शनिवार, 25 जुलाई 2020

महामना के साथ बचाऊ यादव का अहम किरदार है बीएचयू बनाने में - अमित शाश्वत

#BHU बनाने में एक बचाऊ सिंह यादव अहम योगदान।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय और शेर-ऐ-बनारस पहलवान बचाऊ सिंह यादव की अमर गाथा

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़ी रोचक घटना जब शेरे-ऐ-बनारस पहलवान बचाऊ सिंह यादव ने मदन मोहन मालवीय जी को बचा खुद शहीद हो गए थे।

पवित्र बनारस भोलेनाथ भगवान शंकर की नगरी है तथा यहीं स्थित है विश्व की सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय, "बनारस हिंदू विश्वविद्यालय"।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना, दिनांक  4 फरवरी 1916 को पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने किया था।

जिस जगह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय बना है वहाँ की ज़मीन के विवाद को लेकर बनारस के कुछ दबंग सर्वण महामना (पंडित मदन मोहन मालवीय) जी को परेशान किया करते थे तथा उन्हें मारने की भी कई बार कोशिश की गई थी।

महामना जी उच्च विचारधारा के एक अच्छे और नेक इंसान थे लेकिन वहाँ के दबंग नहीं चाहते थी कि "बनारस हिंदू विश्वविद्यालय" की स्थापना हो।

उस समय बनारस में पहलवान सरदार वीर सिंह यादव (बचाऊ ) काफ़ी प्रसिद्ध थे अपनी दिलेरी और बहादुरी के लिए।

महामना जी भी पहलवान बचाऊ वीर अर्थात यादवजी से भलीभाँति परिचित थे

ऐसा माना जाता है कि सरदार बचाऊ यादव से बड़ा पहलवान तथा उन्हें दंगल में हराने वाला कोई पैदा नहीं हुआ था उस वक्त।

बचऊ यादव को उनके शानदार व्यक्तित्व के लिए भी जाना जाता था।

6.5 फीट ऊंचा कद, गोरा रंग, सर पर सफ़ेद साफ़ा, लंबी रौबदार मूँछें और बुलंद आवाज़ के बचाऊ यादव से बड़े बड़े दबंग भी खौफ़ खाते थे।

अब महामना कहीं भी जाते बचाऊ यादव उनकी रक्षा के लिए साथ खड़े रहते थे।

जिस दिन विश्वविद्यालय की स्थापना होनी थी उसी दिन महामना जी पर रास्ते में घात लगाकर लगभग 25 दबंगों ने हमला करा तभी पहलवान बचाऊ यादव गुप्त सूचना अनुसार पहुँचकर उन्होंने दिलेरी और अपना निष्ठावान पराक्रम दिखा मदन मोहन जी को वहाँ से सुरक्षित बचाकर निकाल दिया तथा अपना  धर्म निभा अपनी लठ्ठ के दम पर अकेले उन 25 दबंगों से भिड़ गए।

बचऊ यादव अकेले उन 25दबंगों से काफ़ी देर तक भिड़ते रहे फिर आखिरकार लड़ते लड़ते बहादुर बचाऊ यादव धर्म की स्थापना के लिए शहीद हो गए।

महामना जी को सरदार बचाऊ यादव की मृत्यु से बहुत अघात पहुंचा और वे भावुक हो रोने लगे।

पंडित महामना जी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पास में ही बचाऊ यादव की याद में "सरदार बचाऊ यादव मंदिर" की स्थापना कराई और उनकी बहादुरी को सलाम करते हुए लिखवाया " वीरों में वीर बचाऊ वीर"। ये मंदिर आज भी यहाँ स्थित है।

 बचाऊ यादव का जन्म BHU के समीप स्थित सिरगोवर्धन गाँव में हुआ था।

बचाऊ यादव को शेर-ऐ-बनारस भी कहा जाता है

पहलवान बचाऊ के इस दमखम,
 दिलेरी तथा साहस के लिए उन्हें सरकार ने "शेर-ऐ-बनारस" की उपाधि से नवाज़ा।
शत शत नमन

