गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

एएमयू के बारे में क्या कह गए रवीश कुमार NDTV - अकरम क़ादरी



अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक छात्र डॉ शोएब अहमद से आपकी मुलाक़ात कराता हूँ

आज सर सैय्यद डे है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए बड़ा दिन है। इसके छात्र अपने संस्थापक को चाहत से याद करते हैं। वो अपने वजूद में उनके वजूद को भी जोड़ते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पुराने छात्रों के इतने शहरों में संगठन हैं कि उन सभी के प्रोग्राम के लिए हां कर दीजिए, आप दो तीन साल तक घर ही नहीं लौटेंगे। मैं इस साल अटलांटा गया था। वहां 73 साल के हसन कमाल से बात हुई। जितने दिन उनके साथ रहा, वे बस अलीगढ़ के नए छात्रों की मदद और मुल्क की बेहतरी की बात करते रहे। बात कोई भी होती थी वे घूम फिर कर आ जाते थे कि कैसे वहां के मीडिया के छात्रों को अच्छी किताबें दी जाए। बेहतरीन ट्रेनिंग दी जाए। टोकने पर भी कह देते थे कि आप समझते नहीं हैं। वक्त बहुत कम है। अच्छी तालीम देनी होगी। यह हमारा भी फर्ज़ है।

अलीगढ़ के छात्रों को पता भी है या नहीं कि उनके लिए कोई हसन कमाल साहब इतना सोचते हैं। उनके कारण कुछ ऐसे ही जुनूनी लोगों से मुलाक़ात हुई जो अपने छात्रों की हर संभव मदद के लिए बेताब थे। पैसे और हुनर दोनों से मदद करने के लिए। हसन कमाल वैसे तो बेहद ख़ूबसूरत भी हैं और इंसान भी बड़े अच्छे। अपने काम करने की शहर के चप्पे चप्पे से जानते हैं जैसे कोई अलीगढ़ का छात्र अपने शहर की गलियों को जानता होगा। उनकी मुस्तैदी का क़ायल हो गया। हाथ में एक घड़ी पहन रखी है। आई-फोन वाली। कदमों का हिसाब रखते हैं। शायद इसीलिए फिट भी हैं।

मुझे लगता है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को हमेशा यूपी की राजनीति से पैदा हुई छवियों के दायरे में रखकर देखा जाता है। उस राजनीति के जवाब में यह यूनिवर्सिटी भी वैसी ही दिखने लग जाती है। जबकि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। अलीगढ़ के छात्रों को अपनी मेहनत और ईमानदारी पर भरोसा रखना चाहिए। यूपी के एक कस्बे में बनी यूनिवर्सिटी के छात्रों की उपलब्धियां किसी भी यूनिवर्सिटी से ज़्यादा हैं। जिस यूपी में कोई यूनिवर्सिटी नाम लेने लायक नहीं बची है, यह बड़ी बात है कि उसके छात्र हर पल अलीगढ़ को याद करते हैं। अलीगढ़ को जीते हैं। एक बार आप इनके कार्यक्रम में चले जाइये। आपके भीतर ये अलीगढ़ भर देंगे। वहां के कमरे, वहां के खाने, वहां की बदमाशियां और लतीफें। .यादें हैं मगर बातें लाइव टेलिकास्औट की तरह करते हैं।

शायद ही कोई ऐसा हो तो ख़ुद को मज़ाज या ग़ालिब का उस्ताद न समझता हो। हर बात में शायरी। मुझे लगता है कि अलीगढ़ ने अपने छात्रों की उपलब्धियों को ठीक से संजोया नहीं। तो इसकी शुरूआत मैं करता हूं।  इस बार न सही, अगली बार जब आप सर सय्यद डे मनाएं तो इसके छात्रों की उपलब्धियों को याद करें।

डॉ शोएब अहमद। 1984 में रामपुर से स्कूल की पढ़ाई कर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे। वहां बायोकेमिस्ट्री में मास्टर किया। उसके बाद Industrial  Toxicology  Research Centre, लखनऊ से एम फिल की। फिर ब्रिटेन चले गए र कार्डिफ में वेल्स कॉलेज ऑफ मेडिसिन से पीएचडी की। इसके बाद यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ कैरोलिना, लास एंजेलिस से पोस्ट डॉक्टरल की पढ़ाई की। इस तरह रामपुर से निकला एक लड़का 1984 से 2003 तक पढ़ाई की अपनी यात्रा तय करता है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने पांच साल के दौरान उन्हें केमिस्ट्री और बायो केमिस्ट्री में इतना दक्ष कर दिया कि वे दो और मुल्कों की यूनिवर्सिटी में अपना रिसर्च कर सके। उसके बाद दस साल अटलांटा में Emroy  University School of Medicine में पढ़ाया। लेकिन कम बोलने वाले शोएब अहमद के भीतर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी इस तरह बसी है जैसे कल ही निकले हों। यही अलीगढ़ है। आपके भीतर से निकलता नहीं है।

