शनिवार, 23 जनवरी 2021

पिछले छः वर्ष का फ्लैशबैक है 'तांडव' - डॉ. शाबान ख़ान

सत्तापरक राजनीति और प्रतिरोध का तांडव - शाबान

     मौजूदा दौर में ओ.टी.टी प्लेटफॉर्म बॉलीवुड को भी पीछे छोड़ता जा रहा है और उसका कारण है कि कम समय में बहुत सारा मनोरंजन! इसके साथ ही आसानी, सहूलियत और दर्शकों की सीधी पहुंच ने इसे और अधिक लोकप्रिय बना दिया है। इस प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ होने वाली वेब सीरीज की सफलता और लोकप्रियता का एक कारण अच्छा कन्टेंट और नॉन सेंसरशिप भी है। नए लेखक, निर्देशक और कलाकारों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल रहा है। यही कारण है कि बॉलवुड के पकाऊ राइटर्स और थकाऊ निर्देशकों की पिटी हुई पटकथा से इतर इस प्लेटफॉर्म पर नयापन है जो दर्शकों को पसंद आ रहा है।
      पिछले सप्ताह अमेज़न प्राइम पर अली अब्बास जफर निर्देशित 'तांडव ' वेबसीरीज रिलीज़ हुई। इस वेब सीरीज के लेखक गौरव सोलंकी तथा निर्माता हिमांशु कृष्ण मेहरा हैं। सीरीज के रिलीज़ होने के साथ ही इस पर विवाद और इसका विरोध होना भी आरंभ हो गया। बीजेपी विधायक राम कदम ने इसके विरोध में मोर्चा निकाला। दी इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक लखनऊ के  हज़रतगंज थाने के अलावा देश के दूसरे हिस्सों में अमेज़ॉन प्राइम, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक और अभिनेता सैफ अली ख़ान, तथा मोहम्मद जीशान अय्यूब के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। यही नहीं बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय चेयरपर्सन मायावती जी ने भी ट्विटर के माध्यम से विवादित सीन पर आपत्ति जताई। 
    'तांडव' वेबसीरीज पर विवाद होने का कारण उसमे दिखाए गए वीएमयू नामक शिक्षण संस्थान में मंचित होने वाले शिव और नारद नाटक का मंचन है। इस नाटक में शिव और नारद को आधुनिक वेशभूषा में दिखाया गया और उनके संवाद भी अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी में हैं। यही नहीं शिव जी का किरदार निभा रहा अभिनेता अंग्रेज़ी में गाली का भी प्रयोग करता है। इस सीन पर विवाद होना लाज़िमी है। जहां तक मेरा मानना है कि इस दृश्य की सीरीज में कोई आवश्यकता नहीं थी। फिर भी इस सीन का ड्रामे में होने  का उद्देश्य परिवेश का परिचय देना मात्र है। फिर भी इस सीन का होना ड्रामे में मात्र एक संयोग है।
    यदि देखा जाए तो धार्मिक भावनाओं का आहत होने के बहाने दिखाए गए राइटिस्ट राजनीति और वामपंथी प्रतिरोध के परिदृश्य को दबाने का प्रयास किया जा रहा है। वेबसीरीज का आरम्भ किसान आंदोलन से होता है जो कि वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन से मेल खाता है, साथ ही उसका समर्थन भी करता है। ड्रामे का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष कॉलेज की राजनीति और सरकार के खिलाफ वामपंथी प्रतिरोध है। वामपंथी छात्रनेता शिवा किसानों और अल्पसंख्यकों का समर्थन करता है मुस्लिम छात्र की नाजायज़ गिरफ्तारी और फ़र्ज़ी एनकाउंटर का विरोध छात्रनेता शिवा ओर उसकी वामपंथी यूनिट करती है। ड्रामे