रविवार, 12 जुलाई 2020

अंग्रेज़ो ने हिन्दू-मुस्लिम की साझा विरासत को भाषा के द्वारा तोड़ा - तसनीम सुहेल

अंग्रेज़ो ने हिन्दू-मुस्लिम की साझा विरासत को भाषा के द्वारा तोड़ा - तसनीम सुहेल

वाङ्मय पत्रिका और विकास प्रकाशन कानपुर के संयुक्त व्याख्यानमाला के  अंतर्गत आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर तसनीम सुहेल ने अपने विचार "नवजागरण युगीन हिंदी-उर्दू उपन्यासों में साझी विरासत" के माध्यम से रखे जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान की संस्कृति गंगा-जमुनी तहजीब रही है और इस साझी विरासत में एक ओर बढ़ावा दिया गया तो दूसरी ओर कट्टरवादियों से उसे टक्कर भी लेनी पड़ी। भारत में आरम्भ से ही अनेक जातियां आयी तो उन्होंने यहां के लोगों की एकता को खंडित करने के लिए धर्म के नाम पर समाज और भाषा दोनों को बांटने का प्रयत्न किया।
अंग्रेजों की भाषा नीति ने हिंदी को हिंदुओ से जोड़ दिया और उर्दू को मुसलमानों से। इस भाषा नीति ने हिंदुस्तान की साझा संस्कृति में सेंध मारने का काम किया और भाषा विवाद को जन्म दिया। 19वी शताब्दी में जो उर्दू हिंदी उपन्यास लिखे गए उसपर इसका प्रभाव पड़ा। इसीलिए इस युग के हिंदी उपन्यासकारों में कोई मुस्लिम उपन्यासकार नहीं दिखाई देता है जबकि अपभ्रंश से लेकर भक्तिकाल तक हिंदी में बेहतरीन काव्य करने वाले मुस्लिम रचनाकारों की पूरी श्रृंखला मौजूद है। इस युग के उर्दू उपन्यासकारो में पंडित रतन नाथ सरशार के रूप में एक ऐसा उपन्यासकार दिखाई देता है जिसने अपने उपन्यास 'फसाना ए आज़ाद' में लखनऊ के मुस्लिम समाज का सजीव चित्रण किया है जिसकी प्रशंसा करते हुए चकबस्त कहते है- काश, हिंदुस्तान के सारे हिन्दू मुसलमान पर इसी तरह एक दूसरे का रंग चढ़ जाता।
नवजागरण ने यूरोप को आधुनिकता प्रदान की तथा हिंदी साहित्य में भी नवजागरण का प्रादुर्भाव सम्भव हो पाया, आस्था के स्थान पर तर्क को प्रसस्त किया गया, इस आंदोलन में अरबी विचारकों ने भी अपना योगदान दिया यूनानी परंपरा का विकास हुआ।
अंग्रेज़ो ने आधुनिकता को तो बल दिया लेकिन साझी विरासत को तोड़ने की भी कोशिश की जिससे वो 'फूट डालो राज करो' कि नीति को अमलीजामा पहना सके। इस फेसबुक लाइव में बहुत से देश-विदेश के विद्वान, शोधार्थी एवं विद्यार्थी भी शामिल हुए।
इस फेसबुक लाइव को आप निम्न यूट्यूब चैनल पर दोबारा सुन सकते है.....

https://youtu.be/Y5rMP9ilJO8

अकरम हुसैन
सहसंपादक 
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका
अलीगढ़

