ट करवाना चाहूँगा। यह मेरी ही नहीं बल्कि हिंदी के नामवर लोगों की गंभीर चिंता है कि मुस्लिम जीवन और समाज हिंदी साहित्य के परिदृश्य मे उपस्थिति के धरातल पर लगभग हाशिए से बाहर ही है। यद्यपि प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में सामासिक संस्कृति की प्रवृत्ति बड़ी ताकत के साथ सक्रिय रही है। अल्पसंख्यक वर्ग का तमाम पिछड़ेपन के बावजूद कहीं-न-कहीं हर क्षेत्रा में योगदान है। कम से कम हिंदी बेल्ट में तो कहा ही जा सकता है कि हर क्षेत्रा में बहुसंख्यक वर्ग के समानांतर ही अल्पसंख्यक वर्ग की उपस्थिति समाज में है और वह हर स्तर पर देखी जा सकती है। गाँव से लेकर शहर तक में, खेत-खलिहानों से लेकर कल कारखानों तक में, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रा से ले करके युद्ध के मैदानों तक नए हिंदुस्तान में बँटवारे के बाद उनकी बड़ी आबादी के नये मुल्क में पलायन कर जाने के बावजूद लिखी जाने वाली सफलता की इबारतों में वह भी अपने नाम को दर्ज कराने की काबिलियत के साथ मौजूद है। अल्पसंख्यक समाज बहुसंख्यक समाज की ही तरह हर क्षेत्रा में उसी रूप में सक्रिय दिखता है जिस रूप में बहुसंख्यक वर्ग सक्रिय है। वह किसान है, कारीगर है, अधिकारी बनना चाहता है, सरकारी कर्मचारी बनना चाहता है, खिलाड़ी के रूप में देश की सेवा करना चाहता है, नेतृत्व के लिए आगे आना चाहता है भले ही दाल में नमक के बराबर हो, उसकी सक्रियता के प्रामाणित करने की आवश्यक्ता नहीं! लेकिन विडंबना यह है कि जब भी उसकी बात की जाती है उसके प्रति जाने-अनजाने संवेदनशील होकर जब उसके हितों की चर्चा की जाती है तो तमाम चीजों को दरकिनार करके केवल उसकी साम्प्रदायिक समस्याओं या उससे जुड़े साम्प्रदायिक संदर्भों को ही देखने समझने और उनको प्रस्तुत करने तक ही ना जाने क्यों हम अपने को सीमित कर लेते हैं। अलगावजन्य पीड़ा मुस्लिम समुदाय की समस्या है, लेकिन वही एकमात्रा समस्या नहीं। विद्वेष चाहे वह अल्पसंख्यक वर्ग हो बहुसंख्यक समाज उसकी प्रवृत्ति नहीं, समरसता ही स्वाभाविक वृत्ति है। कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों को आधार बनाकर के या फिर कुछ विशिष्ट हितों को ध्यान में रखते हुए उनके साथ सहज व्यवहार नहीं करते हैं। समय-पर अकारण ही उन्हें कभी-कभी अस्वाभाविक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी परिणाम भयावह भी होते हैं, लेकिन उनका दर्द केवल यही नहीं। उनके अभाव, उनकी गरीबी, सामाजिक रूढ़ियाँ, अशिक्षा इत्यादि के बीच बनते बिगड़ते उनके सपने हैं। डॉक्टर बनने के, इंजीनियर बनने के, अधिकारी बनने के, नेता बनने के, सुचारू और खुशहाल जिंदगी जीने के, लेकिन कहीं भी इसकी चर्चा ही नहीं होती है। इस पर कोई गौर ही नहीं किया जाता है। तो मेरा भारतीय कहने का आशय है कि जो मुख्यधारा का समाज है मुस्लिम समाज भी उसी का एक प्रमुख अंग है वह कहीं अलग से नहीं आया है बस इतना ही! इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। उसे भी भारतीय होने पर उतना ही गर्व है जितना कि दूसरे वर्ग और समाज के लोगों को। उसकी भी आकांक्षा इच्छा अंततः देश की आकांक्षाओं और इच्छाओं से अलग नहीं। इसलिए उन्हें भी मुख्यधारा की सहज कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए।

मुस्लिम समाज के लोगों से देशभक्ति का प्रमाण क्यों माँगा जाता है?
 मेरी आयु इतनी हो गई है लेकिन किसी ने आज तक देशभक्ति का प्रमाण नहीं मांगा। यह सब बातें वास्तविकता कम ख़्याली पुलाव अधिक हैं। मैंने आपसे कहा ना मुस्लिम समाज को ले करके वास्तव में रचनाकारों की जो चिंता होनी चाहिए या किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग की जो चिंता होनी चाहिए वास्वत में वह है नहीं। यह सब सवाल और उनके संदर्भ में की जाने वाली बातें प्रायः हकीकत से अलग पूर्वाग्रहों, अवधारणाआें,   मान्यताओं इत्यादि पर ही अधिक निर्भर करती हैं। रचनाकार या तथाकथित सामाजिक चिंतक अल्पसंख्यक समाज के हितैषी के रूप में अपनी पहचान को निर्मित करने वाले कतिपय बुद्धिजीवियों की यह मानसिक जुगाली है। इससे कोई ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता है। समसामयिक संदर्भ में देश का मीडिया जरूर ऐसा वातावरण निर्मित करने में लगा हुआ है कि हो सकता है यह प्रश्न हवाई है हकीकत में तब्दील हो जाए। यद्यपि हमारे देश का आवाम बहुत ही विवेकवान है इसलिए बहुत अधिक घबराने की जरूरत नहीं है। जिस प्रकार का वातावरण निर्मित किया जा रहा है वह बहुत दिनों तक या आप कहें कि हमारे देश का स्थाई चरित्रा बन ही नहीं सकता है। समय-समय पर हमारे देशवासियों ने इस प्रकार के झंझावातों का सामना किया और उससे उबर भी गए। इसलिए यह प्रश्न बहुत प्रासंगिक नहीं।

‘आधी दुनिया’ के संदर्भ में कुछ कहना चाहेंगे?
 उपन्यास लोगों के हाथ में है ही, खासतौर से आपने इसको परखने की कोशिश की तो परिणाम भी आपके सामने होगा ही मैं क्या कहूँ!