में सत्ता में दक्षिणपंथी पार्टी को दिखाया गया है; इस सीरीज की पूरी कहानी दक्षिणपंथी सत्ताधारी पार्टी और वाम प्रतिरोध के इर्दगिर्द घूमती है। यह पूरा परिदृश्य वर्तमान सत्ता पक्ष और हाल में ही घटित घटनाओं के ताने बाने से बुना गया है। इसमें दिखाया गया  वीएमयू शिक्षण संस्थान जेएनयू का ही रूपांतरित नाम है। इसके साथ ही मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित छात्रनेता शिवा का चरित्र और उसके साथ घटित घटनाएं दर्शकों को कन्हैया कुमार से तुलना करने के लिए बाध्य करती है। देखा जाए तो पटकथा लेखक ने शिवा का चरित्र और छात्र राजनीति को कन्हैया कुमार और जेएनयू को सामने रखकर गढ़ा है।
       इस सीरीज का केंद्रीय मर्म और अभिव्यंजना तब उभरकर सामने आती है जब विजय प्राप्त दक्षिणपंथी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ लेने जा रहे देवकीनंदन सिंह की हत्या उनके ही पुत्र द्वारा कर दी जाती है। उसके बाद देवकीनंदन का पुत्र समर प्रताप सिंह, अनुराधा किशोर और गोपालदास मिश्र प्रधानमंत्री बनने के लिए आपराधिक षड्यंत्र रचने लगता हैं। यहीं पर सीरीज अपने आरोही विकास पर पहुंचती है । प्रधानमंत्री बनने की होड़ में यह तीनों पात्र कहीं ना कहीं आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते है। यदि सीरीज के केंद्रीय भाव की बात करें तो वह सत्तापरक आपराधिक राजनीति और छात्रराजनीति के बीच होने वाला द्वंद ही है। अब सवाल यह है कि इसपर विवाद होने का क्या कारण है? तो यह साफ हो जाता है कि इसमें जिन नेताओं के काले कारनामो को सामने रखा गया है; उनका संबंध राइटिस्ट विचारधारा से है और वर्तमान समय में केंद्र की सत्ता पर दक्षिणपंथी पार्टी काबिज़ है। इसके साथ ही सीरीज में दिखाया गया है कि शासन में मौजूद पार्टी बहुजन, किसान तथा मुस्लिम विरोधी है जो राजनीतिक लाभ उठाने के लिए बहुजनो को साथ तो रखती है परन्तु अपने ब्राह्मणवाद का त्याग नहीं कर पाती है तथा अल्पसंख्यको का फ़र्ज़ी एनकाउंटर कराकर बहुसंख्यको को अपने पाले में कर लेती है। इत्तेफ़ाक़न वर्तमान में सत्ताधारी पार्टी का चरित्र भी बहुत हद तक इसी तरह का है। बहुजनो को साथ लाने का प्रयास तथा अल्पसंख्यको के खिलाफ घृणा का माहौल बनाकर, बहुसंख्यको की भावनाओ से लाभ उठाने का काम मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी करती आ रही है। वेब सीरीज में रूलिंग पार्टी और उसकी आंतरिक राजनीति को दिखाया गया है परंतु इसमे पिटा हुआ विपक्षी दलपति और समस्त विरोधी पार्टियां नदारद है जैसे वर्तमान में भारतीय राजनीति से विपक्षी दल ग़ायब है। ड्रामे में सत्ताधारी पार्टी किसान विरोधी और पूंजीपतियों की समर्थक है। इसी कारणवश वह किसानों पर गोली भी चलवा देती है। देखा जाए तो इस वेब सीरीज ने वर्तमान भारतीय राजनीति को हमारे सामने, अतीत में घटित घटनाओं के साथ रखा है। इसी कारण सत्ताधारी पार्टी के समर्थक और कुछ अभिनय एवं कॉमेडी मंच से जुड़े अवसरवादी लोग तांडव का विरोध कर रहे है। ऐसे लोगो को डर है कि कहीं दर्शक इस ड्रामे को देखकर मौजूदा राजनैतिक ड्रामे और उनके असली तांडव को ना समझ जाये।