शनिवार, 11 जुलाई 2020

बहुत आसान नहीं है, माफिया डॉन बनना - अकरम क़ादरी

बहुत आसान नहीं है माफिया डॉन बनना- अकरम क़ादरी

संसार मे कोई काम आसान नहीं है। आखिर कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है इस विश्लेषण में मैं किसी दुर्दांत अपराधी, गुण्डे, मवाली, बदमाश, माफिया का समर्थन नहीं कर रहा हूँ बल्कि उसको इंसान से हैवान बनने में जो दिक्कत होती है उसका विश्लेषण करने का प्रयास कर रहा हूँ।
वर्तमान स्थिति में पूरे देश मे विकास दुबे नामक गैंगस्टर, माफिया का नाम चल रहा है। इसके पहले भी बहुत ख़तरनाक अपराधी हुए है और उन्होंने अपना एम्पायर खड़ा किया है। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी भी अच्छे, बुरे एम्पायर को खड़ा करने के लिए बहुत मेहनत, कठिनाइयां और दुर्गम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है तब कहीं जाकर कोई अच्छा और बुरा इंसान बनता है। 
अच्छा इंसान बनना तो कठिन है लेकिन बुरा इंसान बनने उससे भी ज्यादा कठिन और मुश्किल है क्योंकि   सबसे पहले अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता है, शुरुआती दौर मे कुटाई, पिटाई भी बेहद होती है वो चाहे कॉलेज में हो या फ़िर महाविद्यालय या विश्वविद्यालय लेवल पर हर कहीं बहुत परेशानियों को झेलना पड़ता है। फिर कहीं कोई इंसान की खाल में जानवर बनता है मनोवैज्ञानिकता के आधार पर उसकी संवेदनाएं बहुत हद तक मर जाती है कुछ रिश्ते को छोड़कर वो सब रिश्तों को पैनी दृष्टि से देखता है और उनपर हमेशा नज़र रखता है कि किसी भी प्रकार से यह व्यक्ति उसको नुकसान ना पहुंचा सके। 
पिछले दो सप्ताह से गैंगस्टर विकास दुबे का नाम सुर्खियों में है क्योंकि उसने उत्तरप्रदेश पुलिस के 8 जवानों को शहीद कर दिया है क्योंकि वो उसके गांव बिकरु दबिश देने गए थे जिसके बारे में उसको पहले से थाने के किसी मुखबिर ने सूचना दे दी जिसके कारण वो पहले से ही तैयार था और उसने जैसे ही पुलिसकर्मियों को देखा उसके गुर्गों ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरूकर दी जिसमे कुछ पुलिसकर्मी शहीद हो गए कुछ को गम्भीर चोटे आयी। 
गैंगस्टर विकास दुबे के कारवां की शुरुआत छात्रराजनीति से हुई जब वो विश्वविद्यालय में अपने लड़को को चुनाव लड़ाता था उनको जिताता था तथा उसके माध्यम से अपने गैर जरूरी और इललीगल काम कराता था, ठेकेदारी, रंगदारी वसूलता था। राजनीति तो उसको विरासत में मिली थी। उसके पैतृक निवास में उसके दादा कई बार के प्रधान थे। विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद जब घर पर आया तो उसने वहां पर भी अपना काम शुरू रखा गरीबो की मदद करना, उनके उल्टे-सीधे काम कराना जिससे गांव वालों को यह महसूस होता था कि विवेक दुबे का अपना रसूख है जिसके कारण उसके काम हो जाते है। इसके बाद वो जरायम पेशा, भूमाफ़ियागिरी जैसे कार्य मे हाथ आज़माता है, लड़ाई-झगड़े की ज़मीन को औने-पौने दामो में खरीदकर, कब्ज़ा करके बेंच देता है जिससे वो बहुत सारा धन इकट्ठा करता है तथा अपने गैंग में सब तरह के लोग