डॉ शोएब इस वक्त MyGenomics  नाम से अपनी कंपनी चलाते हैं। कैंसर की स्क्रीनिंग करते हैं। दुनिया भर से सैंपल आता है और वे जांच कर बताते हैं कि किसी को कैंसर होने की कितनी आशंका है। चांस है। यानि अब अपना काम करते हैं। हम अमरीका या बाहर गए लोगों की कामयाबी को पैसे से आंकते हैं। अगर आपने ऐसा किया तो डॉ शोएब की यात्रा को समझने में ग़लती कर जाएंगे। फोटोग्राफी का शौक़ रखते हैं। इनकी कार की डिक्की में अच्छे कैमरे रखे हैं। ड्रोन कैमरे का सेटअप है। हमें अपनी कार से अटलांटा के एक गांव ले गए। ड्रोन कैमरे को आज़मा रहे थे और फोटोग्राफी पर लेक्चर दे ही रहे थे कि ट्रैक्टर दौड़ाते हुए किसान आ गया। एकबार के लिए लगा कि हम शामली में घिर गए हैं! पर ख़ैर।

डॉ शोएब के साथ कुछ घंटे बिताने का मौक़ा मिला। उनकी पूरी बातचीत इसी में ख़त्म हो गई कि मुल्क की बेहतरी कैसे होगी। वो हिन्दुस्तान को बेहद प्यार करते हैं। अपनी यूनिवर्सिटी के छात्रों को नए दौर के रिसर्च से जोड़ना चाहते हैं। रामपुर और अलीगढ़ में घूम-घूम कर खाने की आदत लगी होगी इसलिए उन्हें ख़ूब पता था कि अटलांटा का लोकल खाना-पीना क्या है। यह किसी भी यूनिवर्सिटी के लिए गर्व की बात है कि उनके छात्रों के लिए 25 साल पहले निकला छात्र दिन-रात सोचता है।

बोलने का सलीक़ा अच्छा है। एक तो कम बोलते हैं तो ग़लती कम होती है और दूसरा जब बोलते हैं तो अदब आगे कर देते हैं। इनकी ज़बान से उर्दू उतरी नहीं है। अंग्रेज़ी का रस चढ़ा नहीं है। जबकि इनका पेशा और रिसर्च अंग्रेज़ी का ही है। बहुत ही ख़ूबसूरत परिवार है।

अगले पोस्ट मे मैं आपको पानी की तकनीक पर काम करने वाले सैय्यद रिज़वी साहब, यासिर जिनसे दोस्ती हो गई है और अन्य कुछ लोगों की कामयाबी के बारे में बताऊंगा। कब लिखूंगा, यह मेरे मूड पर निर्भर करता है। मेरा बस इतना ही कहना है कि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को आप उसके मक़सद के चलते याद करते हैं तो उसका एक बेहतर तरीक़ा यह भी है। इसके चमन से निकले छात्रों को याद कीजिए। आप सभी को मुबारक़। आपकी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आपको संवारती रहे और आप उसकी ख़ूबसूरत यादों से अपने आगे की यात्रा करते रहें।

माफ़ करना

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

वाङ्गमय का 'वेश्यावृत्ति' अंक की समीक्षा - डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह

डॉ. फिरोज अहमद द्वारा संपादित पत्रिका वाङ्गमय का जनवरी-जून 2019 का अंक वेश्‍यावृत्ति पर केंद्रित हिंदी-उर्दू तथा पंजाबी कहानियों पर आधार एक संग्रहणीय अंक है। यह अंक प्रेमचंद (वेश्‍या), यशपाल (हलाल का टुकड़ा), राजकमल चौधरी (जलते हुए मकान में कुछ लोग), कमलेश्‍वर ( मांस का दरिया),  सूरज प्रकाश (उर्फ  चन्‍दरकला), चित्रा मुद्गल (फातिमा बाई कोठे पर ही नहीं रहती), नासिरा शर्मा(दरवाज-ए-कजविन), सुभाष अखिल (बाजार बंद), लवलेश दत्‍त(दरवाजे), डॉ.विजेंद्र पाल शर्मा(वेश्‍या),अजय कुमार शर्मा(वेश्‍या एक प्रेरणा), डॉ. लता अग्रवाल(तवायफ की बेडि़यां), मंटो(हतक), तौसीफ चुगताई(तस्‍वीर), शमोएल अहमद(सिंगारदान), सगीर रहमानी(हरामजादियां), जिंदर (मछली),जसवीर भुल्‍लर( समंदर की तरफ खुलती खिड़कियां) तथा अंजना शिवदीप (देही कार्ड) आदि का संग्रह है। सारी कहानियां जहां रचनाकारों के स्‍तर पर नामचीन हैं वहीं विषय, कथ्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से बहुत ही उम्‍दा हैं।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी कला का कोई शानी नहीं है। ‘वेश्‍या’ दो मित्रों दयाकृष्‍ण और सिंगार सिंह के एक ही वेश्‍या के साथ संलिप्‍तता की कहानी है परंतु वेश्‍या के लिए दोनों के आदर्श और मायने अलग हैं। ‘‘वह सिंगार सिंह का मित्र नहीं रहा, प्रतिद्वंदी हो गया है। दोनों एक ही प्रतिमा के उपासक हैं, मगर उनकी उपासना में अंतर है। सिंगार सिंह की दृष्टि में माधुरी केवल विलास की एक वस्‍तु है, केवल विनोद का एक यंत्र। दयाकृष्‍ण विनय की मूर्ति है जो माधुरी की सेवा में ही प्रसन्‍न है।’’( पृष्‍ठ 12) यशपाल की ‘हलाल का टुकड़ा‘  कहानी में फुलिया वेश्या होकर भी धर्म को पहचानती है। ईमानदारी से सौदा करती है। दो रूपए की खातिर अपना शरीर बेंचने वाली फुलिया कांग्रेस नेता रावत के दो हजार रूपए ठुकरा देती है-‘‘वाह रे, हम कोई पीर-फकीर हैं क्या? जो हाथ फैलाकर खैरात की खिदमत करेंगे तो हलाल के टुकड़े पर हमारा हक होगा। ऐसे गए गुजरे थोड़े ही हैं कि भीख माँग लें।‘‘(पृ.28) राजकमल चौधरी की जलते हुए मकान में कुछ लोग अलग मिजाज की कहानी है। इसमें पुलिस रैड से बचने के लिए रंडियां अपने ग्राहकों के साथ एक अंधकारपूर्ण सीलन भरे तहखाने छुप जाते हैं। ग्राहक अपने वहां फंसने से चिंतित होते हैं और छोटीबड़ी समस्‍याओं से जूझते हैं तो रंडियां अपने ग्राहकों के साथ उस अंधेरे कमरे में भी मस्‍त। अभ्‍यस्‍तता के कारण। दीपू नामक वेश्‍या वेश्‍यागमन और आनंद का आरेख खींचते हुए कहती है-‘शराब और औरत यहां सस्‍ते में मिलती है। देखों न, मैं बैठती तो रात भर के पचास रूपये लोग खुशी से दे जाते। मैं मेहनती औरत हूं। कायदे से काम करना जानती हूं। तुम जरा भी शर्म मत करो समझलो, अंधेरे में हर औरत हर मर्द की बीबी होती है। अंधेरे में शर्म मिट जाती हैा रंग, धर्म, जात-बिरादरी,मोहब्‍बत,ईमान, अंधेरे में सब कुछ मिट जाता है। सिर्फ कमर के नीचे बैठी हुई औरत याद रहती है।(पृष्‍ठ; 36-37) सूरजप्रकाश की कहानी ‘उर्फ चंदरकला दो नौकरपेश सफेदपोश अय्याशों की कहानी है जो जिस्‍म की भूख के समय रंडी को चूमते,चाटते एवं जूठा खाना खाते खिलाते है परंतु रात गुजारने के बाद उसे ताल मार कर भगा देते हैं। उसे हर तरह से इस्‍तेमाल करते हैं रंडी प्रतिवाद भी करती है परंतु मजबूरीवश चुप रहकर ग्राहकों की सारी बातें मानती रहती हैं। महानगरीय जीवन में ऐसा होना आम बात है।
उपर्युक्‍त के अतिरिक्‍त चित्रा मुद्गल (फातिमा बाई कोठे पर ही नहीं रहती), नासिरा शर्मा(दरवाज-ए-कजविन), सुभाष अखिल (बाजार बंद), लवलेश दत्‍त(दरवाजे), डॉ.विजेंद्र पाल शर्मा(वेश्‍या),अजय कुमार शर्मा(वेश्‍या एक प्रेरणा), डॉ. लता अग्रवाल(तवायफ की बेडि़यां), मंटो(हतक), तौसीफ चुगताई(तस्‍वीर),शमोएल अहमद(सिंगारदान),सगीर रहमानी(हरामजादियां),जिंदर (मछली),जसवीर भुल्‍लर( समंदर की तरफ खुलती खिड़कियां) तथा अंजना शिवदीप (देही कार्ड) आदि कहानियां भी स्‍त्री जीवन की त्रासदी का प्रस्‍तुतीकरण करती है साथ ही पाठकमन को विवश करती हैं यह सोचने के लिए कि क्‍या स्‍त्री जीवन  की परिणति यही है।

समीक्षक
डॉ.विजेंद्र प्रताप सिंह
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संदर्भ – वाङ्गमय (‍त्रैमासिक हिंदी पत्रिका), वेश्‍यावृत्ति पर केंद्रित हिंदी-उर्दू ओर पंजाबी कहानियां, जनवरी-जून 2019,  संपादक डॉ.फिरोज अहमद,
सहसंपादक
अकरम हुसैन

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

गांधी और विनोबा के 'जय जगत' को सार्थक करना ही आचार्यकुल का मकसद - पुष्पिता अवस्थी

गांधी और विनोबा के 'जय जगत' को सार्थक करना ही आचार्यकुल का मक़सद- पुष्पिता अवस्थी

आचार्यकुल की स्थापना गांधी जी के प्रिय महाराष्ट्र की भूमि में जन्में आचार्य विनोबा भावे ने 1968 में की थी, जिसका मकसद 'वसुधैव कुटुम्बकुम' की परिभाषा को चरितार्थ करके देश दुनिया को अपना घर मानना है। आज भी लोग गांधी और विनोबा जैसी अभूतपूर्व आत्माओं को इसी दृष्टि से देखती है।
गांधी और विनोबा हमेशा देश और दुनिया को एक सूत्र में पिरोना चाहते थे वह केवल मानवतावादी संदेश के द्वारा ही सभी धर्मों को सम्मान के साथ विश्वबंधुत्व को मज़बूत करने के कर्णधार थे।
गांधी जी ने ही विनोबा को विनोबा नाम दिया क्योंकि गांधी जी विनोबा के कार्यों से भलीभांति परिचित भी थे कि किस प्रकार विनोबा सामाजिक कार्यों में संलग्न है और अपना सबकुछ छोड़कर मानवता के कार्यो में तल्लीनता से लगे है विनोबा के भूदान आंदोलन को कौन नही जानता जिसने देश को हर तरह से मज़बूत करने के लिए आचार्यकुल का निर्माण किया जिसमें देश-विदेश के बुद्धिजीवी मानवता के पैग़ाम के साथ गांधी और विनोबा की सांस्कृतिक विरासत को आगे लेकर चले और विनोबा के जय जगत के नारे को केवल नारा ही ना बनाये बल्कि उसको सार्थक करने के लिए भी प्रयासरत रहे।
प्रोफ़ेसर पुष्पिता अवस्थी ने जबसे आचार्यकुल की अध्यक्षता का पद ग्रहण किया है तबसे वो विनोबा के सपनो को साकार करने के लिए देशभर में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगी है लोगो को इस साम्प्रदायिक माहौल में भी गांधी और विनोबा के भारत को बता रही है जिससे देश मे विश्वबंधुत्व की व्यार बहने लगे हम सभी ऐसे दंशों से बच जाए जिससे समाज को हानि होती हो और दुनिया के सामने एक उदाहरण पेश करे कि इस देश मे अनेकता में भी एकता आज तक कायम है, लोगो को मालूम हो कि यह देश आज भी गांधी और विनोबा की साझी विरासत का देश है।
जिस प्रकार से विनोबा ने निर्भय, निष्पक्ष, निर्बेर रहने की सीख दी है उसपर तभी अमल हो सकता है जब हम सच्चे हो और हमारा दृष्टिकोण पूर्णतयः मानवतावादी हो ।
वर्तमान समय में विनोबा के इन विचारों की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है जब देश इस प्रकार के बुरे दौर से गुज़र रहा है। आपसी प्रेम भाव खत्म होने की कगार पर है मानवता शून्य पर पहुंचने वाली हो, साम्प्रदायिकता चरम पर फैल रही हो ज्यादातर नेता भृष्टचार की सीमाएं लांघ चुके हो ....ऐसे कठिन समय मे गांधी और विनोबा की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। गांधी विनोबा के विचारधारा को पढ़ने का ही वक़्त नही है बल्कि उसको आत्मसात करने का समय है। भारत निर्माण में मेहनत से लगने का समय है देश को बचाने का समय है......

जय जगत
जय हिंद
जय भारत