डॉ. शाबान खान 
एएमयू 
अलीगढ़

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

वैश्विक रचनाकार पुष्पिता अवस्थी की तीन पुस्तकों का हुआ उर्दू अनुवाद - अकरम क़ादरी

वैश्विक रचनाकार पुष्पिता अवस्थी की तीन पुस्तकों का हुआ उर्दू अनुवाद-   अकरम क़ादरी

अभी वर्तमान में उर्दू भाषा को यूनाइटेड स्टेट (संयुक्त राष्ट्र) के सेक्रेटरी जनरल (महासचिव)  एंटोनियो गुटर्स ने अपना संदेश उर्दू में दिया है जिससे प्रतीत होता है कि आने वाले समय में छः भाषाओं के साथ उर्दू भी यूनाइटेड स्टेट की भाषाओं में शामिल हो जाएगी। यह भारत के लिए अच्छी ख़बर है क्योंकि उर्दू की पैदाइश ही भारत में हुई है लेकिन कुछ मानसिक दिवालियापन के शिकार राजनेताओं ने इस भाषा में हिन्दू-मुस्लिम देखकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूर्ण किया है और भाषा का लगातार अपमान हो रहा है जबकि भाषाएं कभी भी किसी धर्म, जाति या प्रान्त की नहीं होती है बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर अधिकता या कमी से बोली या लिखी जाती है। भाषाएँ सीखना चाहिए इसमें कोई दिक्कत नहीं है बल्कि उस पर किसी तरह का लबादा नहीं चढ़ाना चाहिए। इससे देश की भाषाई आज़ादी को नुकसान होगा जो भाषा की दृष्टि से सही नहीं होगा। मुझे अभी तक हिंदी उर्दू का कोई ऐसा लेखक नहीं मिला जिसने केवल एक ही भाषा में अपने साहित्य का सृजन किया हो बल्कि उसकी रचना में सभी भाषाओं के शब्द प्राप्त होते हैं चाहे वो पात्र के चरित्र को दर्शाने हेतु उसकी ज़रूरत हो, मांग हो या फिर स्थान विशेष का भाषिक महत्त्व जिससे कि उस कही गई बात का संप्रेषण और प्रभावी हो सके। 

भाषाओं के मामले में महात्मा गांधी जी हिंदुस्तानी भाषा के पैरोकार थे। वो हिंदी-उर्दू में किसी भी प्रकार का भेद नहीं करते थे बल्कि ऐसी हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग करते एवं उस पर बल देते थे जिसमें कई भाषाओं, बोलियों का समन्वय हो और एक दूसरे को सबकी बात समझ में आये तथा किसी भी तरह से देश बटें नहीं बल्कि अनेकता में एकता का पुष्प भाषा के माध्यम से भी पुष्पित एवं पल्लवित हो। 

पिछले दो वर्षों में अनुवाद का कार्य चरम पर है और यह सही भी है। इससे वैचारिक ज्ञान का आदान-प्रदान भी होगा। साहित्य को एक सूत्र में पिरोने के मानवतावादी-कल्याणकारी कदम भी उठाए जाएंगे।

यायावर, प्रेम की कवयित्री, सूरीनाम गध साहित्य की अनन्य रचनाकार पुष्पिता अवस्थी एक वैश्विक रचनाकर हैं। उनके साहित्य अधिकतर सूरीनाम की भारतवंशी ज़मीं के संदर्भ में लिखा गया है और भारतवंशी की एकता का वर्णन मिलता है कि वो किस प्रकार भाषाई सामंजस्य
के माध्यम से सरनामी भाषा को हिंदुस्तानी भाषा कहते है। हिंदुस्तानी का अर्थ गांधी जी की भाषा से है जिस पर कई प्रवासी विशेषांक भी निकल चुके है।

पुष्पिता अवस्थी की तीन पुस्तकों का अनुवाद पिछले दो वर्षों में कई भाषाओं में हो चुका है लेकिन सबसे ज़्यादा स्वीकार्यता उर्दू में मिली है। उनकी पुस्तकों के अनुवादक, अफ़सानानिगार, तनक़ीदकार कई पुस्तकों के युवा लेखक डॉ. फरहान दीवान ने छिन्नमूल उपन्यास का अनुवाद किया है जिसमें वो कहते हैं कि "अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध रचनाकार प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी का भारतवंशी भारतीयों के जीवन पर लिखा गया उपन्यास "छिन्नमूल" भारतीय संस्कृति, संस्कार, भाषा और भारतवंशियों के कठोर परिश्रम की दारुण गाथा है। 

"छिन्नमूल" में दर्शाई गई विभिन्न संस्कृतियों के संगम, धर्म, समाज, राजनीतिक दांव पेंच और प्रेम की बेमिसाल दास्तान ने मुझे आकर्षित किया और इसका अनुवाद उर्दू में करने की इच्छा मैंने प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी जी से ज़ाहिर की।  उनकी अनुमति के बाद छिन्नमूल को " बोहरान " के नाम से उर्दू में अनुवाद किया जिसको के.एन.जी. प्रकाशन, बडगाम जम्मू और कश्मीर भेजा जा चुका है। जल्द ही " बोहरान " प्रकाशित होकर हमारे सामने होगी और हिंदी साहित्य के बाद उर्दू साहित्य में भी इसकी चर्चा समय के गर्भ में है। यह हिंदी में अन्तिका प्रकाशन गाज़ियाबाद से प्रकाशित है। सुधि पाठक वहां से लेकर दोनों भाषाओं में पढ़ सकते है।