धाक बन जाने के कारण जुड़ने लगते है वो ईमानदारी की कसौटी पर भी सबको मापता है एक बात याद रखना चाहिए 'जितना भी गन्दा काम होता है वो सब ईमानदारी से ही होता है' उसके बाद उनका इस्तेमाल करता है ऐसे ही छोटे-मोटे कार्यों में वो शामिल रहता है उसके बाद 2001 में वो भाजपा के दर्जा प्राप्त मंत्री को पुलिस थाने में मौत के घाट उतार देता है जो सच मे बहुत ही भयानक घटना होती  है, लेकिन उससे ज्यादा ही बड़ी ट्रेजेडी यह है कि थाने में मर्डर करने के बाद भी कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता क्योंकि न्यायपालिका अधिकतर गवाहों पर चलती है और जब गवाह ही किसी षड्यंत्र के तहत पलट जाए तो न्यायपालिका का कोई मतलब नहीं रह जाता है और अपराधी आराम से बच निकलता है। सोचने वाली बात यह है कि इस दुर्दांत अपराधी ने इतना रसूख और डर कायम कर लिया था जिस पुलिस को संविधान की रक्षा करते हुए अपराधी को सज़ा दिलानी थी वही पुलिस पलट गई और दुबे आराम से साफ बच निकला जिससे विकास का हौसना बड़ा उसने उसके बाद भी अनेक बुरे व्यसन किये, कुलमिलाकर उसके खाते में 60 केस हो गए जिससे कुछ अतिसंवेदनशील क्राइम भी थे। जिसमे उसको बचना भी नहीं था। लेकिन राजनेताओ ने खुद को बचाने और गुंडे पालने के शौक ने उनको बचाये रखा होता है यह सब जानते है इस समय जो गुण्डई का कठिन समय था वो गुज़र गया था उसके पास पैसों के साथ साथ राजनैतिक घरानों में भी पैठ बढ़ गयी थी वो सारे काले कारनामे करने या करवाने के बाद अपने आकाओं की गोद मे बैठ जाता रहता होगा। 
जो पुलिस, राजनेता उसको बचाते थे अब उसने पुलिस से ही पंगा ले लिया जो उसको बहुत महंगा पड़ गया। जिससे उज्जैन में गिरफ्तार होने के बाद कानपुर के पास आकर उसको एसटीएफ ने मौत के घाट उतार दिया लेकिन जब उसके गांव वालों का इंटरव्यू लिया गया तो उन्होंने विकास दुबे को अपना मसीहा बताया। यह भी सच है कि जितने भी अपराधी, गुण्डे, मवाली, बदमाश, भूमाफिया अभी तक  हुए है वो अपने गांव, कसबे वालो की बहुत मदद करते है जैसे वीरप्पन स्वयं कई गांव वालों को रोज़ी, रोटी देता था, अब भी कई गैंगस्टर ऐसे है जो गरीबो की बहुत मदद करते है लेकिन धंधे उनके काले ही होते है यह मामूली मदद ही उनको बड़ा नेता, मसीहा बनाती है और उनका रुतबा कायम रहता है वो समय समय पर गांव वालों दिक्कतों को चुटकियों में दूर कर देते है इसलिए उनको गांव के लोग मसीहा समझते है उनके साथ रहते है उनको मदद करते है जब भी ज़रूरत होती है तो उनको बचाने का प्रयास करते है जिससे वो गैंगस्टर की वफादारी वाली नज़र में आ जाते है और उसका आने वाले वक्त में फ़ायदा उठाते है। 
यह सच है कि गुण्डों को नेता, ही पालते पोषते है और उनका प्रयोग अपने काम के अनुसार करते है। 
आज के नोजवानो को सोचना चाहिए कि गुण्डा बनने के लिए सबसे पहले अपने अंदर का इंसान मारना पड़ता है फिर रिश्ते, नातों की भी कोई अहमियत नही होती है जितनी कठिनाई और दिक्कत इस काम मे है उससे कम दिक्कत और परेशानी बड़ा अधिकारी बनने में है। इसलिए इंसान बनिये इंसानियत की सेवा कीजिये