क्या आपको नहीं लगता है कि आपके उपन्यास की अपेक्षित चर्चा नहीं हुई?
 देखिए फ़ीरोज़ साहब आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते है कि चर्चा होती नहीं है बल्कि करवाई जाती है। मैं समझता यह हूँ कि जरूरी भी है। हिंदी साहित्य की पठनीयता को ले करके संकट की स्थिति है इसका कारण भी यही है कि किसी भी रचना और पाठक की बीच व्यवस्थित रूप से संबंध स्थापित करने का प्रयास नहीं किया जाता हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें की रचनाओं की मार्केटिंग नहीं की जाती है। बाज़ारवाद के इस दौर में यह जरूरी है। रचनाकारों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए और सक्रिय होना चाहिए। हिंदी में पाठकों की कमी नहीं बस आवश्यकता इस बात की है कि उनको पढ़ने के लिए आमादा किया जाएं इसके लिए प्रयास किए जाएं। मैं बजातेखुद इस मामले में ज़ीरो हूँ। ठीक बात नहीं है। गलत बात है। मैं यह नहीं समझता कि मैंने कोई युगपरिवर्तनकारी कार्य कर दिया है, लेकिन यकीनन मैंने उपन्यास लिखा है और ऐसे मुद्दे उठाए हैं और उन मुद्दों को सकारात्मक दृष्टि से देखने की कोशिश भी की है जो जरूरी है लेकिन संभवतः मेरी काहिली के कारण उपन्यास को जितने लोगों तक पहुँचना चाहिए था वह पहुँच नहीं सका। मैं आपका शुक्रगुजार हूँ आपने इस काम को करने की शुरुआत की है। हो सकता है कि प्रतिक्रिया ठीक मिले फिर मैं भी मैदान में आ जाऊँ।

उपन्यास के शीर्षक के औचित्य पर प्रकाश डालिए।
 फ़ीरोज़ साहब शीर्षक मेरी बड़ी समस्या है। कहानियों के शीर्षक भी मैं थोड़ा मुश्किल से दे पाता हूँ। आधी दुनिया शायद मैंने इसलिए इस उपन्यास का नाम रखा है क्योंकि हिंदी का एक प्रसिद्ध उपन्यास आधा गाँव नाम से है। आप और बेश्तर पाठक भी यही सोचेंगे, लेकिन वास्तव में आप विश्वास करिए ऐसा है नहीं। क्योंकि कथा के केंद्र में मुख्य रूप से स्त्रा है इसलिए शायद मैंने सहज रूप में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्रा को ध्यान में रख करके इसका नाम आधी दुनिया रख दिया है, लेकिन बहुत स्पष्ट रूप से मैं कह नहीं सकता कि यह नाम वास्तव में सार्थक है या नहीं यह तो पाठक या आलोचक ही समझ सकता है।

क्या आप नारी को आधी दुनिया मानते हैं?
 जी नहीं नारी के साथ आधा, तीहा, चौथाई या पूरा विशेषण लगाना बिल्कुल ठीक नहीं। नारी की महत्ता के संदर्भ में अभिव्यक्त करने के लिए आधा, तीहा, चौथाई या पूरा के स्थान पर चौगुना शब्द का भी अगर विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाए तो मुझे लगता है कि वह कम पड़ेगा। नारी अक्षय ऊर्जा का खजाना है। नारी सृष्टि के सृजन का आधार है। नारी की तुलना अगर ब्रह्मांड से भी की जाए तो कदाचित वह भी पूर्ण रूप से उसके महात्म्य को अभिव्यक्त करने में सक्षम ना हो ऐसे में नारी को आधी दुनिया मानने का तो सवाल ही नहीं उठता है।

आप अपने लेखन की कुछ भावी योजनाओं के संदर्भ में बताइए।
 फ़ीरोज़ साहब मेरे लिए अफसोस की बात है कि मेरा लेखन बहुत योजनाबद्ध तरीके से नहीं हो रहा है जबकि होना चाहिए। बिना योजनाबद्ध हुए आप अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। असल में आप विश्वास करिए कि मैं खुद को रचनाकार की हैसियत से न देख पाता हूँ न ही खुद को रचनाकार के रूप में मैं समझता ही हूँ। यह तो बस यूँ ही ना जाने क्यों कैसे लिख रहा हूँ! मैंने आपको पहले ही बताया एक उपन्यास पर काम चल रहा है उसके पीछे शायद मेरा लक्ष्य अवधी के भाषिक स्वरूप को संरक्षित करना अधिक है। मुझे घूमने का थोड़ा बहुत शौक है। यूँ ही मन में आया क्यों ना उस यात्राओं पर भी लिखा जाए। लिख रहा हूँ। देखिए यह काम कितना हो पाता है और आपके अंतिम सवाल से पहले ही में आपके अगले संभावित प्रश्न का जवाब देना चाहता हूँ। जवाब यह है मैं कोई ऐसा साहित्यकार नहीं कि लोगों को किसी प्रकार का संदेश या शिक्षा दूँ। इस पूरे आयोजन के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।