इस उपन्यास के अतिरिक्त पुष्पिता अवस्थी के कहानी संग्रह "गोखरू" का अनुवाद मशहूर अफ़सानानिगार, कई संग्रहों के रचयिता 
सृजन साहित्य के मूर्धन्य विद्वान डॉ. तौसीफ बरेलवी ने किया है और वो कहानी संग्रह के बारे में कहते है:- 'गोखरू' डॉक्टर पुष्पिता अवस्थी की कहानियों का संकलन है जिसमें उन्होंने समाज के निचले तबक़े से लेकर आला तबक़े
तक के किरदारों पर लिखा और न केवल लिखा बल्कि उन कहानियों के ज़रिये समाज के सामने हक़ीक़त का आईना पेश किया। उनकी कहानियों का हिंदी से उर्दू में तर्जुमा करते वक़्त इस बात का एहसास भी हुआ कि उन्होंने अपनी कहानियों में छोटी- छोटी सी चीज़ों का भी खासा ध्यान रखा है जिससे उनकी कहानियों की मानवीयत बढ़ जाती है और उनकी बारीक-बिनी का भी अंदाज़ा बख़ूबी हो जाता है। गोखरू की कहानियों के शीर्षक भी कुछ ऐसे हैं जिनके ज़रिये से हिंदुस्तानी तहज़ीब का वो मंज़र आंखों के सामने आ जाता है कि जिसके लिए हिंदुस्तान जाना पहचाना जाता है और यही वजह रही कि इन
कहानियों को उर्दू में अनुवाद करते वक़्त बहुत ख़ुशी महसूस हुई"। 

यह कहानी संग्रह हिंदी में राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित है और उर्दू में एडुकेशनल बुक हाउस दिल्ली से प्रकाशित है जिसको साहित्य जगत के पाठक लेकर पढ़ सकते हैं। हॉलैंड या नीदरलैंड की संस्कृति, संस्कार, समाज, सभ्यता एवं भाषा को आधार बनाकर लिखी गई पुस्तक नीदरलैंड डायरी का अनुवाद भी उर्दू में हुआ है जिसको उर्दू-अदब के उभरते हुए सृजनात्मक लेखक, तनक़ीदनिगार, अफसानानिगार, जोश अफ़रोज़ कविताएं लिखने वाले, मुर्दा दिल में वतन का जज़्बा भरने वाले 
अग़्यार के विरुद्ध बुलन्द आवाज़ के मालिक हाफ़िज़ डॉ. शाहिद खान मिस्बाही ने नीदरलैंड डायरी का उर्दू अनुवाद किया है जिसके बारे में वो कहते है कि ""नीदरलैंड डायरी" वो किताब है जो यूरोपीय संस्कृति और समाज की गिरहें खोलती है। वहीं दूसरी ओर यूरोप में अपनी जड़ें मज़बूत करती हुई हिन्दुस्तानी संस्कृति और ज़बानों की
सूरत-ए-हाल से आगाह करती है। यह किताब अपने मौज़ू और अपने मवाद दोनों ऐतबार से अहम है। यह किताब इंडो-यूरोपियन संस्कृति और समाज पर और खास तौर से ज़बान और साहित्य पर प्रकाश डालती है। जी.एन.के. पब्लिकेशन से प्रकाशित है जिसको अदब के पाठक हिंदी में किताबघर प्रकाशन दिल्ली से प्राप्त कर सकते है और यूरोपीय संस्कृति को बारीकी से जान सकते है। 

पुष्पिता अवस्थी के साहित्य का उर्दू जगत में छपना हिंदी-उर्दू के बीच उत्पन्न नफ़रत की खाई को कम करेगा। दोनों भाषाओं का सम्मान अपने-अपने स्थान पर होगा और दोनों ही तहज़ीब को समझने का मौका दोनों प्रकार के पाठकों को प्राप्त होगा । इसके अलावा अनुवाद के विद्यार्थी, शोधार्थी, भी आने वाले समय में शोध करेंगे और इन किताबों की महत्ता पर प्रकाश डालेंगे और मुझे उम्मीद ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि पुष्पिता अवस्थी जी का अग्रिम साहित्य उर्दू में जल्द प्रकाशित होगा और उर्दू के पाठकों तक पहुंचेगा

अकरम क़ादरी
शोधार्थी
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
अलीगढ़