अकरम क़ादरी
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

मौजूदा दौर में खानकाहों की ज़रूरत- अकरम क़ादरी

मौजूदा दौर में खानकाहो की ज़रूरत - अकरम क़ादरी

खानकाहों का नाम आते ही दिमाग़ में कुछ पुराने ज़माने के सिस्टम या निज़ाम कौंधने लगता है महसूस होता है कि यह सिस्टम पूरी दुनिया मे कहाँ-कहाँ लागू होता है । दरअसल खानकाह का मतलब होता है-आश्रम , यह संस्कृति का शब्द है और इसका देशज  नाम मठ है ,जिसको उर्दू में खानकाह कहते है। खानकाह ऐसी जगह है ,जहां अल्लाह के नेक बंदे आम लोंगों को सीधा रास्ता दिखाते हैं और दुनिया से दुत्कारे हुए लोगों को भी गले लगाते हैं। इन खानकाहों का मकसद बहुत विराट और विशाल है ,जिसको मौजूदा दौर में समझना जरूरी है क्योंकि आजकल मारकाट, लूटपाट अपने चरम पर आ चुकी है ।पेट की भूख कहे या फिर अपनी ज़रूरतें पूरी करने की कोशिश या आजकल ऐश और लक्ज़री ज़िन्दगी बिताने के लिए इंसान को वक़्त ने इस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है कि वो चन्द सिक्को के लिए किसी की जान लेने पर आमादा हो जाता है। आज की जीवन-शैली ने इंसान के अंदर खुदग़रज़ी को बढ़ावा दिया है। पहले दौर में ऐसा बहुत कम था क्योंकि लोग एक दूसरे की मदद करते थे ख्वाहिशें कम थी लेकिन एहसास बहुत था,  लोग दूसरे के दुख दर्द को महसूस करते थे, एक दूसरे से मोहब्बत बहुत थी, एक दूसरे में ग़म में लोग मर जाते थे क्योंकि मोहब्बत बहुत थी आपस मे अंडरस्टैंडिंग लाजवाब थी, एक दूसरे की आंख का इशारा समझते थे अगर इन सब इंसानी फितरत के पीछे अगर कोई था तो वो थी उसकी वो तालीम, तहज़ीब, संस्कार, तरबियत जो उसको खानकाही सिस्टम से मिली थी। खानकाहों में कोई भी पीर-मुर्शिद कभी भी अपने मुरीदों को कर्त्तव्य या फिर जादू टोना नहीं सिखाता है बल्कि वो इस दुनिया मे खुदा से मिलाने की बात करता है, इंसानों के दरमियान एक मज़बूत रिश्ता कायम करता है, मोहब्बत की दावत देता है, इंसानियत का पैग़ाम देता है लेकिन आजकल कुछ लोग मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम करने के लिए जो नफ़रत, मार काट, सुसाइड बॉम्बिंग, करते है वो कभी भी इस्लाम के सही मानने वाले नहीं हो सकते बल्कि वो धर्म के नाम पर फसाद फैलाने वाले हैं या फिर धर्म के षड़यंत्रकारी उनको ना ही किसी धर्म का पता है और ना ही उनकी शिक्षाओं का, आजकल जो भी इंसानियत को खत्म करने की साज़िश करें या फिर किसी इंसान की हत्या करे वो धार्मिक कतई नहीं है वो केवल धर्म से फ़ायदा उठा रहा है या उसके पीछे उनके सियासी मफाद हैं। आजकल राजनैतिक पार्टीयां भी अपने सियासी मफाद के लिए मज़हब को एस्तेमाल कर रही हैं। 
ख़ानक़ाही निज़ाम में सबसे पहले व्यक्ति को इंसान बनना सिखाया जाता है जो अपने सर्वशक्तिमान खुदा, ईश्वर, बनाने वाले, गॉड से प्रेम तो करता ही है उसके अलावा उसके द्वारा बनाई गई कायनात और इंसानियत से मोहब्बत करता है इसलिए वो कभी भी इंसानियत को नुकसान पहुंचाने की सोच ही नहीं सकता। 
आज पूरी दुनिया मे जो लंगर का सिस्टम चल रहा है वो सब सूफियों, दरवेशों के यहां ही होता है, आज भी जितनी पुरानी दरगाहे है ,वहाँ पर लंगर सबको तकसीम किया जाता है मतलब ग़रीबो, मज़दूरों, बेसहारो को खाना खिलाया जाता है जोकि दरगाह या खानकाहों में आने वाले ज़ायरीन, श्रुदालु अपनी इच्छा अनुसार देते है उनपर कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं होती है जबकि इस्लाम धर्म किसी भूखे को खाना खिलाने की बात पहले करता है, इंसानियत को फैलाने का पहले मशविरा देता है। इसी लंगर सिस्टम को आज पूरी दुनिया मे सिक्ख भाई लेकर गए जिन्होंने अपने धर्म को भूखे को खाना खिलाना माना है ।यह नैतिकता और मानवता का संदेश वो पूरी दुनिया मे लेकर जा रहे है जिनके लिए उनको धन्यवाद देना चाहिए।
कुछ वर्षों से जो लोग कम्युनिटी किचन की बात करते है वो यही लंगर सिस्टम है जो पूरी दुनिया मे चल रहा है जिसके माध्यम से सबको खाना मुहैय्या कराया जा रहा है। अगर हम अच्छे से इस लंगर सिस्टम को बढ़ावा दे तो पूरी दुनिया में कोई भी इंसान भूखा नहीं सोएगा बल्कि सबको खाना मिलेगा और जीवन जीने की सीख भी इसलिए आज पूरी दुनिया को सूफ़ी विचारधारा को आगे बढ़ाना चाहिए, खानकाहों को बढ़ावा देना चाहिए जिससे इंसानियत को बचाया जा सके।
एशिया में ही ऐसी दरगाहें है जहां पर आज भी लंगर चलता है गरीबो, मज़दूरों, बेसहारो को खाना खिलाया जाता है उसके साथ साथ उनको नैतिकता, इंसानियत से मोहब्बत की सीख दी जाती है। पूरी दुनिया मे इन सूफी संतों के मानने और मोहब्बत करने वाले लोग है जो सूफियों की बातों का अमल करते है कुछ लोग कहते है कि इन सूफियों की दरगाहों पर नहीं जाना चाहिए बल्कि वो बलपूर्वक इन लोगो को जाने से रोकते है जो बिल्कुल ग़लत है। इस्लामिक कानून के अनुसार क़ब्रो पर हाज़री देना और ईसाले सवाब करना चाहिए अर्थात जाना अच्छी बात है ना जाओ तो कोई बात नहीं है, और अगर क़ब्र किसी बरगुज़ीदा और अल्लाह के नेक बंदे की हो तो जाना बरकत और फैज़ान का बाइस है। उन के वसीले से दुआऐं क़बूल होती हैं। फिर इस्लाम की पवित्र पुस्तक क़ुरान शरीफ में भी वसीले का ज़िक्र है कहने का मकसद है कि अगर अल्लाह से नबियों, रसूलो और उसके  मोहतरम वलियो के सदके में दुआ करें तो बेशक ही कुबूल होती है जैसे बाबा आदम अलैहि इस्लाम की दुआ हुज़ूर अकरम सल्लाहो अलैहि वस्सलम के सदके में क़ुबूल हुई थी ....हमे सूफिज्म की हिकमत, इंसानियत को समझना होगा फिर ही हम इंसानियत को सही मायनों में समझ सकते है......सूफिज़्म के बारे में बहुत सी ग़लत फहमियां पैदा करने की कोशिश की जा रही है और इसे इस्लाम के खिलाफ बताने की कोशिश की जाती है। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है.. सूफिज़्म इस्लाम के सही रास्ते की तरफ रहनुमाई करता है.. वही बीच का रास्ता जो इस्लाम का रास्ता है.. कामयाबी और निजात का रास्ता है।
 सूफिज्म धार्मिक कर्मकांड की अपेक्षा सह्रदयता, बंधुत्व, मानवीय मूल्यों, सामाजिक आदर्श, कर्म, पवित्रता और सहिष्णुता पर बल देता है। यही कारण है कि पुराने समय से इन खानकाहों पर हर धर्म,जाति, सम्प्रदाय या समाज के लोग बिना किसी भेदभाव के जाते रहे हैं। यहाँ धर्म प्राथमिक नहीं अपितु मानवीय मूल्य को बढ़ावा दिया जाता है। यही कारण है कि मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये सूफियों ने भारतीय कथाओं और नायकों को लेकर प्रेम काव्य लिखे। जैसे मुल्ला दाऊद का चंदायन,जायसी का पद्मावत, नूर ,शेख नबी का ज्ञानदीप
 

अकरम क़ादरी
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट