रविवार, 31 मई 2020

टिड्डी जिहाद में शोले के करैक्टर का संवाद - रामकुमार सिंह

(कालिया का प्रमोशन) व्यंग्य

साँभा - सरदार टिड्डियों का हमला हुआ है!
गब्बर- तो देख क्या रहे हो उठाओ बंदूक और लगाओ निशाना!
साँभा - सरदार टिड्डियाँ बंदूक से नहीं मरतीं!
गब्बर - ऐं! तो कौनूँ और उपाय है क्या रे कालिया?
कालिया - सरदार मैंने आपका नमक......
गब्बर - अरे नामुराद वो तो हम जानत हैं कि तुम हमारा ही नमक खा खाकर करियाइ रहे हो!
कालिया - सरदार मैंने आपका नमक.....! ओह् सिट ! क्या करूँ सरदार डाइरेक्टर ने इस डायलॉग के इतने रिटेक लिये थे कि मुझे इसी से बात शूरू करने की आदत हो गई है।अब देखिए कल बीवी से चाय के लिए बोलना था तो उससे भी बोल दिया कि सरदार मैंने आपका नमक खाया इसलिए गर्मागर्म कड़कदार चाय पिलाओ!इतना सुनकर उसने ऐसे भौंहें तरेरी जैसे महाप्रलय होने वाली हो, और बोली नमक खाया होगा तुमने अपने सरदार का मैं तो जिस दिन से इस घर में आई हूँ मेरा तो खून ही पीया है तुमने।
गब्बर - हा!हा!हा! (ठहाके मारकर हँसता है।) अब तुम्हारी बहुरिया की कथा संपन्न हुइ गई हो तो कछू इन टिड्डियों के बारे में भी सोचो।सारे बीहड़ों की हरियाली को चुग गईं तो कहाँ छुपाएंगे अपनी पलटन को और कहाँ छुपेगा तुम्हारा सरदार ? लगता है सरकार को पचास हजार रुपये दिलवाकर ही जाएंगी ये टिड्डियाँ।साला लाॅकडाउन के चलते सरकार भी हम पर इनाम नहीं बढ़ाई है।अभी तक पचास हजारी ही बने रहे। न जाने कब से लखपतिया डकैत होने के लिए बाट जोह रहे हैं!
साँभा - सरदार एक निशाना मारकर देखूँ ? पर एक शर्त है! अगर निशाना चूक जाए तो मेरा खून पीने को उतारू मत होना!
गब्बर - रहने दे तुझसे नहीं हो पाएगा! साला लाॅकडाउन के चलते वैसे ही हथियारों और गोलियों की सप्लाई रुकी पड़ी है।अरे ओ कालिया! कोई आईडिया आया रे तेरे दिमाग में या सिर्फ नमक ही नमक भरा है?
कालिया - सरदार मैंने आपका...... ओह् तेरी!हाँ तो सरदार मैं ये कह रहा था कि एक आईडिया आया तो है!
गब्बर- हा!हा!हा!  हा!हा!हा! अरे ओ साँभा जे तो ग़जब हो गया रे ! कालिया के दिमाग में आईडिये आने लग गए रे।हम तो समझत रहे कि सिर्फ़ नमक ही नमक भरा है इसके कपार में।जे तो बड़ा काम का आदमी निकाल रे।आजतक ख्वाहमख्वाह नामुराद कहत रहे इसको।
साँभा - जे तो वो बात हो गई सरदार कि कभी-कभी खोटा सिक्का भी चल जाता है।
गब्बर- हा!हा!हा! ( हँसते-हँसते साँसें फूल जाती हैं) तनिक पानी तो पिला रे कालिया!(कालिया पानी देता है) तो का पिलान बनाए हो जा टिड्डीयन की बीमारी सों बचने कूं ?
कालिया - बताएंगे सरदार जरूर बताएंगे तनिक धीरज तो धरो! पहिले तनिक तंबाकू खिलाइ देउ तो ताकि आईडिया अच्छे से बाहेर आए!(ऐसे प्रभाव जमाता है जैसे किसी महाराज का प्रधान अमात्य हो)
गब्बर - अरे ओ साँभा!उठा तो बंदूक और लगा निशाना ससुरे की खुपड़िया पर।इसे लाॅकडाउन में सुरती फाँकने का शौक चढ़ा है।देख नहीं रहा है सरदार महीनों से बिना सुरती और सोमरस का पान किए खलिहर बैठा है!मेरे जख्मों पर नमक छिड़क दिया रे तूने तो।जईसन- तईसन भुलाए रहे अपनी एट पी एम और राजहंस को पर तूने यादि दिलाइ दई रे!भलाई इसी में है कि अपने आईडिये को फौरन बाहर निकाल नही तो खोपड़ी को पत्थर से तोड़कर हम खुदई बाहेर निकाल देवेंगे।(गब्बर की आँखों में लाल डोरे पड़ गए)
कालिया - सरदार मैंने आपका नम..... या अल्लाह! मुआफ करें सरदार!तो अब आते हैं मेन मुद्दे पर। पिलान जे है गुरू कि पूरी पल्टन को ताली थाली बजाने पर लगाया जाए।
गब्बर- ऐं!जे का पिलान है? (गब्बर सिर को खुजलाने लगता है)
कालिया- सरदार मैंने..........! जे बहुत टेक्निकल आईडिया है सरदार!गुरू पहले इस्तेमाल करो फिर विश्वास करो।माथापच्ची बाद में। झंडू बाम मलिए, थाली बजाने चलिए।(हल्की सी हँसी चेहरे पर तैर जाती है)
गब्बर - भाईयों-बहिनों!जे हमारी इज्जत का सवाल है।का कहेंगे लोग कि जिस गब्बर को पूरे मुल्क की पुलिस नहीं तलाश पाई उसे टिड्डियों ने तलाश लिया, और बेहद शर्म की बात तो ये होगी कि हम इस सरकारी मीडिया की टीआरपी का जरिया बन जाएंगे।साला महीनों इसी एक घटना को दिखाकर हमारी इज्ज़त का फालूदा बनाते रहेंगे।मेरे अजीज साथियों क्या तुम ऐसा होने दोगे?(नहीं!नहीं!नहीं! पूरी पलटन एक सुर और तेज़ आवाज़ में सामूहिक रूप से चिल्लाने लगती है) साथियों ये हमारी परीक्षा की घड़ी है।हम सबको एकजुट होकर इस प्राकृतिक आपदा से लड़ना होगा।तभी हम टिड्डीयन पर फते हासिल कर सकेंगे।फेंक दो ये बंदूकें और गोलियाँ उठाओ थाली और बजाओ ताली।
पूरे बीहड़ का सूनापन तालियों और थालियों की झनझनाहट से संगीतम हो जाता है।टिड्डियाँ दुम दबाकर उधर ही निकल लेती हैं जिधर से आई थीं।पूरी घाटी में हर्ष का वातावरण है।सरदार अपने कालिया के आईडिये से बेहद खुश है और उसे उसकी बुद्धिमत्ता पर नाज़ हो रहा है।वह कालिया को अपने पास बुलाकर अपने सीने से लगाकर कहता है कि तूने आज सिद्ध कर दिया कि तूने मेरा ही नमक खाया है न कि किसी ब्रांडेड कंपनी का।आज से साँभा को बापेंशन रिटायरमेंट दी जाती है और प्रमोशन देते हुए निशाना लगाने की जिम्मेदारी कालिया को सौंपी जा रही है।पूरी पलटन सरदार की जयजयकार कर रही है।लाॅकडाउन में डबल पेमेंट करके दारू मुर्गे का इंतज़ाम किया जाता है।अलाव जलाकर मुर्गों को भूना जा रहा है।सरदार की फरमाइश पर मेहबूबा ओ मेहबूबा गाना बजाया जा रहा है।कबीले की महिलाएं हर्षोल्लास के साथ नाँच-कूद कर रही हैं।छोटे-छोटे बच्चे अभी भी ताली थाली बजा रहे हैं।

रामकुमार सिंह
कहानीकार, व्यंग्यकार और युवा आलोचक
एएमयू हिंदी विभाग से सम्बद्ध 

(लेखक के व्यक्तिगत विचार है इससे ब्लॉगर का कोई सरोकार नहीं है)

शुक्रवार, 29 मई 2020

थर्ड जेण्डर साहित्य में समाज का सूक्ष्म विश्लेषण - विमलेश शर्मा

 जेण्डर साहित्य में समाज का सूक्ष्म विवेचन - विमलेश शर्मा

वांङमय पत्रिका और विकास प्रकाशन के संयुक्त तत्त्वावधान में आज 29 मई को  थर्ड-जेण्डर पर विचार-विमर्श हेतु जारी शृंखलाओं की कड़ी में दूसरे सत्र का आयोजन किया गया । इस संदर्भ में आज ‘ हिन्दी कहानियों में दैहिक संज्ञाएँ एवं सामाजिक दृष्टिकोण’ विषय पर डॉ.विमलेश शर्मा,सहायक आचार्य अजमेर,राजस्थान ने अपने विचार रखें। इस व्याख्यान में अनेक प्रबुद्ध शिक्षक व शोधार्थी उपस्थित रहे जिन्होंने विषय का गहन मंथन किया। व्याख्यान में तृतीयलिंगी या थर्ड जेण्डर समुदाय की पीड़ाओं और उसके जीवन की त्रासद स्थितियों पर चर्चा की गई। 
व्याख्यान थर्ड जेण्डर विमर्श को परिभाषित करते हुए कहा गया कि यह समाज, संस्कृति एवं इतिहास जिसमें परम्पराएँ, मान्यताएँ, जीवन-मूल्य सभी शामिल हैं का पुनरीक्षण करते हुए इस वर्ग की स्थिति और बेहतरी की सभी संभावनाओं पर मानवीय दृष्टि से विचार करने की प्रक्रिया है। जब हम इस तृतीयक वर्ग की बात करते हैं तो हमें स्त्री वर्ग और स्त्री समस्याओं को भी केन्द्र में रखना होगा। इस प्रकार यह विमर्श जहाँ एक ओर परम्परागत मान्यताओं का विरोध करता है वहीं  समाजशास्त्रीय संरचनाओं और वैचारिक तथा वर्चस्ववादी मानसिकता की परत-दर-परत पड़ताल करता है। किन्नर विमर्श सामाजिक अस्तित्व की अनिवार्य स्वीकार्यता की सामूहिक चेष्टा का नाम है। इसकी चाहना है कि इस समूह को  सामाजिक संरचनात्मक ढाँचे पर स्वीकार किया जाए जिससे उसमें आत्मसम्मान और गौरव का संचार हो यही इस विमर्श का उद्देश्य है। साहित्य की यह धारा या सरोकार देह से परे की सोच का है जिसके खिलाफ एक हद तक स्त्रीवादी आंदोलन और उस पर काम करने वाले भी जूझते रहे हैं । थर्ड जेण्डर विमर्श को, इसकी समस्याओं को अभी तक लैंगिक परिप्रेक्ष्य में ही देखा गया परन्तु इसे अधिगम अक्षमता या विशेषता के संदर्भ में भी देखना होगा।  द  नेशनल ज्वांइट कमेटिज ऑन लर्निंग डिसएबिलिटिज-1994 के अनुसार जो इन्द्रियजन्य शारीरिक विशिष्टता व मंदता को भी शामिल किया गया है, जिसमें से अधिकांश केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के सामान्य रूप से काम नहीं करने के कारण आने वाली विकृतियाँ हैं। साथ ही जब हम जेण्डर स्टडीज का अध्ययन करते हैं तो उन्हें भारतीय संदर्भों में देखना होगा। व्याख्यान में हिन्दी कहानी साहित्य की अनेक प्रमुख कहानियों जिनमें चमेलीजान, दरमियाना, बिन्दा महाराज, संझा, कबीरन, कौन तार से बीनी चदरिया, मैमूना, मौमिना और मैनू तथा हिजडा शीर्षक कहानियों  पर विशद विवेचना की गई तथा अलिंगी समाज की अस्मिता संबंधी प्रश्नों को तथा त्रासद स्थितियों पर गहन संवाद किया गया।
इस फेसबुक लाइव में बहुत विद्वान शामिल थे जिनमें से
भगवान दास मोरवाल, अनुसंधान पत्रिका की संपादक डॉ शगुफ्ता, वाङ्गमय पत्रिका के संपादक डॉ फ़ीरोज़ खान, डॉ. शमीम, डॉ. शमा नाहिद, महमूद अहमद, डॉ सविता सिंह, रोशनी बाजपेयी, डॉ मो.  आसिफ, डॉ रमाकांत, डॉ गौरव तिवारी, मनीषा कुमार, अनुराग वर्मा, दीपांकर, कामिनी, रिंक्की, मुशिरा खातून, डॉ भारती अग्रवाल एवं वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन तथा बहुत से शोधार्थी, विद्यार्थी भी सम्मिलित थे
इस कार्यक्रम को दोबारा सुनने के लिए AKRAM HUSSAIN QADRI के यूट्यूब चैंनल पर भी सुना जा सकता है
यूट्यूब लिंक

https://youtu.be/PlgUWE2WKSM

बुधवार, 27 मई 2020

किन्नर के अस्तित्व की समीक्षा है अस्तित्व उपन्यास - नितिन सेठी

किन्नर के अस्तित्त्व की समीक्षा है 'अस्तित्त्व' उपन्यास - नितिन सेठी

वाङ्गमय पत्रिका द्वारा आयोजित किन्नर विमर्श पर आधारित पुस्तक श्रृंखला कार्यक्रम के दूसरे दिन बरेली के प्रख्यात समीक्षक डॉ. नितिन सेठी ने अपने विचार बरेली की लेखिका गिरिजा भारती के उपन्यास 'अस्तित्व' पर रखे। उन्होंने बताया कि अस्तित्व एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें एक किन्नर के जीवन को उभारा गया है। सुधा और वर्मा जी की पहली संतान किन्नर निकलती है, जिसका नाम वे 'प्रीत' रखते हैं। सुधा प्रीत का हरसंभव ख्याल रखती है और उसे कभी अपने से अलग होने नहीं देती। आमतौर पर जहां माता-पिता द्वारा ऐसे बच्चों का परित्याग कर दिया जाता है, वहीं गिरजा भारती ने दर्शाया है कि मां-बाप मिलकर उस किन्नर बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलवाते हैं और उसका पूरा ध्यान रखते हैं। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रीत प्राइवेट नौकरी भी करती है। समय के साथ उसकी छोटी बहन रीत और भाई शुभम की शादियां भी संपन्न हो जाती हैं। अब सुधा प्रीत को भी शादी करने के लिए कहती है। प्रीत हैरान है कि उससे शादी कौन करेगा। लेखिका ने दर्शाया है कि प्रीत एक किन्नर लड़के से शादी करती है और अपना घर खुशी-खुशी बसा लेती है। शादी के बाद अनाथालय से वे एक लड़की भी गोद लेते हैं। इस प्रकार उनकी गृहस्थी पूरी हो जाती है। किन्नर विमर्श को आगे बढ़ाते हुए डॉ. नितिन सेठी ने बताया कि अधिकांश उपन्यासों में किन्नर को नाचते-गाते या अन्य सामाजिक कार्यों में लगे हुए दिखाया गया है, परंतु अस्तित्व में किन्नर प्रीत अपने परिवार के साथ रहती है और बाद में अपना परिवार भी बसाती है। जहां अन्य अनेक उपन्यास दुखांत रहे हैं, वहीं अस्तित्व हमें एक संदेश दे जाता है कि यदि माता-पिता और परिवार चाहे तो ऐसे किन्नर बच्चों की परवरिश भी भली-भांति की जा सकती है। यहां साहित्यकारों को थोड़ा सा समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण भी अपनाने की आवश्यकता है। विषय को विस्तार देते हुए डॉ. नितिन सेठी ने रेखांकित किया कि अस्तित्व उपन्यास में किन्नर प्रीत के अंतर्द्वंद और मानसिक व्यथा का कम बल्कि उसकी माता का अंतर्द्वंद अधिक दिखलाया गया है। यही इस उपन्यास की मुख्य विशेषता भी है। प्रीत के पिता वर्मा जी अपना स्थानांतरण इसी बात को छिपाने के लिए दिल्ली करा लेते हैं। सुधा की सास जीवन भर इस रहस्य को नहीं जान पाती। पास पड़ोस के लोग भी इस बात को नहीं जानते कि प्रीत एक किन्नर है। गिरिजा भारती ने उपन्यास में एक आदर्श स्थापित करने का प्रयास किया है, जिसमें वे सफल भी रही हैं। श्रोताओं के अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हुए डॉ. नितिन सेठी ने आवाहन भी किया कि हमें थर्ड जेंडर की उचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध भी करना होगा। सभी शोधार्थियों से भी उनका यही अनुरोध रहा कि अपना शोधकार्य पूर्ण होने के पश्चात् कम से कम एक किन्नर की शिक्षा-दीक्षा का दायित्व अपने पर भी लें जिससे वे इस ऋण से भी मुक्त हो सकें। किन्नर विमर्श में वैज्ञानिकता के महत्त्वपूर्ण प्रश्र पर उत्तर देते हुए डॉ. नितिन सेठी ने बताया कि जैव विज्ञानियों को भी इस दिशा में सामने आना चाहिए और इस प्रकार के अनुभवों को लिपिबद्ध करना चाहिए। इसका एक बड़ा लाभ यह होगा कि हमारे लेखकों को भी इससे संबंधित विज्ञान पर उचित व मार्गदर्शक सामग्री मिल सकेगी, जिससे उनके उपन्यासों और कहानियों में यथार्थ का संतुलन व समन्वयन स्थापित हो सकेगा। अंत में सभी श्रोताओं, वाङ्गमय पत्रिका, डॉ. फ़ीरोज़ अहमद और विकास प्रकाशन का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए डॉ. नितिन सेठी ने अपनी बात समाप्त की। ज्ञातव्य है कि डॉ. नितिन सेठी इस प्रकार के विमर्श पर बहुउद्देशीय समीक्षात्मक लेखन करते रहे हैं और साहित्य के एकांत साधक हैं।
इस फेसबुक लाइव में देश-विदेश के अनेक साहित्यकार, शोधार्थी और छात्र-छात्राएं भी शामिल हुए जिसमे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की डॉ. शगुफ्ता नियाज़, डॉ. लवलेश दत्त, प्रोफ़ेसर शंभुनाथ तिवारी, डॉ. आसिफ़ खान, डॉक्टर आज़र ख़ान, डॉ. मोहसिन ख़ान, शाबान ख़ान, मनीषा गुप्ता, तथा वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन ने शामिल होकर किन्नर विमर्श के पठनीय उपन्यास का रसास्वादन किया था इस विषय पर गम्भीर प्रश्नों को भी पूछा गया जिसका समीक्षक महोदय ने बहुत ही सटीकता से जवाब दिया 
इस कार्यक्रम को दोबारा सुनने के लिए आप यूट्यूब पर 
AKRAM HUSSAIN QADRI नाम से सर्च करके सुन सकते है और लाभान्वित हो सकते है

मंगलवार, 26 मई 2020

यथार्थ जीवन का कड़वा सच है- मंगलामुखी

जीवन का कड़वा सच है : मंगलामुखी

वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका द्वारा आयोजित वेबिनार में आज 
भोपाल की प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. लता अग्रवाल के थर्ड जेंडर आधारित उपन्यास "मंगलामुखी " 
पर चर्चा हुई। चर्चाकार थे वरिष्ठ समीक्षक डॉ विजयेंद्र प्रताप सिंह एवम उपन्यासकार डॉ. लता अग्रवाल।

डॉ विजयेंद्र प्रताप ने कहा यह उपन्यास डॉ. अग्रवाल की किन्नर जीवन सम्बन्धी शोध की गम्भीरता को दर्शाता है। जिसमें उन्होंने सामान्य वर्ग के साथ उन्हें जोड़कर जो कथा विन्यास रचा है उससे दोनों वर्गों को जीवन की एक नई दिशा मिली है। उन्होंने कहा, उपन्यास में निहित प्रमुख पात्र महेन्द्री बेहद प्रभावशाली व्यक्तित्व बन पड़ा है जो पिता की नई परिभाषा गढ़ता है । इसके साथ ही आजीविका को लेकर उनकी विडंबना तथा आम समुदाय द्वारा रोजगार के नाम पर वसूली के लिए उनका प्रयोग, नकली किन्नर की समस्या जैसी विसंगतियों की ओर भी लेखिका ने अच्छा प्रकाश डाला है। भाषा की दृष्टि से उपन्यास में सुंगठित और संयमित तथा किन्नर समुदाय की व्यवहारिक भाषा का प्रयोग किया गया है ।

लता जी ने उपन्यास में किन्नर समुदाय द्वारा बद्दुआ को लेकर जनमानस में जो भ्रांति है उसके वैज्ञानिक पक्ष पर भी बेहतर लेखन हुआ है। कई मायनों में यह उपन्यास अपनी नई भावभूमि और यथार्थता के साथ साहित्य जगत में अपने लिए खास मुकाम बनाएगा।

वहीं उपन्यासकार डॉ लता अग्रवाल ने उपन्यास के पात्रों और उनके जीवन की व्यथा-कथा को लेकर पाठकों से चर्चा की। उपन्यास की रचना प्रकिया को लेकर डॉ. लता ने कहा कि आसान नहीं है किसी के व्यक्तिगत जीवन मे झाँकना, हम भी किसी को कितना स्पेस देते हैं अपने निजी जीवन में। मुझे 2 वर्ष लगे उनसे संवाद बनाने में। 

तमाम ज़िंदगियों की व्यथा सुनने के बाद लेखकीय बोध मुझे चुनौती दे रहा था कि उनकी पीड़ा को समाज से साझा करूँ ताकि यह साहित्य वाकई समाज को आइना दिखा सके और समाज अपनी छवि में परिवर्तन कर पाए।बहुत मुश्किल होता है अपनों से जुदा होकर जीना। यह व्यवस्था बदलनी चाहिए । इस वेबिनार में कई शोधार्थी छात्र भी हैं जो नए तर्क के साथ समाज में जागृति का कार्य करेंगे ऐसी आशा करती हूँ।

इस गोष्ठी में उपस्थित  दर्ज कराई लंदन की सुश्री अरुणा सबरवाल जी, प्रो. शंभूनाथ तिवारी जी, भगवानदास मोरवाल,  अग्रवाल, ममता वाजपेयी, डी सी भावसार जी, डॉ. पुनीत बिसारिया, डॉ फिरोज खान, डॉ शगुफ्ता , डॉ शमीम, डॉ तनवीर अख्तर, प्रो गजनफर अली, डॉ आसिफ, रोशनी, मनीष कुमार, रिंक्की, दीपांकर कुमार,  पंकज वाजपेयी, वाङ्गमय के सहसंपादक अकरम हुसैन के अतिरिक्त कई शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।


https://youtu.be/f7kobk4ZM78
सुनिए मंगलामुखी पर साहित्यिक समीक्षा
डॉ. विजयेंद्र प्रताप सिंह जी को

https://youtu.be/lsd_BgJw9Lo
सुनिए मंगलामुखी उपन्यासकार 
डॉ. लता अग्रवाल जी को

सोमवार, 25 मई 2020

नेपाल सीमा विवाद गर्माने में चीन की कूटनीति- अकरम क़ादरी

नेपाल सीमा विवाद गरमाने में चीन की कूटनीति - अकरम क़ादरी

नेपाल भारत का वो छोटा भाई है जिसकी संस्कृति, संस्कार, परम्परा, त्यौहार, तीज, भाषा और बोलियां भारत से बहुत मिलती जुलती है लेकिन फिर भी चीन कूटनीति का सहारा लेकर हमें परेशान करने की नापाक साज़िश कर रहा है। दरअसल नेपाल कभी ग़ुलाम नहीं हुआ है इसलिए वहां उपनिवेशवाद की परंपरा भी नहीं है लेकिन उपनिवेशवाद की परंपरा को वर्तमान सन्दर्भ में बाज़ारबाद के बराबर देख सकते है जिसमे चीन ने महारत हासिल कर ली है नेपाल के अंदर चीन ने बाज़ारबाद की वो स्थिति पैदा कर दी है कि वहां पर लगभग 95 प्रतिशत सामान आपको मेड इन चीन ही मिलेगा जबकि इस अंधाधुंध दौड़ में भारत की मार्किट में भी 60 से 65 प्रतिशत तक चीन का ही कब्ज़ा प्रतीत होता है दरअसल उसका कारण भी है जो सामान हमारे यहां बना हुआ 500 का है वो चीन 200 से लेकर 225 तक मे उपलब्ध करा देता है क्योंकि चीन ने अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या का फायदा उठाया है जबकि हिंदुस्तान अभी तक यह काम नहीं कर पाया है जिसके कारण उसके पास टेक्नोलॉजी ज्यादा है हमारे यहां भावुक मुद्दों में जनता को फंसा कर धर्म के नशे की गोलियों को व्यापार चल रहा है जिसको मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी से निभा रहा है जबकि चीन जनसंख्या अधिक होने के कारण हमसे ज्यादा तरक़्क़ी कर रहा है इसी बल पर चीन आज अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को आंखे दिखा रहा है। वर्तमान महामारी में अमेरिका ने अनेक बार उसको धमकी देने की कोशिश की लेकिन उसने उल्टा ही जवाब दिया ।
अमेरिका की इस मुहिम में अपने चिरप्रतिद्वंद्वी चीन को भारत भी सहयोग देने की बात कर चुका है जिसके कारण चीन नेपाल को आगे करके पीछे से गेम प्लान कर रहा है जबकि उस सीमा पर भारत का अधिपत्य 18 वी सदी के आसपास का है लेकिन फिर भी चीन प्रायोजित झगड़े में नेपाल को आगे कर दिया गया।
चीन ने नेपाल को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया है जिसमे उसने भाषिक तौर पर अपना काम शुरू कर दिया है। नेपाल में मंदारिन शुरू हो चुकी है जिसकी वजह से एक सांस्कृतिक बदलाव तो आएगा ही भाषा बदलेगी।
दूसरी तरफ नेपाल में बुद्धिज़्म का प्रचार-प्रसार भी चरम पर है जिसकी वजह से भाषा और संस्कृति का बदलाव हो रहा है। चीन धार्मिकता के साथ साथ भाषाई पैठ भी मज़बूत कर रहा है जिसकी वजह से चीन नेपाल पर अपना अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार कर रहा है जिसको हमारे भारतीय राजनेता नहीं समझ पा रहे है जबकि मोदी जी ने महेन्द्रनगर से दिल्ली बस यात्रा भी शुरू की जिसकी वजह से दोनो देशों में सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनैतिक सम्भाव पैदा हो सके, लेकिन चीन लगातार मज़बूती से बाज़ारबाद को लेकर आगे बढ़ रहा है जिससे वो वहां ओर नेपाली नागरिको को रोजगार मुहैया करा रहा है। 
वर्तमान समय में जो सीमा विवाद उतपन्न किया गया है उसके पीछे भी प्रथम दृष्टया में निश्चित ही चीन का हाथ नज़र आता है जबकि कालापानी और लिपुलेख सीमा की संधि कई सदियों से पुरानी है फिर भी चीन पीछे बैठकर गेम प्लान करके खेल रहा है वो हमारे और नेपाल के रिश्ते ख़राब कराकर नेपाल को अपने करीब करना चाहता है जिससे जो कुछ भी नेपाल भारत से जाता है उसपर एकदम रोक लग सके और उसकी बाज़ारवादी नीति आगे बढ़ सके। 
इस संदर्भ में हमारे राजनेताओ और आंतरिक कलह भी एक कारण है जिस प्रकार से हमारी मीडिया ने जो नफ़रत की आग लगाई है उससे नेपाल को लगता है कि भारत कमज़ोर हो गया है लेकिन यहां सेचुशन बिल्कुल अलग है कुछ भावनात्मक मुद्दों को छोड़कर अगर कोई भी देश के खिलाफ षड्यंत्र करेगा तो उसको सभी धर्मों और जातियों के लोग जवाब देंगे क्योंकि यह हमारी देशभक्ति का सबूत है 

जय हिंद
अकरम हुसैन
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट

गुरुवार, 21 मई 2020

महामारी में भी सड़को पर क्यों है अल्लाह के बन्दे- रामकुमार सिंह

दुआ दीजिए इन अल्लाह के बंदों को जो अपने त्योहार की तैयारियां न करके महानगरों से भूखे-प्यासे पैदल और बीमार अपने घर लौट रहे मजदूरों की दिल खोलकर मदद कर रहे हैं। मुट्ठी भर जमातियों के नाम पर इस पूरी कौम को गला फाड़ फाड़कर गालियां देने वालो एक दो शब्द इन मानवतावादी लोगों के लिए भी कहिए। मैं जानता हूँ कि आप नहीं कहेंगे क्योंकि आप लोंगो को बचपन से ही घृणा के संस्कार मिले हैं।इसमें आपका नहीं आपकी परवरिश करने वाले माँ-बाप का दोष है क्योंकि उन्होंने तुमको प्रेम और भाईचारे के संस्कार दिये ही नहीं।तुम जब भी मुँह खोलते हो तो ज़हर ही उगलते हो।हे विषपुत्रो!मैं तुम्हें परवरिश देने वालों पर लानत भेजता हूँ।मैं ये अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम भी मुट्ठी भर लोग हो और अपने कुकर्मों से पूरे समुदाय को कलंकित कर रहे हो।एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है वाली कहावत को चरितार्थ करने का बीड़ा तुम लोगों ने ही उठाया है।लेकिन तुम्हारे मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा, क्योंकि इस देश में घृणा का व्यापार करने वालों से ज्यादा बड़ी तादात में प्रेम का व्यवहार करनेवाले लोग हैं।हर वह व्यक्ति जो घृणा का व्यापार करता है चाहे वह किसी भी जाति या धर्म से तआल्लुक रखता हो मैं उसकी मुखालिफत करता हूँ और हर वह व्यक्ति जो प्रेम का व्यवहार करता है चाहे वह किसी भी जाति या धर्म से तआल्लुक रखता हो का मैं खुले दिल से स्वागत करता हूँ।ये विकट महामारी का वक्त है, इसने दुनियाभर की तमाम महाशक्तियों की चूलें हिलाकर रख दी हैं।इस वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत ये है कि हम लोगों को मिलजुलकर इस कठिन दौर से गुजरना है।एकता मैं शक्ति होती है।हम लोगों में आपसी फूट डालने वालों के मंसूबों को नेस्तनाबूद करके ही हम लोग ये आधी लड़ाई जीत सकते हैं।जरूरत है एक अच्छे आगाज़ की। अच्छी नीयत से किया गया आगाज़ हमेशा अच्छा अंजाम देता है।हमें नफरत करने वालों से नफरत करने की जरूरत नहीं है, जरूरत है आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार करने की क्योंकि यही वह तरीका है जिसके माध्यम से हम इनको परास्त कर सकते हैं।नफरती राक्षसों का संहार सिर्फ और सिर्फ प्रेमास्त्र से ही किया जा सकता है।इसलिए मैं तो गीतकार आनंद बक्शी के शब्दों में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि -
नफ़रत की लाठी तोड़ो, लालच का खंजर फेंको
ज़िद के पीछे मत दौड़ो, तुम प्रेम के पंछी हो
देश प्रेमियों
आपस में प्रेम करो देश प्रेमियों
मेरे देश प्रेमियों
आपस में प्रेम करो देश प्रेमियों

देखो ये धरती हम सबकी माता है
सोचो आपस में क्या अपना नाता है
हम आपस में लड़ बैठे तो, देश को कौन संभालेगा
कोई बाहर वाला अपने घर से हमें निकलेगा
दीवानों होश करो
मेरे देश प्रेमियों
आपस में प्रेम करो...

मीठे पानी में ये ज़हर ना तुम घोलो
जब भी कुछ बोलो ये सोच के तुम बोलो
भर जाता है गहरा घाव, जो बनता है गोली से
पर वो घाव नहीं भरता, जो बना हो कड़वी बोली से
तो मीठे बोल कहो
मेरे देश प्रेमियों
आपस में प्रेम करो...

तोड़ो दीवारें ये चार दिशाओं की
रोको मत राहें इन मस्त हवाओं की
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खन वालों मेरा मतलब है
इस माटी से पूछो क्या भाषा क्या इसका मज़हब है
फिर मुझसे बात करो
मेरे देश प्रेमियों
आपस में प्रेम करो...

बुधवार, 20 मई 2020

इंसान को इंसान मानने की जद्दोजहद है किन्नर-विमर्श- प्रोफ़ेसर मेराज अहमद

इंसान को इंसान मानने की जद्दोजहद है किन्नर-विमर्श- प्रोफ़ेसर मेराज अहमद

वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के फेसबुक लाइव पेज से आज एएमयू हिंदी विभाग के सृजनात्मक साहित्य के पुरोधा प्रोफ़ेसर मेराज अहमद ने अपने विचार रखे जिसमे किसी विमर्श के शुरू होने पर प्रश्न उठाया और बताया आखिर कोई विमर्श क्यों प्रकाश में आता है, दरअसल किसी भी विमर्श के गर्भ में एक पीढ़ा होती है कभी वो सामाजिक होती है तो राजनैतिक, आर्थिक, या फिर लैंगिक । 
किन्नर विमर्श का उदय लैंगिक पीढ़ा के कारण होता है जिसमे यह समाज उनके प्रति होने वाले लैंगिक भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाता है और स्वयं को इस देश में बराबर का नागरिक भी बनने की इच्छा जाहिर करता है जो उनका संवैधानिक अधिकार भी है लेकिन ट्रांसजेंडर को बहुत अधिकार मिले भी है और अभी बहुत अधिकारों को मिलने की आशा भी है। काफी वर्षो से चले आ रहे है इस संघर्ष में किन्नरों ने स्वयं को इंसान की दृष्टि से देखने का प्रयत्न समाज के सामने किया है जो समाज उसको नहीं देना चाहता , किन्नर समाज चाहता है कि उसको इंसान होने का दर्जा प्राप्त हो। मानव योनि में जन्म लेकर भी उसको इंसान का दर्जा ना मिलना वास्तव में बहुत ही दर्दनाक मंज़र है। क्योंकि अगर उसके लिंग में कुछ विकृति है तो यह उसका दोष तो नहीं है नाही उसके माता- पिता का दोष है यह तो उसके जननांग विकसित ना हो पाने का दर्द है जिसको वह बार बार कहता भी है और संवैधानिक लड़ाई को पूरी संवेदनशीलता से कफलड भी रहा है। 
दरअसल किन्नर समाज के प्रति होने वाली पीढ़ा का व्यवहारिक अवलोकन किया जाए तो हम देखते है कि अधिकतर किन्नरों को उनके परिवार से ही प्रारंभ में मारपीट, ऊंच-नीच का भाव देखने को मिलता है जिससे उसमे मानसिक तौर पर गिरावट आती है जब वो किशोरावस्था में आते है तो शरीर विकसित होने लगता है लेकिन जननांग विकसित नहीं होते है बल्कि उनका विकास रुक जाता है। इस आयु में कोई भी शिशु बड़ा चंचल होता है और उसके हृदय में नई नई ऊर्जा, उमंग का संचार होता है लेकिन किन्नर कभी भी कुछ सोच नहीं पाता है क्योंकि मानसिक रूप से वो बहुत परेशान हों चुका होता है फिर पिता और भाइयो के कारण उसको घर से भागना पड़ता है जबकि अधिकतर मामलों में देखा गया है किन्नर की माँ चाहती है वो घर से बाहर ना जाये लेकिन लोक लाज के कारण पिता या उसके भाई उस किन्नर का समर्थन नहीं करते है जिसके कारण ट्रांसजेंडर को अपना घर त्यागना पड़ता है और वो किन्नरों में जाकर मिल जाता है तथा उनके संस्कार और संस्कृति को स्वयं में ढालने लगता है उनका पहनावा और श्रृंगार करने लगता है फिर धीरे-धीरे उसको गुरु किन्नर बधाई मांगने ले जाते है फिर वह इसी काम मे लग जाता है, कभी कभी घर भी नहीं होता है या उसको नया घर बनाना पड़ता है यह उसके लिए दुगना कार्य हो जाता है जिसको वह अपनी मेहनत से तैयार भी करता है, उसके पास सबकुछ अपनी मेहनत का होता है फिर भी वह अपने परिवार को याद करता है अधिकतर मां से जो एक बच्चे से बॉन्डिंग होती है उसके प्रति जो दर्द होता है उस पीढ़ा को वह समझता है अपनी माता के लिए बहुत उदार रहता है।
किन्नर विमर्श के माध्यम से कथाकार मेराज अहमद ने किन्नर पर अपनी लिखी कहानी का भी ज़िक्र किया और बताया उन्होंने जो कहानी लिखी है उसका प्लॉट यथार्थ पर आधारित है और जिनकी कहानी है वो तीनो एक साथ रहती है और उनको किसी भी समाज ने उनको वहां से नहीं हटाया है उनके आर्थिक साधन भी है जिसके कारण वो अपना जीवन अच्छे से व्यतीत कर रहे है। 
यधपि यह पत्रिका का आखिरी फेसबुक लाइव था जिसमे उन्होंने सभी समान्नित वक्तागण का हार्दिक आभार प्रकट किया।
हिंदी विभाग के प्रभारी डॉ. ए. के. पाण्डेय हलीम मुस्लिम पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉ. तनवीर अख्तर एवं टीचिंग स्टाफ विशेष रूप से डॉ मोहम्मद शमीम, डॉ. अब्दुल्लाह फ़ैज़, डॉ. मुश्तकीम, डॉ. इरशाद, शमा नाहिद, डॉ. अफ़रोज़।

फेसबुक लाइव पर वक्तागण
डॉ. रमाकान्त राय, डॉ. लवलेश दत्त, डॉ. गौरव तिवारी, डॉ. भारती अग्रवाल, डॉ. मोहम्मद शमीम, डॉ. रमेश कुमार, डॉ. लता अग्रवाल, प्रोफेसर कमलानंद झा, डॉ. राधेश्याम 
विशेष रूप से वाङ्गमय के सहसंपादक अकरम हुसैन, डॉ. मोहसिन ख़ान, शाबान खान, सलीम अहमद, मनीष गुप्ता
तकनीकी रूप से डॉ. रमाकान्त राय जी का विशेष आभार
इसके अलावा जो हमारे वाङ्गमय पत्रिका के श्रोतागण, जिन्होंने परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सहयोग प्रदान किया है उन सभी का ह्रदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ।
आप सभी ने वाङ्गमय परिवार को आजतक जो प्रेम दिया है उसके लिए आभारी रहूंगा, तथा विशेष रूप से हलीम पीजी कॉलेज परिवार का भी  धन्यवाद
किन्नर विमर्श पर सार्थक चर्चा और प्रकाशन का काम करने वाले विकास प्रकाशन का भी हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने समय समय पर पत्रिका के कार्यक्रम में अपना योगदान दिया
यूट्यूब लिंक
https://youtu.be/U-bQNbCq-f4
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विषय- आधी हक़ीक़त, आधा फसाना
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मंगलवार, 19 मई 2020

फिल्मों के माध्यम से बदली जा सकती है, किन्नरों के प्रति मानसिकता- कमलानंद झा

फिल्मों के माध्यम से बदली जा सकती है किन्नरों के प्रति मानसिकता- कमलानंद झा

वाङ्गमय पत्रिका (फेस बुक लाइव) द्वारा आयोजिय दस दिवसीय थर्ड जेंडर विषयक व्याख्यानमाला में आज ए एम यू, हिन्दी विभाग के प्रोफेसर कमलानंद झा ने 'थर्ड जेंडर और सिनेमा' विषय पर व्यख्यान दिया। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि 1996 में  थर्ड जेंडर पर अमोल पालेकर के निर्देशन में बनी फिल्म 'दायरा' को सेंसर बोर्ड ने  हिंदुस्तान में रिलीज़ नहीं होने दिया।  जबकि, कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में यह फ़िल्म खूब प्रशंसित हुई । टाइम्स मैगजीन ने उस साल दुनिया के दस श्रेष्ठ फिल्मों की सूची में इसे रखा। वही फिल्मी दुनिया 2013 में  भारतीय फिल्म के सौ वर्ष पूरे होने पर 'बॉम्बे टॉकीज' जैसी फ़िल्म बनाती है,  जिसमें  ट्रांस जेंडर की भूमिका प्रमुख होती है।  25 सालों में दृष्टि की यह भिन्नता महत्वपूर्ण है और आशाजनक भी। उन्होंने कहा कि ट्रांस जेंडर के लिए हिन्दी मे कई  शब्द प्रचलित हैं, लेकिन हिजड़ा शब्द ज्यादे उपयुक्त इसलिए है कि यह अरबी शब्द हिज्र से बना है जिसका अर्थ होता है, सामाजिक बहिष्करण। 
अपने व्यख्यान में प्रो झा ने कहा कि इस विषय पर बनीं वही फिल्में महत्वपूर्ण हो सकती हैं, जो हिजड़ों के अस्तित्व के सवाल को सिद्दत से उठाए, सामाजिक बहिष्करण को प्रश्नांकित करे और उन्हें मानवीय गरिमा से समृद्ध करे। साथ ही समाज से लेकर सरकार तक से इनके मुद्दे को लेकर सवाल करे।अधिकांश हिन्दी फिल्मों ने उयोगितावादी दृष्टिकोण  और फ़िल्म हिट कराने की नीयत से इन ट्रांस जेंडर लोगों का उपयोग किया है। 
उन्होंने इस मसले पर बनी महत्वपूर्ण फिल्मों में बँग्लादेसी फ़िल्म कॉमन जेंडर  (नमिन रॉबिन ), पाककिस्तान की फ़िल्म बोल ( सोएब मंसूर), तमिल फिल्म 'नर्तगी' ( जी. विजय पद्मा) मराठी फिल्म जोगवा (संजीव पाटील), हिन्दी फिल्मों में दरमियां (कल्पना लाजमी), वेलकम टू सज्जनपुर(श्याम बेनेगल) शबनम मौसी (योगेश भारद्वाज)तथा बाम्बे टॉकीज (एक भाग का निर्देशन जोया अख्तर) आदि को माना। कॉमन जेंडर के बारे में उन्होंने कहा कि यह फ़िल्म एक हिजड़े की आम आदमी से प्रेम की संघर्षपूर्ण महागाथा है, जिसकी परिणति हिजड़े की आत्महत्या में होती है। 'बोल' धार्मिक हदबंदी में जकड़े पितृसत्ता की चंगुल में छटपटाते एक ट्रांस जेंडर सेफ्फुला की करुण गाथा है। 'नर्तगी' फ़िल्म  कि विशेषता यह है कि इसमें सहोदरी नाम की बहुत महत्वपूर्ण एनजीओ की निदेशका,थर्ड जेंडर कल्की सुब्रह्मण्यम ने लीड रोल निभाया है। फलस्वरूप फ़िल्म अत्यंत यथार्थ और संवेदनशील बन पड़ी। जोगवा महाराष्ट्र और कर्नाटक के धार्मिक अन्धविश्ववस पर प्रहार करती फ़िल्म है। वहाँ एक अन्धविश्ववास यह है कि अगर किसी लड़की के बाल में जटा हो जाए और लड़के के लिंग से थोड़ा भी खून निकल जाए तो उसे हिजड़ा घोषित कर दिया जाता है। समाज उसे बहिष्कृत कर एकाकी जीवन जीने पर मजबूर कर देता है और यलम्मा देवी  की सेवा के लिए छोड़ देता है। देवी के मंदिरों में उनका 'वैध' यौन शोषण होता है। उन्होंने कहा कि   सूली (नायिका) और तय्यप्पा(नायक)  की संघर्षगाथा का नाम है जोगवा।
उन्होंने कहा कि यह समाज द्विलिंगी भी नहीं एक लिंगी है। यहाँ स्त्री के रूप में दूसरी लिंग पहली लिंग की सुविधा और मुखाग्नि के लिए पुत्र प्राप्ति हेतु है। ऐसे समाज मे तीसरे लिंग की दुविधा और दुश्चिंता को समझना आसान नहीं है। हिजड़ों की संवेदना को समझने के लिए हमें पितृसत्ता के कवच को उतार फेकना होगा। आगे उन्होंने कहा कि इन पर बनी फिल्में साफ-साफ कहती है कि इनका माँ-बाप नहीं, इनका घर नहीं, समाज नहीं, देश नहीं , तो फिर इनका अपना क्या? ये सचमुच भारत माँ की अनाथ संतान हैं। इसी क्रम में इन्होंने लक्ष्मी त्रिपाठी की आत्मकथा 'मैं लक्ष्मी...मैं हिजड़ा', करनाल की हिजड़ा मनीषा महंत के साक्षात्कार तथा प्रदीप सौरभ के तीसरी ताली  उपन्यास आदि का जिक्र करके अपने व्याख्यान को सारगर्भित और प्रासंगिक  भी बनाया। व्यख्यान के समय कई शिक्षक, शोधार्थियों ने लाइव होकर व्याख्यान का आनंद लिया।
प्रिंसिपल डॉ तनवीर अख्तर, डॉ लता अग्रवाल, डॉ मुश्ताक़ीम, डॉ शमा नाहिद, डॉ पांडेय, इरशाद हुसैन, डॉ रमाकांत राय, डॉ गौरव तिवारी, डॉ शगुफ्ता, डॉ भारती अग्रवाल, डॉ शमीम, अनवर खान, मुशिरा खातून, कामिनी कुमारी,  मनीष कुमार, रिंक्की कुमारी, दीपांकर, मनीषा महंत, मिलन, पंकज बाजपेयी,
डॉ कामिल, मुनवर कामिल, डॉ सविता सिंह, कनुप्रिया झा, रामकुमार सिंह, नीरज, आशीष तिवारी इसके अलावा वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन ने भी पत्रिका में लाइव कार्यक्रम को सुना 
इस कार्यक्रम को दोबारा सुनने के लिए AKRAM HUSSAIN QADRI नाम से यूटयूब पर दोबारा सुना जा सकता है

अकरम हुसैन
सहसंपादक
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका
अलीगढ़

यूट्यूब लिंक

https://youtu.be/E5iMR04vMpg
सुनिए 'थर्ड जेण्डर और फ़िल्म' पर विचारोत्तेजक व्याख्यान प्रोफ़ेसर कमलानंद झा सर को वाङ्गमय पत्रिका के फेसबुक लाइव के माध्यम से
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सोमवार, 18 मई 2020

हमारे बचपन में मां की लोरियां नहीं होती - डॉ. लता अग्रवाल

“हमारे बचपन में माँ की लोरियाँ नहीं होती : डॉ. लता अग्रवाल”


वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका द्वारा आयोजित फेसबुक लाइव व्याख्यान माला के अंतर्गत थर्ड जेंडर पर विमर्श हेतु चलाई जा रही श्रृंखला में आज भोपाल की वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक डॉ. लता अग्रवाल ने अपने विचार रखे , आपने थर्ड जेंडर के बचपन की अवस्था पर चर्चा करते हुए कई प्रश्न उठाये | आखिर क्यों उनके बचपन में घर का आंगन नहीं होता , माता की लोरियाँ, बाबुल का दुलार , दादी के किस्से ,नानी का घर नहीं होता ...? इनके जन्म की खबर को गुप्त रखा जाता है , जन्म के पश्चात छोड़ दिया जाता है अनाथालय, मन्दिर या कूड़े के ढेर पर | आखिर क्या दोष है उनका ....? ये बच्चे तो आखिर हमारे ही समाज से आते हैं , किन्नर समाज की तो कोई प्रजनन क्षमता नहीं है | अगर इन्हें बचपन में घर की छत्रछाया मिल जाए तो ये भी आंगन की तुलसी, दरवाजे का नीम साबित हो सकते हैं बशर्ते इन्हें अवसर दिया जाय | और यह अवसर समाज को ही देना होगा |
डॉ. अग्रवाल ने किन्नर समुदाय से लिए अपने साक्षात्कार का हवाला देते हुए बताया अधिकांश के पिता और भाई द्वारा ही उन्हें अस्वीकार किया गया, वह भी इसलिए की समाज उन्हें उलाहना देगा,
‘ देखो !देखो !उसने किन्नर को जन्म दिया |”
“अरे ! वो जा रहा है किन्नर का भाई |” यहाँ समाज को अपना आत्ममंथन करने की आवश्यकता है | उन्होंने बताया कि क्यों हम उनसे उनके जीवन से जुड़े सवाल पूछकर उन्हें आहत करते हैं | वास्तव में यह प्रश्न तो उन माता-पिता से करने चाहिए जिन्होंने उन्हें छोड़ा है | सम्भव है इससे उनमे ग्लानि का भाव आये और किन्नरों की घर वापसी हो | डॉ. लता ने फ़ारसी परिवार में जन्मी सिमरन काजल, मनोबी बंदोपाध्याय, माई मनीषा महंत, जुली ,अमृता, पायल, काजल,शिल्पा, डॉली आदि के जीवन से जुड़े कई मार्मिक प्रसंग शोधार्थियों के समक्ष रखे | किस तरह सिमरन ने अपने ही जन्मदाताओं की प्रताड़ना को सहा और घर त्यागा ,अमृता सोनी का अपने ही पितातुल्य चाचा द्वारा दैहिक शोषण किया गया ,पायल कैसे जिन्दगी की तलाश में मौत को चकमा देखर निकल आई ...मगर इसके बाद जिन्दा रहने का इनका संघर्ष और भी भयानक है | किन्नर गीता , गौरी सावंत , माई मनीषा महंत का उदाहरण देकर आपने उनकी संवेदन शीलता के कई पहलू सामने रखे | 
   डॉ. अग्रवाल ने कहा , बेहद अफ़सोस का विषय है हमारी डिग्रियों में तो इजाफा हो रहा है ,मगर सोच वही कुंठित सी है , जिसमें विस्तार की आवश्यकता है | बचपन जीवन की महत्वपूर्ण अवस्था है अगर इसी में बिखराव होता है तो फिर हम उनसे सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अपेक्षा कैसे रख सकते हैं ? वास्तव में इन्हें मुख्य धारा से परे रखकर देश इनकी क्षमताओं से वंचित रह गया है , हमें इस बात पर अफ़सोस होना चाहिए | जब इन्हें परिवार का साथ मिलता है तो ये भी अपनी प्रतिभा का इजहार करने में पीछे नहीं है |इसका उदाहरण है मानोवी बंदोपाध्याय जी, 
महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जी ,गजल ,दीपक जिन्हें परिवार का साथ मिला और इन्होने साबित किया ये भी उतने ही सक्षम हैं |
आपने वर्तमान में इनके पारम्परिक व्यवसाय पर हो रहे आक्रमण पर भी चिंता व्यक्त की | साथ ही आज जो किन्नर समुदाय आम समाज के बच्चों की परवरिश कर उनके बचपन को  सहेज रहे हैं क्या भविष्य में वे बच्चे इनकी वृध्दावस्था में इनके साथ रहेंगे ...? इस बात पर चिन्तन किया जाना चाहिए | डॉ. अग्रवाल के अनुसार इन्हें अलग से स्कूल या कोई व्यवस्था की बात अगर हम करते हैं तो उन्हें वही अलगाव की ओर धकेलते हैं बेहतर होगा उन्हें सम्पूर्ण रूप से सामान्य समाज का सानिध्य मिले ताकि उनके व्यवहार में बदलाव आए | माता-पिता का आंगन उनसे कभी न छूटे ,यह उनका जन्मसिध्द अधिकार है | आपने बताया महामंडलेश्वर गलत नहीं कहतीं कि ‘उन्हें ट्रांसपरेंट देखा जाता है |’ आज किन्नर समुदाय हिंदुस्तान हो या पाकिस्तानी किन्नर समुदाय वे संवैधानिक प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं है | आपने मंगला किन्नर का उदाहरण सामने रखा कि किस तरह बलात्कार के बाद डॉक्टर और फिर पुलिस विभाग से उन्हें उलाहने और उपेक्षा मिली वास्तव में यही उनकी जिन्दगी का सच है , दर्द है कि कोई उन्हें गंभीरता से लेना नहीं चाहता |
आगे उन्होंने यह भी स्वीकारा कि स्थिति उतनी असंतोष जनक नहीं है आज स्थिति में काफी सुधार हो रहा है , अंत में उन्होंने कहा युवा वर्ग को अपनी सोच युवा रखनी चाहिए | तभी कोई परिवर्तन सम्भव है। इस लाइव कार्यक्रम में देश-विदेश के अनेक लोग शामिल हुए जिन्होंने इस कार्यक्रम को सफल बनाया। एएमयू के प्रोफेसर मेराज अहमद, प्रोफ़ेसर कमलानन्द झा, डॉ. पुनीत बिसारिया
प्रिंसिपल डॉ तनवीर अख्तर, डॉ लता अग्रवाल, डॉ मुश्तक़ीम, डॉ शमा नाहिद, डॉ पांडेय, इरशाद हुसैन, डॉ रमाकांत राय, डॉ गौरव तिवारी, डॉ शगुफ्ता, डॉ भारती अग्रवाल, डॉ शमीम, अनवर खान, मुशिरा खातून, कामिनी कुमारी,  मनीष कुमार, रिंक्की कुमारी, दीपांकर, मनीषा महंत, मिलन, पंकज बाजपेयी,डॉ कामिल, मुनवर कामिल, डॉ सविता सिंह एवं वाङ्गमय के सहसंपादक अकरम हुसैन ने भी लाइव कार्यक्रम में शिरकत की
अकरम हुसैन 
सहसंपादक
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका
अलीगढ़
यूटयूब लिंक

https://youtu.be/OBZzW547v6E
सुनिए भोपाल की साहित्यकार/समीक्षक डॉ. लता अग्रवाल जी को 
"हमारी तकदीर में लोरियां नहीं होती "
नामक विषय पर जोकि वाङ्गमय त्रैमासिक पत्रिका के फेसबुक लाइव प्रोग्राम से साभार है

रविवार, 17 मई 2020

पारिवारिक सहयोग से कम हो सकती है किन्नरों की पीढा - डॉ. राधेश्याम सिंह

परिवारिक सहयोग से कम हो सकती है किन्नरों की दिक्कत - डॉ. राधेश्याम सिंह


हिंदी की महत्त्वाकांक्षी एवं प्रतिष्ठि पत्रिका ‘वाङमय’ के संयोजन में आयोजित किन्नर विमर्श पर आधारित फेसबुक लाइव दसदिवसीय श्रृंखला में आज (17.05.20) को  कमलानेहरू भौतिक एवं सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्राचार्य डाॅ. राधेश्याम सिंह ने ‘किन्नर समुदाय की उपेक्षा के कारक तत्त्वों पर एक सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया।
डाॅ. सिंह की स्पष्ट मान्यता थी कि किसी भी समुदाय की ‘आइडेंटिटी’ को स्थापित करने में उसकी सांस्कृतिक, धार्मिक यात्रा क्रम में रचे गए मिथकों, प्रतीकों, भाषा और संस्कृति का विशेष योगदान होता है। जब हम इनका विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इन कारक तत्त्वों में उनको कोई जगह नहीं दी गई। कहीं जगह भी मिली तो उनके समाज को ऊर्जासित करने में उन कारकों की कोई सकारात्मक भूमिका नहीं दिखाई पड़ती।
मिथकों का विश्लेषण करते हुए डाॅ. सिंह ने कहा कि सृष्टि के गढ़ने के मिथकों का आधार ही पुलिंग वर्चस्व का रहा है। प्रारंभ तो ब्रह्म के साथ होता है, वहाँ नारी भी अनुपस्थित ही है तो तृतीय लिंगियांे को कौन पूछता? मनुस्मृति का ऋषि भी इस समुदाय को दास वर्ग की तरह अवश्य मानता है। महाभारत काल के जिन किन्नरों का नाम- जैसे शिखंडी, बृहन्नला, मोहिनी या अरावन का नाम लिया जाता है उनमें सभी या तो श्राप के कारण जन्म ग्रहण करते हैं या किसी छल-छद्म के उपकरण के रूप में काम आते हैं। या तो वे शापित-अभिशप्त हैं या किसी दूसरे के हाथों के ‘टूल्स’ बने हुए हैं। ऐसे मिथकों से किन्नर समाज को कौन-सी ऊर्जा मिल सकती है? उलटे उनमें हीन भावना ही पनप सकती है। इन किन्नरों को महल या दरबार में रहने की जगह इसलिए मिल जाती है कि वे आभिजात्यों के कुकर्मों का फल हैं या उनकी कार्यसिद्धि में औजार के रूप में प्रयुक्त होने को तत्पर हैं। इतना कहा जा सकता है कि उनके प्रति हिकारत का भाव इस स्तर का नहीं था जैसा हमारे समय में है। मुगल काल में हरमों की सुरक्षा में नियुक्ति में भी ज्यादा ध्यान हरम की रानियों की चारित्रिक सुरक्षा की है, इस समुदाय की खुले भाव से मंगल कामना कम ही है। मलिक काफूर जैसे योद्धाओं का चरित्रा अपवाद की तरह है। इन स्थितियों को केवल ‘ना’ से ‘हाँ’ के रूप में ही देखा जा सकता है। अपनी राष्ट्र भक्ति के कारण जब 1871 में इन्हें जरायमपेशा घोषित किया गया तो मुख्य धारा के समाज के साथ इनकी दूरियाँ बढ़ती गईं। संवाद भी बंद हुआ और इस समुदाय की रहस्यमय कथाओं का अम्बार लग गया। लोगों को इनसे भय लगने लगा जो बाद में घृणा में परिवर्तित हुआ।
इसी तरह ‘अर्द्धनारीश्वर’ के प्रतीक को किन्नर समुदाय के पक्ष में विश्लेषित किए जाने की परंपरा रही है। पर सत्य यह है कि अर्धनारीश्वर स्वस्थ शैवों और शाक्त सम्प्रदाय के बीच के टकराव को शमन करने के समझौते के फलस्वरूप आया है। इनका किन्नर विमर्श से कोई सीधा समीकरण नहीं बन पाता। यदि ऐसा होता तो निश्चय ही इस धार्मिक प्रतीक का प्रतिबिंब समाज में आता और इसका सीधा फायदा किन्नर समुदाय को मिलता। पर ऐसा हो न सका।
इसी तरह ‘बहुचरा’ और ‘बेशरा’ देवी किन्नर समुदाय की वैकल्पिक सोच का उत्पाद है। ठीक उसी तरह जेसे निर्गुणियों ने सगुणियों से अपने आप को अलग करने के क्रम में अपने निर्गुण ह्मण का सृजन किया। समाज के निचले पायदान की जातियों ने यह काम किया जो मंदिर निर्माण तो करते थे पर पूजा करने के हक से विरत थे। इसी तरह का विकल्प किन्नरों ने बहुधा उच्चरित सत्य को बहुचरा देवी बना लिया। किन्नरों के मुसलमान तबके ने उसे ‘बेशरा’ या शरीयत से अलग कहा। इसीलिए उस दैवी प्रतीक को ‘मुर्गे पर सवार शक्ति’ के रूप में प्रयुक्त किया गया। मुर्गा प्रतीक है सामाजिक जागरण का। पर उसकी आवाज आज भी अनसुनी है। इस विवेकशील विकल्प को देखकर उनकी प्रतिभा एक संदेह खत्म हो जाता है। निर्गुणियों का सम्बंध योग से जुड़ता है तो बहुचरा देवी का संबंध श्री चक्र कुंडलनी जागरण से है। दोनों ही वर्ग शास्त्रा विरोधी और अनपढ़ हैं। पर विवेकशीलता के उदाहरण है।
और इस समुदाय को अभिव्यक्ति के माध्यम भाषा के क्षेत्रा से भी निरस्त करने का उपक्रम किया गया। संस्कृत और मराठी में तो नपुंसक लिंग की अवधारण है पर हिंदी में नहीं है। दरअसल भारतीय समुदाय अनुत्पादक मनुष्य या वस्तु सबको हेय समझता रहा है। भाषा से यह दूरी ही उन्हें मुख्य धारा की संस्कृति से और दूर करती है। विकल्प में संधा भाषा जैसी कोड़ीफायन भाषा के शब्दों को सृजित कर इस समुदाय ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है।
किन्नरों की समुदायित संस्कृति अपने पर अत्याचार करने वालों के प्रति भी उपकार भावना से भरपूर है। जिसे ईश्वर से लेकर मनुष्य तक ने अपने मनोराज्य से बाहर किया हो जिसे परिवार का वात्सल्य न मिल सका। उसको तो अराजक और प्रतिक्रियावादी होना चाहिए था। पर यह समुदाय अपने पर अत्याचार  करने वाले समाज का नाच-गाकर मनोरंजन करता है। इससे उनके मूल चरित्रा का पता चलता है।
भारतीय सामाजिक संरचना में ऐसी ढेर सारी जातियाँ हैं जिनका जन्म आधारित व्यवसाय होता है। पर इन किन्नरों कोउस कौशल से भी महरूम करके आर्थिक तौर पर विपन्न करने का षड्यंत्रा किया गया। अन्य विमर्श में शामिल जैसे दलित, नारी आदि व्यवस्था के भीतर रहकर व्यवस्था से प्रतिरोध करते हैं। किन्नर समुदाय यह कार्य प्रभावी तौर पर न कर सका क्योंकि वह तो सिस्टम से ही बाहर था। एकदम ‘आउट साइडर’
आज जरूरत है इन्हें राजनैतिक तौर पर आरक्षण की क्योंकि राजनीति आज की वह शक्ति है जो मनुष्य जीवन की संचालिका है। जेसे दलितों की रिजर्व सीटें हैं इनके लिए भी संसद की दो सीटें हो तो परिदृश्य बदल सकता है। या इन्हें राष्ट्रपति नामित ही करें। दूसरी महत्वपूर्ण चीज शिक्षा है जो इन्हें स्वाभिमान दिला सकती है। इनके लिए अलग शिक्षा परिसर होना ही चाहिए। जेंडर संवेदना के विषय को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि इनके प्रति समझ का भाव विकसित हो। इन्हें केंद्र सरकार की ‘स्टार्टअप’ योजना से कुटीर धंधे, सौंदर्य, फैशन डिजाइनिंग मीडिया सुरक्षा आदि से जोड़कर इसका सशक्तिकरण किया जा सकता है पर इन सबके लिए समाज और सरकार के संकल्पबद्धता की आवश्यकता है।
इस कार्यक्रम में एएमयू हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर कमलानंद झा, प्रिंसिपल डॉ तनवीर अख्तर, डॉ लता अग्रवाल, डॉ मुश्ताक़ीम, डॉ शमा नाहिद, डॉ पांडेय, इरशाद हुसैन, डॉ रमाकांत राय, डॉ गौरव तिवारी, डॉ शगुफ्ता, डॉ भारती अग्रवाल, डॉ शमीम, अनवर खान, मुशिरा खातून, कामिनी कुमारी,  मनीष कुमार, रिंक्की कुमारी, दीपांकर, मनीषा महंत, मिलन, पंकज बाजपेयी, डॉ कामिल, मुनवर कामिल, डॉ सविता सिंह एवं 
वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन ने भी लाइव कार्यक्रम में शिरकत की
इस कार्यक्रम को आप पुनः यूट्यूब चैनल पर AKRAM HUSSAIN QADRI नाम से सर्च करके दोबारा सुन और देख सकते है इसी नाम से ब्लॉग पर भी पढ़ सकते है

यूट्यूब लिंक
https://youtu.be/URAkLTRQtE4
सुनिए डॉ. राधेश्याम सर को "किन्नर समुदाय के उपेक्षा के कारक तत्त्व"  जैसे विषय पर वाङ्गमय पत्रिका के लाइव पेज के माध्यम से

अकरम हुसैन
सहसंपादक
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका

शनिवार, 16 मई 2020

तृतीय लिंगी कथा साहित्य अस्मिता की पहचान - रमेश कुमार

  • तृतीय लिंगी कथा साहित्य नारी अस्मिता की पहचान - रमेश कुमार

  • वाङ्मय त्रौमासिक हिंदी पत्रिका से व्याख्यान माला के अन्तर्गत आज फेसबुक लाइव में जवाहर लाल नेहरू राजकीय महाविद्यालय पोर्टब्लेयर के स्नात्तकोत्तर हिंदी विभाग के एशोसिएट प्रोफेसर डाॅ. रमेश कुमार ने ‘तृतीय लिंगी और कथा साहित्य’ पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने व्याख्यान में तृतीय लिंगी समुदाय की विभिन्न सेवियों, उनकी शारीरिक-मानसिक पहचान, उनकी सामाजिक-आर्थिक अवस्था और उनके साथ होने वाले अन्याय का वर्णन किया। उनका कहना था कि तृतीय लिंगी के प्रति समाज में पूर्वाग्रह व्याप्त है। जिनके कारण उन्हें अवमानना मिलती है। परम्परागत दकियानुसी सोच और अन्यायपूर्ण भेदों के कारण उन्हें मनुष्य का दर्जा तक प्राप्त नहीं होता। आज आवश्यकता है उनको मानवीय अधिकार प्राप्त हों। उन्हें आधुनिक शिक्षा और रोजगार के माध्यम से सशक्त बनाया जाना चाहिए।
  • डाॅ. रमेश कुमार ने तृतीय लिंगी केन्द्रित कथा साहित्य का सिलसिलेवार विवेचन किया। उन्होंने इक्कीसवीं सदी के चर्चित कथाकारों के उपन्यासों में व्यक्त तृतीय लिंगी विमर्श का रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि आधे-अधूरे शरीर वाले दरमियाने अपनी अस्मिता और पहचान के संकट से गुजर रहे हैं। उपन्यासकारों ने हाशिए के तृतीय लिंगी समुदायों के जीवंत परिवेश, उनकी कड़वी सच्चाइयों, मानवीय संवेदनाओं, भाषा के संस्कार और सम्प्रेषण की नई शैलियों का प्रयोग किया है। उन्होंने इस दृष्टि से हिंदी उपन्यासों का परिचय दिया। उनमें चित्रा मुद्गल का पोस्ट बाॅक्स न. 203 नाला सोपारा, नीरजा माधव कृत तीसरी ताली, राजेश मलिक कृत आधा आदमी, महेन्द्र भीष्म कृत जिन्दगी 50-50 सुभाष अखिल कृत दरमियाना, अनुसूइया त्यागी कृत ‘प्रति संसार’, लता अग्रवाल का मंगलामुखी आदि प्रमुख थे। उन्होंने अपने व्याख्यान में किन्नरों के प्राचीन इतिहास, धार्मिक मान्यताओं, सम्प्रदायों, आयामों, डेरों, विधि-विधानों, संस्कारों, प्रथाओं, मिथकों, रीति-रिवाजों, जीवन शैली और जीविकापार्जन के साधनों पर भी प्रकाश डाला। वर्तमान में तृतीय लिंगी समुदाय हाशिए पर आ गया है। उनकी यथास्थिति को बदला जाना चाहिए। किन्नर समुदाय की एक बड़ी आबादी भीख माँगने, जुआ खेलने, नशा करने, सैक्स वर्कर बनने, अपराध और हिंसा की दुष्प्रवृत्तियों में संलग्न हो रही हैं यह सोचनीय दशा हैं उनके पुनसर््थापन की पहल होनी चाहिए। उनके मानवीय और कानूनी अधिकारों को महत्व देना है। उन्होंने यह भी कहा कि तृतीय लिंगी समुदाय के लोग यौवनावस्था में शारीरिक, मानसिक अवस्था से गुजरते हैं। उनकी आधी-अधूरी देह कुंठाओं, वर्जनाओं और तनावों के कारण अभिशाप बन जाती है।
  • उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा कि तृतीय लिंगी समुदाय के जैंडर ट्रांसप्लांट, हार्मोन इंप्लांट और सर्जरी के द्वारा उनके शरीर को स्वस्थ बनाया जा सकता है। साहित्य की कहानी विधा पर भी उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए। इस संदर्भ में उन्होंने डाॅ. एम. फिरोज अहमद के संपादन में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘हम भी इंसान हैं’ का बौद्धिक विवेचन किया। हिंदी, पंजाबी और उर्दू कहानीकारों की चर्चित कहानियों का विवेचन करते हुए उनके नाना पक्षों को व्यक्त किया। इक्कीसवीं सदी की तृतीय लिंगी कहानियाँ इस समुदाय की मार्मिक संवेदना, नए अनुभवों, नए विचारों और नए यथार्थ का बोध कराती हैं। लोकतांत्रिक राष्ट्र में किन्नर तीसरी शक्ति या सत्ता का बोध कराते हैं। राष्ट्र और समाज के विकास में उनकी भागीदारी निश्चित है। तृतीय लिंगी कथा संसार अछूते भाव, संवेदना, चरित्रा भाषा और सोद्देश्यता का बोध देता है। यह ऊर्जा और संकल्प का मार्ग प्रशस्त करता है।
  • प्रिंसिपल डॉ तनवीर अख्तर, डॉ लता अग्रवाल, डॉ मुश्ताक़ीम, डॉ शमा नाहिद, डॉ पांडेय, इरशाद हुसैन, डॉ रमाकांत राय, डॉ गौरव तिवारी, डॉ शगुफ्ता, डॉ भारती अग्रवाल, डॉ शमीम, अनवर खान, मुशिरा खातून, कामिनी कुमारी,  मनीष कुमार, रिंक्की कुमारी, दीपांकर, मनीषा महंत, मिलन, पंकज बाजपेयी,
  • वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन भी शामिल थे

  • अकरम क़ादरी 
  • यूट्यूब लिंक
  • https://youtu.be/iv3sCwJszoc
  • सुनिए डॉ रमेश कुमार जी को 
  • तृतीय लिंगी और कथा साहित्य विषय पर वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के फेसबुक लाइव पेज से 
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शुक्रवार, 15 मई 2020

ट्रांसजेंडर को नहीं है पूरे अधिकार- मोहम्मद शमीम

ट्रांस जेण्डर को नहीं है पूरे अधिकार- मोहम्मद शमीम

वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के व्याख्यान माला के अंतर्गत आज फेसबुक लाइव में हलीम मुस्लिम पीजी कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के डॉ. मोहम्मद शमीम ने "थर्ड जेंडर के संवैधानिक अधिकार" के तहत अपने विचार रखे जिसमे उन्होंने भारत मे किन्नरों के अधिकार का व्यवहारिक रूप क्या है और संवैधानिक रूप का विश्लेषण करते हुए बताया कि अभी भारतीय संविधान में किन्नर समाज के अधिकारों को और अधिक विस्तार करने की आवश्यकता है जिस प्रकार से यूरोप तथा दूसरे देशों में किन्नरों को  अच्छे संवैधानिक अधिकार है भारत की तुलना में उनको भी यहां पर बराबर का दर्जा मिलना चाहिए इस सम्बंध में उन्होंने भारत के मूल अधिकारों का भी ज़िक्र किया कि जिस प्रकार से यहां पर स्त्री-पुरुष के अधिकार है ठीक उसी प्रकार से लैंगिक विकृति के कारण इनको भी जेण्डर आधार आरक्षण मिलना चाहिए लेकिन पिछले जजमेंट में इनको ओबीसी के साथ आरक्षण की बात हुई थी जिसका किन्नर समाज ने स्वागत नहीं किया था।
15 अप्रैल 2014 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने दिए गए फैसले में में किन्नरों को ओबीसी वर्ग में रखते हुए उन्हें आर्थिक सामाजिक रूप से सशक्त बनाने की बात कहीं। इसके लिए माननीय उच्चतम न्यायालय ने राज्य व केंद्र सरकार को निर्देशित किया कि गवर्नमेंट सेक्टर से जुड़े हुए संस्था में उन्हें आरक्षण का लाभ देकर रोज़गार के अवसर प्रदान किये जायें। उच्चतम न्यायालय ने 9 बिंदुओं पर केंद्र व राज्य को कार्य करने के लिए कहा जिसमे मुख्यतः मुख्य धारा के लोगो को लिंगभेद के प्रति जागरूक किया जाए जिससे कल्याणकारी योजनाएं थर्ड जेण्डर के लिए लागू की जाए लिंग भेद के आधार पर उन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित न किया जाए। समस्त संस्थापकों के दरवाजे उनके लिये खोले जाए।
न्याय पालिका के निर्देशों का पालन करते हुए भारत की कार्यपालिका ने अगस्त 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित किया जिसमें उन्हें बहुत सारी सुविधाये मिली लेकिन उनको स्वलिंग की पहचान नहीं मिली जिससे वो इनसे सहमत नहीं हुए।
पहले से ट्रांसजेंडर की पहचान प्राप्त करने के लिए आवेदन इसके पश्चात डॉक्टर की निगरानी में शल्य चिकित्सा से गुज़रना पड़ता है इसके पश्चात डॉक्टर की रिपोर्ट पर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उन्हें पुरुष या स्त्री होने का सर्टिफिकेट जारी करता है। जिसका दोष आरक्षण की अनिवार्य व्यवस्था का न होना। बिल का तीसरा दोष लिंग के आधार पर भेदभाव था। जिसके तहत ट्रांसजेंडर को जब कोई अपमानित करता है तो दण्ड के फलस्वरूप अपराधी को न्यूनतम छः माह की जेल हो सकती है 
दूसरी तरफ कोई भी ट्रांसजेंडर किसी भी बच्चे को गोद नही ले सकती क्योंकि यह डर रहता था कि अगर यह उरुष ट्रांसजेंडर हुआ तो उस बच्चे का यौनिक दोहन करेगा जबकि स्त्री ट्रांसजेंडर को देने के लिए सरकार राज़ी होती है।
इस फेसबुक लाइव में ट्रांस जेण्डर को नहीं है पूरे अधिकार- मोहम्मद शमीम

वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के व्याख्यान माला के अंतर्गत आज फेसबुक लाइव में हलीम मुस्लिम पीजी कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के डॉ. मोहम्मद शमीम ने "थर्ड जेंडर के संवैधानिक अधिकार" के तहत अपने विचार रखे जिसमे उन्होंने भारत मे किन्नरों के अधिकार का व्यवहारिक रूप क्या है और संवैधानिक रूप का विश्लेषण करते हुए बताया कि अभी भारतीय संविधान में किन्नर समाज के अधिकारों को और अधिक विस्तार करने की आवश्यकता है जिस प्रकार से यूरोप तथा दूसरे देशों में किन्नरों को  अच्छे संवैधानिक अधिकार है भारत की तुलना में उनको भी यहां पर बराबर का दर्जा मिलना चाहिए इस सम्बंध में उन्होंने भारत के मूल अधिकारों का भी ज़िक्र किया कि जिस प्रकार से यहां पर स्त्री-पुरुष के अधिकार है ठीक उसी प्रकार से लैंगिक विकृति के कारण इनको भी जेण्डर आधार आरक्षण मिलना चाहिए लेकिन पिछले जजमेंट में इनको ओबीसी के साथ आरक्षण की बात हुई थी जिसका किन्नर समाज ने स्वागत नहीं किया था।
15 अप्रैल 2014 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने दिए गए फैसले में में किन्नरों को ओबीसी वर्ग में रखते हुए उन्हें आर्थिक सामाजिक रूप से सशक्त बनाने की बात कहीं। इसके लिए माननीय उच्चतम न्यायालय ने राज्य व केंद्र सरकार को निर्देशित किया कि गवर्नमेंट सेक्टर से जुड़े हुए संस्था में उन्हें आरक्षण का लाभ देकर रोज़गार के अवसर प्रदान किये जायें। उच्चतम न्यायालय ने 9 बिंदुओं पर केंद्र व राज्य को कार्य करने के लिए कहा जिसमे मुख्यतः मुख्य धारा के लोगो को लिंगभेद के प्रति जागरूक किया जाए जिससे कल्याणकारी योजनाएं थर्ड जेण्डर के लिए लागू की जाए लिंग भेद के आधार पर उन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित न किया जाए। समस्त संस्थापकों के दरवाजे उनके लिये खोले जाए।
न्याय पालिका के निर्देशों का पालन करते हुए भारत की कार्यपालिका ने अगस्त 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित किया जिसमें उन्हें बहुत सारी सुविधाये मिली लेकिन उनको स्वलिंग की पहचान नहीं मिली जिससे वो इनसे सहमत नहीं हुए।
पहले से ट्रांसजेंडर की पहचान प्राप्त करने के लिए आवेदन इसके पश्चात डॉक्टर की निगरानी में शल्य चिकित्सा से गुज़रना पड़ता है इसके पश्चात डॉक्टर की रिपोर्ट पर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उन्हें पुरुष या स्त्री होने का सर्टिफिकेट जारी करता है। जिसका दोष आरक्षण की अनिवार्य व्यवस्था का न होना। बिल का तीसरा दोष लिंग के आधार पर भेदभाव था। जिसके तहत ट्रांसजेंडर को जब कोई अपमानित करता है तो दण्ड के फलस्वरूप अपराधी को न्यूनतम छः माह की जेल हो सकती है 
दूसरी तरफ कोई भी ट्रांसजेंडर किसी भी बच्चे को गोद नही ले सकती क्योंकि यह डर रहता था कि अगर यह उरुष ट्रांसजेंडर हुआ तो उस बच्चे का यौनिक दोहन करेगा जबकि स्त्री ट्रांसजेंडर को देने के लिए सरकार राज़ी होती हैट्रांस जेण्डर को नहीं है पूरे अधिकार- मोहम्मद शमीम

वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के व्याख्यान माला के अंतर्गत आज फेसबुक लाइव में हलीम मुस्लिम पीजी कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के डॉ. मोहम्मद शमीम ने "थर्ड जेंडर के संवैधानिक अधिकार" के तहत अपने विचार रखे जिसमे उन्होंने भारत मे किन्नरों के अधिकार का व्यवहारिक रूप क्या है और संवैधानिक रूप का विश्लेषण करते हुए बताया कि अभी भारतीय संविधान में किन्नर समाज के अधिकारों को और अधिक विस्तार करने की आवश्यकता है जिस प्रकार से यूरोप तथा दूसरे देशों में किन्नरों को  अच्छे संवैधानिक अधिकार है भारत की तुलना में उनको भी यहां पर बराबर का दर्जा मिलना चाहिए इस सम्बंध में उन्होंने भारत के मूल अधिकारों का भी ज़िक्र किया कि जिस प्रकार से यहां पर स्त्री-पुरुष के अधिकार है ठीक उसी प्रकार से लैंगिक विकृति के कारण इनको भी जेण्डर आधार आरक्षण मिलना चाहिए लेकिन पिछले जजमेंट में इनको ओबीसी के साथ आरक्षण की बात हुई थी जिसका किन्नर समाज ने स्वागत नहीं किया था।
15 अप्रैल 2014 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने दिए गए फैसले में में किन्नरों को ओबीसी वर्ग में रखते हुए उन्हें आर्थिक सामाजिक रूप से सशक्त बनाने की बात कहीं। इसके लिए माननीय उच्चतम न्यायालय ने राज्य व केंद्र सरकार को निर्देशित किया कि गवर्नमेंट सेक्टर से जुड़े हुए संस्था में उन्हें आरक्षण का लाभ देकर रोज़गार के अवसर प्रदान किये जायें। उच्चतम न्यायालय ने 9 बिंदुओं पर केंद्र व राज्य को कार्य करने के लिए कहा जिसमे मुख्यतः मुख्य धारा के लोगो को लिंगभेद के प्रति जागरूक किया जाए जिससे कल्याणकारी योजनाएं थर्ड जेण्डर के लिए लागू की जाए लिंग भेद के आधार पर उन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित न किया जाए। समस्त संस्थापकों के दरवाजे उनके लिये खोले जाए।
न्याय पालिका के निर्देशों का पालन करते हुए भारत की कार्यपालिका ने अगस्त 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित किया जिसमें उन्हें बहुत सारी सुविधाये मिली लेकिन उनको स्वलिंग की पहचान नहीं मिली जिससे वो इनसे सहमत नहीं हुए।
पहले से ट्रांसजेंडर की पहचान प्राप्त करने के लिए आवेदन इसके पश्चात डॉक्टर की निगरानी में शल्य चिकित्सा से गुज़रना पड़ता है इसके पश्चात डॉक्टर की रिपोर्ट पर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उन्हें पुरुष या स्त्री होने का सर्टिफिकेट जारी करता है। जिसका दोष आरक्षण की अनिवार्य व्यवस्था का न होना। बिल का तीसरा दोष लिंग के आधार पर भेदभाव था। जिसके तहत ट्रांसजेंडर को जब कोई अपमानित करता है तो दण्ड के फलस्वरूप अपराधी को न्यूनतम छः माह की जेल हो सकती है 
दूसरी तरफ कोई भी ट्रांसजेंडर किसी भी बच्चे को गोद नही ले सकती क्योंकि यह डर रहता था कि अगर यह उरुष ट्रांसजेंडर हुआ तो उस बच्चे का यौनिक दोहन करेगा जबकि स्त्री ट्रांसजेंडर को देने के लिए सरकार राज़ी होती है 
प्रिंसिपल डॉ तनवीर अख्तर, डॉ लता अग्रवाल, डॉ मुश्तक़ीम, डॉ शमा नाहिद, डॉ पांडेय, इरशाद हुसैन, डॉ रमाकांत राय, डॉ गौरव तिवारी, डॉ शगुफ्ता, डॉ भारती अग्रवाल, कामिनी कुमारी,  मनीष कुमार, रिंक्की कुमारी, दीपांकर, मनीषा महंत, मिलन, पंकज बाजपेयी, एवं 
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन भी शामिल थे। 
इस कार्यक्रम को अगर आपको यूट्यूब पर सुनना है तो आप AKRAM HUSSAIN QADRI के यूट्यूब चैनल पर भी सुन सकते है

https://youtu.be/NDB6m6N7At4
थर्ड जेंडर को प्राप्त संवैधानिक अधिकार के तहत सुनिए डॉ. शमीम अहमद सर को वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के फेसबुक लाइव पेज पर

गुरुवार, 14 मई 2020

प्रवासी मज़दूर रोड़ पर कराहते हुए- अकरम क़ादरी

प्रवासी मज़दूरों का इस विकट परिस्थिति में हमदर्द कौन- अकरम क़ादरी

प्रवासी मज़दूर नाम सुनते ही शरीर मे एक अजीब सी सिहरन उठने लगती है आखिर क्यों ना उठे क्योंकि प्रवास और गिरमिटिया मज़दूरों का रिश्ता भारत का बहुत पुराना है विदेशी सरज़मीं पर हिंदुस्तान से अनेक गिरमिटिया मज़दूर दास प्रथा के अंतर्गत भारत से बाहर ले जाये गए जहां पर उनसे हाड़ मास कंपा देने वाला काम लिया गया और बदले में उनको जीने भर का राशन दिया गया, उनकी महिलाओं के साथ व्यभिचार किया गया उसके बाद भी वो विदेश की धरती में स्वयं को झोंके रहे। आज वही भारतवंशी कैरिबियाई देशों के अलावा जिस भी देश मे रह रहे है वहां का झण्डा बुलन्द कर रहे है और उनकी पीढ़ियों में भी भारतीयता की झलक साफ दिखाई पड़ती है क्योंकि वो उनका मन मस्तिष्क तो आधुनिक है लेकिन डीएनए आज भी भारतीय है जिसमे भारतीय संस्कार, संस्कृति, भाषा अपना स्थान यथाचित बनाये हुए है जिसको देखकर भारतीय होने पर गर्व महसूस होता है। 
वर्तमान समय मे भारत मे प्रवासी मज़दूरों की कराहियत देखने को मिल रही है जिसको अंग्रेज़ी दां लोग माइग्रेंट लेबरर कहते है। आखिर क्यों कहा जाता है इनको माइग्रेंट लेबर क्योंकि यह वही लोग है जो अपने गाँव, मोहल्ले, देहात और कस्बो को छोड़कर शहर की तरफ रोज़गार के लिए अपने बच्चों को लेकर चल दिए थे जहां पर ना ही इनको भरपूर आराम है और ना ही इनको खाने पीने की पूरी सहूलियत बल्कि पेट की आग बुझाने के लिए थोड़ा बहुत कमा रहे है उनके बच्चे एजुकेशन से मुक्त हो रहे है उनकी शिक्षा- दीक्षा भी नहीं हो पा रही है। पूरा परिवार मिलकर काम करता है तो कुछ खाना खर्चा करने के बाद थोड़ा बहुत अच्छे-बुरे वक्त के लिए बच जाता है जिसको मैं अपनी सामाजिक कार्यो की ज़िम्मेदारी बच्चों की शादी ब्याह तथा अचानक किसी परेशानी में आने पर उपचार की व्यवस्था हो सके। 
भारत मे जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से भारत का मज़दूर वर्ग अपने घर पर जाने के लिए छटपटा रहा है जिसको सरकार द्वारा कुछ मामूली सी सुविधाएं मिल रही है लेकिन इससे उसका पूरा नहीं पड़ रहा है बल्कि वो दिन वा दिन काफी परेशानियों से दो-चार हो रहा है लॉकडाउन में जब तक उसके पास पैसा था तो वो जहां पर काम कर रहा था वही पर रुककर पालन करता रहा और जब पैसा खत्म हुआ तो उसके बाद गैर सरकारी संस्थाओं से मदद पहुंचती रही है जिसके माध्यम से वो अपने देश की सरकार का पालन करता रहा जब वहां से भी मदद पहुंचना बन्द हुई या फिर कम हुई तो कुछ सरकारों ने भी मदद पहुंचाई जो उसके लिए पूरी नहीं थी  ऐसे ही लॉकडाउन के एक, दो, तीन चरण निकल गए ।
तीसरे लॉक डाउन से प्रवासी मज़दूरों में अजीब से व्याकुलता नज़र आने लगी क्योंकि जो सरकारे ने उनसे वादे किए थे वो उनपर खरा नहीं उतर पाई उनको काफी तकलीफों का सामना करना पड़ा गाहे-बगाहे ऐसी वीडियोस और खबरे आती रही है कि देश के मज़दूर कई जगह परेशान है और उनको खाने की भी दिक्कत हो रही है जिसके कारण वो अपने स्थान से पलायन करने लगे और पैदल ही सड़को पर निकल आये जिसका नज़ारा हमने आनंद बिहार, अहमदाबाद और मुम्बई  जैसे इलाको में देखा उसके अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी खबरे लगातार मिल रही है। 
प्रवासी मज़दूरों को सड़कों पर गैर सरकारी संस्थाएं खाना खिला रही है उनको उपचार के लिए दवाएं मुहैय्या करा रही है उनको पानी की व्यवस्था कर रही है उसके अलावा कुछ सामान बांधकर भी बिस्कुट बगैरा दे रहे है जिससे मज़दूर अपने घर पर पहुंच जाए। वर्तमान स्थिति में सरकारो के फेल होने की खबरे आम हो चुकी है कोरोना से सबको डर लग रहा है लेकिन जब वो भुखमरी से मरने लगे तब उनको प्रतीत हुआ कि अब मरना ही है तो क्यों ना घर जाकर ही मरे इसलिए वो परेशानी में अनेक कठिनाइयों को सहन करके निकल पड़े है जिसपर उनको निकटवर्ती शहर के स्कूल, बारात घर मे क्वारंटाइन किया जा रहा है जबकि छात्र, छात्राओं को उनके घर पर ही 14 से 21 दिन तक के लिए होम क्वारंटाइन किया गया है, गौरतलब बात यह है कि जितने भी दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करने वाले लोग है उनमें सबसे ज्यादा हिंदी हार्टलैंड या हिंदी प्रदेशो के ही लोग है जो अपने प्रदेश में धर्म, मज़हब, जाति पर वोट देते है और दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करते है और दो वक्त की रोटी का इंतेज़ाम करते है।
मौजूदा पत्रकारों में अनेक ऐसे पत्रकार भी देखने को मिले है जिन्होंने मज़दूरों की पीड़ा को देखते हुए अपने साथ बिस्कुट, पानी और नमकीन जैसी चीज़े भी बांटी तथा अपने कार्य को भी ज़िम्मेदारी से निभाकर मज़दूरों की हालत को भारत के सामने रखा आखिर वो कितनी दिक्कतों का सामना कर रहे है। कई पत्रकारों को देखा जो रिपोर्टिंग करते करते भावुक भी हुए और कई को सामने रोते हुए भी देखा है। कुछ ऐसे भी मंज़र सामने आए है कि पत्रकारों ने अपनी चप्पलें और जूते तक प्रवासी मज़दूरों को दे दी है आखिर पत्रकार का भी हृदय भावुक और संवेदनशील होता है। 
जिसमे वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त, एन. डी.टी.वी. के शोहित मिश्रा और बीबीसी के सलमान रावी को देखकर आंख से आंसू आ जाते है जो मज़दूरों के दर्द को अपने मुख से बयान करते करते रो रहे थे जबकि दूसरी तरफ मज़दूरों के पैरों में पड़े छाले इस बात की तस्दीक कर रहे थे कि आखिर वो कैसे अपने घर आये है

अकरम हुसैन
शोधार्थी 
एएमयू अलीगढ़

विकलांगता के दायरे से बाहर किन्नर-विमर्श - डॉ. भारती अग्रवाल

विकलांगता के दायरे से बाहर किन्नर विमर्श  डॉ. भारती अग्रवाल
लॉकडाउन ने शारारिक दूरी को बढ़ावा तो दिया है पर सामाजिक दूरी को कम कर दिया है। इस समय हम सोशल मीडिया के द्वारा अधिक जुड़ाव महसुस हो रहा है। लगातार साहित्यिक विषयों की चर्चा ने सोशल मीडिया को और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। वाङमय पत्रिका से सम्पादक फ़िरोज भाई ने दस दिन की वेब संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी के केन्द्र में किन्नर विमर्श रहा। अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने इस विषय पर अपने विचारों से अवगत कराया। दिल्ली विश्वविद्यालय की साहयक प्रोफेसर डॉ. भारती अग्रवाल ने किन्नर विमर्श पर बात रखते हुए यह साफ किया कि किन्नर को किसी भी तरह यौन विकलांग नहीं कहा जा सकता। यद्यपि फेस बुक पर अनेक व्याख्यान माला चल रहीं हैं जहाँ किन्नरों को यौन विकलांग कहा जा रहा है तथा उन्हें यौन विकलागंता की श्रेणी में ऱखने की बात की जा रही है। चित्रा मुदगल अपने उपन्यास नाला सोपारा में भी यौन विकलांगता का जिक्र करती हैं जबकि स्वयं किन्नर वर्ग इस विकलांगता को सिरे से खारिज करते हैं। साथ ही किसी भी तरह के विकलांग आरक्षण का विरोध करते हैं।
किन्नर विकलांग हैं या नहीं इस स्थिति को समझने के लिए हमें अंग्रेजी के एल. जी. बी. टी. आई. क्यू को समझना होगा। भारतीय समाज में इस टर्म के लिए एक शभ्द है हिजड़ा या फिर किन्नर। इसे अंग्रेजी के टर्म से ही समझा जा सकता है। सब जानते ही होगें कि एल. माने लेस्बियन जी. माने गे बी. माने बॉयोसेक्सुल आई. माने इंटरसेक्स। यह इंटरसेक्स समाज में उलझा हुआ है। इंटरसेक्स का अर्थ होता है वह प्राणी जो एक साथ दो जनांगों को ग्रहण करता है अथार्त वह शुक्राणु और अंडकोश साथ-साथ ग्रहण करता है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जैसे किसी व्यक्ति का होंठ कटा हो या ऊपर का होंठ नाक से मिला हो तो उसे हम विकलांग नहीं कह सकते। इसी प्रकार इंटरसेक्स को भी विकलांग नहीं कह सकते। गूगल की एक रिपोर्ट के अनुसार दो हजार में से एक व्यक्ति इंटरसेक्स होता है।
                                   साहयक व्याख्याता डॉ. भारती अग्रवाल ने किन्नरों के बारे में फैले अंधविश्वास का निराकरण करने की भी कोशिश की। उन्होंने कहा जब तक किन्नर समाज जन-साधरण से सम्पर्क नहीं साधेगा यह अंधविश्वास दूर नहीं हो पायेंगें। सबसे बड़ी भ्रांति किन्नरों की मृत्यु को लेकर है। ऐसा माना जाता है कि जब किन्नर की मृत्यु हो जाती है तो उसके शव को सफेद कपड़े में बाँध कर क्रॉस पर लटका दिया जाता है फिर शव को जूतियों से मारा जाता है। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। किन्नर भी हमारी तरह इंसान होते हैं। इनकी भी भावनाएँ होती हैं। सुख-दुख होता है। ऐसी स्थिति में किसी के शव को भी किस तरह लटकाया जा सकता है या फिर जूतियों से मारते हुए ले जाया जा सकता है। यदि किन्नर अपने परिवार से जुड़े होते हैं तो शव किन्नर के परिवार को सौंप दिया जाता है फिर परिवार अपने धर्म, रीति-रिवाजों के अनुसार दाह-संस्कार करता है या दफनाता है। यदि किसी का परिवार किन्नर को नहीं अपनाता तो किन्नर के गुरु की जाति, धर्म के अनुसार उसका क्रिया-कर्म किया जाता है।
                                 किन्नर समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए सबसे पहले परिवार को आगे आना होगा। जब तक परिवार अपने बच्चों को नहीं अपनायेगा तब तक कुछ भी सुधार संभव नहीं। जितने प्रतिष्ठित किन्नर हैं अधिकतर सभी को परिवार का सहयोग प्राप्त है। जब परिवार बच्चे को समाज की दृष्टि से देखना शुरु करता है विडम्बनाएँ और त्रासदियाँ वहीं से शुरु हो जाती हैं। बच्चा खुद को एलियन समझने लगता है। उसे परिवार और समाज से शारारिक और मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इन सब से तंग आकर वह स्वयं घर छोड़ कर चला जाता है। ऐसी स्थिति में उनके पास केवल तीन काम बचते हैं। बधाई, नेग, नाच-गाना, भीख माँगना, शेक्स वर्कर के रुप में काम करना। यदि इन पारम्परिक कार्यों से बाहर हमें किन्नर समाज को देखना है तो आगे आकर हाथ बढ़ाना होगा।
            फेसबुक लाइव में प्रिंसिपल डॉ. तनवीर अहमद, डॉ. इरशाद हुसैन, डॉ. मुस्तकीम, डॉ. विजेंद्र, डॉ. अनवर हुसैन सिद्दीकी वर्धा, डॉ. लवदेश दत्त, अंजू गुप्ता, श्रेया अग्रवाल, डॉ. लता अग्रवाल, डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, विजय अग्रवाल, डॉ. शमीम, माई मनीषा महंत, डॉ. संध्या गर्ग, अनिल अग्रवाल, डॉ. फिरोज़ अहमद,अनुसंधान पत्रिका की संपादक डॉ. शगुफ्ता नियाज़ बहुत से शोधार्थी तथा वाङमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन के साथ अनेक देश विदेश से लोग लाइव हुए। फिरोज़ भाई का यह काम अत्यंत सराहनीय है।
                       इस प्रोग्राम को लाइव सुनने के लिए भी vangmya ptrika hindi के पेज पर लाइव सुना जा सकता है और यूट्यूब पर AKRAM HUSSAIN QADRI के चैनल को सब्सक्राइव करके भी दोबारा इस कार्यक्रम को सुना जा सकता है।

https://youtu.be/if36_ps2Bw4
सुनिए दिल्ली विश्वविद्यालय के स्वामी श्रद्धानंद विद्यालय की डॉ. भारती अग्रवाल को जिन्होंने किन्नर विमर्श को नए सिरे से परिभाषित करने का प्रयत्न किया है.... 
चैनल को लाइक, शेयर, कमेंट और सब्सक्राइब करें और साहित्य से सम्बंधित नई नई जानकारी प्राप्त करे

बुधवार, 13 मई 2020

लैंगिकता नहीं मानवता को तरजीह दे समाज - गौरव तिवारी

लैंगिकता नहीं मानवता को तरजीह दे समाज- गौरव तिवारी

किन्नरों की विपन्न स्थिति का कारण उनकी लैंगिक विकलांगता है। जिस प्रकार स्त्री को उसकी उस यौनिक पहचान से जो उसे हम , बिस्तर, मनोरंजन या सेवा की वस्तु मात्र समझती थी, से मुक्त करके समाज की मुख्य धारा में लाया गया उसी प्रकार किन्नरों को उनकी लैंगिक विकलांगता के दायरे से निकालकर देखने से ही उनकी स्थिति में सुधार किया जा सकता है।समाज और सरकार द्वारा उन्हें अगर लैंगिक विकलांग के रूप में देखा जाय तो उनके प्रति संवेदनशीलता के साथ न्याय किया जा सकता है। उक्त बातें वाङ्गमय प्रकाशन की अनुसंधान पत्रिका के फेसबुक पृष्ठ पर आयोजित व्याख्यानमाला के अंतर्गत "त्रासदी की संवेदना अर्थात किन्नर जीवन" पर बोलते हुए बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कुशीनगर के डॉ गौरव तिवारी ने कहीं। 
उन्होंने कहा कि किन्नरों को जीवन एक बंद समाज का जीवन है। बंद समाज के बारे में शेष समाज के लोगों में अनेक शंकाएं, जिज्ञासाएँ और अफवाहें होती हैं। जबतक इस समाज के विविध पहलुओं पर समाज में संवेदनशील चर्चा नहीं होगी, तबतक इस समाज को ठीक से समझा नहीं जा सकेगा। किन्नरों पर आई कविताएं, उपन्यास और कहानियां और उनकी समीक्षाएँ इस दिशा में सकारात्मक माहौल के निर्माण का कार्य कर रही हैं।
डॉ गौरव ने कहा कि किन्नर जीवन जबतक अपनी यौनिक विकृति को अपनी पहचान बनाकर ढोता रहेगा तबतक वह इससे मुक्त नहीं हो सकता।  इनकी यौनिक विकृति के अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विशिष्टता सामान्य मनुष्यों के समान होती है। लेकिन ये अपनी शेष सभी विशिष्टताओं को इस विकलांगता या विकृति से मुक्त नहीं कर पाते इसीलिए यह समस्या बनी हुई है।
डॉ गौरव ने किन्नरों के समाज के विविध पहलुओं की भी चर्चा की और बताया कि रामायण और महाभारत काल में भी अपनी उपस्थिति दर्शाता हुआ यह समाज अपनी भावनात्मक संवेदनशीलता के बावजूद आज प्रायः नकारात्मक निगाहों से इसलिए देखा जाता है क्योंकि इनमें से एक वर्ग अपनी उजड्डता और उत्शृंखलता को अपना अधिकार समझ बैठा है। और इसे अपने रोजगार से जोड़ रहा है।
अपने व्याख्यान में डॉ गौरव ने तीसरी ताली और पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा को एक दूसरे के पूरक उपन्यास के रूप में पढ़ने की बात की और कहा कि तीसरी ताली में जहाँ  किन्नरों की ऐतिहासिकता से लेकर उनके जीवन, संघर्ष उनके प्रेम, झगड़े, उजड्डता , गद्दी, पीठ, संगठन आदि प्रायः प्रत्येक पहलुओं पर चर्चा हुई है वहीं नाला सोपारा में इस समस्या से मुक्ति के उपायों को तलाशने का प्रयास हुआ है।
व्याख्यान के आरम्भ में प्रसिद्ध आलोचक प्रो नन्द किशोर नवल जी के दुःखद निधन पर वक्ता, वाङ्गमय प्रकाशन और अनुसंधान पत्रिका की ओर से शोक संवेदना व्यक्त किया गया।
फेसबुक लाइव में  डॉ. लवलेश दत्त, 'अनुसंधान' पत्रिका की संपादक डॉ. शगुफ्ता नियाज़, एएमयू हिंदी विभाग के प्रोफेसर मेराज अहमद,  प्रोफेसर कमलानंद झा एवं डॉ. शमीम, डॉ. ए. के पाण्डेय, प्रिंसिपल तनवीर अहमद, विकास प्रकाशन कानपुर के पंकज शर्मा, डॉ. रमाकांत राय, डॉ. लता अग्रवाल, डॉ. रमेश कुमार, माई मनीषा महन्त जी, मनीषा गुप्ता,  बहुत से शोधार्थी तथा वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन, के साथ साथ देश विदेश के  अनेक रचनाकर इस फेसबुक लाइव में शामिल हुए 
इस प्रोग्राम को लाइव सुनने के लिए भी vangmya ptrika hindi के पेज पर जाकर लाइव सुना जा सकता है और यूट्यूब पर AKRAM HUSSAIN QADRI के चैनल को सब्सक्राइब करके भी दोबारा इस कार्यक्रम को सुना जा सकता है

https://youtu.be/NUtoVISU-2Q
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महामारी में कैसे रच दी पांच पुस्तकें- शाबान ख़ान

 
कासगंज: मुझे एक मित्र ने बताया कि एक अध्यापक ने इस लॉकडाउन में पांच किताबें लिख डाली। मुझे सुनकर हैरत हुई कि ऐसे नकारात्मकता भरे माहौल में कोई लेखन कर सकता है? वो भी साहित्यिक! ज़ाहिर है कि किताबें लिखना अथवा रचना करना कोई सहज काम नहीं है। लेखन के विषय मे धारण यही है कि व्यक्ति जब अपार शांति में हो अथवा ह्रदय पर चोट खाकर घायल हो तभी वह सृजन कर सकता है। पर पांच किताबें लिखने की घटना से अनुभव हुआ कि "आह से निकला होगा गान" की पुरानी अवधारणा टूट रही है।
      बहरहाल मै स्वयं इस पर विचार करने लगा कि देश मे महामारी की भयावह स्थिति बनी हुई है, शरीर एक मुख़तसर कमरे में क़ैद है, कल्पनाएँ आज़ाद है और मन व्याकुल और व्यथित है। इन दिनों मैं चाहकर भी एक लेख न लिख सका। जब भी लिखने बैठता तो कारोना पॉजिटिव और मजदूरों के संकटों की खबरों से अशांत हो जाता। अशांति या पीड़ा से काव्य तो रचना जा सकता है परंतु उसकी समीक्षा नहीं की जा सकती है। पर जब चिंतन की गहराई में धंसा तो धस्ता ही चला गया और जब बाहर निकला तो साथ में कुछ सवालों के जवाब भी लेकर लौटा।
      क्या इस लॉकडाउन में हम अपना काम नहीं कर सकते? बिल्कुल कर सकते हैं। विद्यार्थी पढ़ाई कर सकते हैं, शोधार्थी अपना शोध प्रबंध लिख सकते हैं, इंजीनियर नई इमारत की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं, बॉक्सर नए स्किल डेवलप कर सकते हैं। मने कि हम सबकुछ तो कर सकते हैं। माना कि वर्तमान स्थिति में फुटबॉलर, फुटबॉल नहीं खेल सकता, क्रिकेटर क्रिकेट की प्रैक्टिस नहीं कर सकता, धावक अपनी रेस पूरी नहीं कर सकता। पर घर बैठकर विचार कर सकता है। बॉलर इस पर विचार करे कि बॉलिंग की लाइन कैसे सही करे और फुटबॉलर गोल करने की नई ट्रिक खोज सकता है। मतलब इस लॉकडाउन में बिना नियम तोड़े और बिना कानून भंग किए हर काम किया जा सकता है। विद्यार्थियों को अपने पिछले वर्ष के अंकों पर विचार करना चाहिये और जाने कि आख़िर कमी कहाँ रह गई थी? जिन विषयों में कमज़ोर हैं उन्हें ढंग से तैयार करें। पर हो इसके बिल्कुल विपरीत रहा है।
      लॉकडाउन में ज्यादातर कंपनियां घाटे में हैं या बंद होने के कगार पर है। पर टेलीकॉम कंपनियों के साथ ऐसा नहीं हैं उनकी स्थिति वही है जो पहले थी। इसका कारण है कि उपभोक्ताओं द्वारा इंटरनेट का अधिक प्रयोग किया जाना। लॉकडाउन के भूत से हम इस कदर डरे हुए हैं कि काम को एक किनारें रखकर दूसरे फ़िजूल के कामों में उलझ गए। अपने काम, पेशे या कर्तव्य से विमुख हो गए और मन को बहलाने के लिये इस तर्क का सहारा ले रहे है कि लॉकडाउन है घर से निकल नहीं सकते, स्कूल जा नहीं सकते, ऑफिस जा नहीं सकते। पर गौर करने वाली बात यह है कि हम अपने मुख्य पेशे या काम को छोड़कर दूसरे काम में ही लगे हैं। मसलन टाइम पास करने के लिये फिल्में देख रहे हैं, मोबाइल पर गेम खेल रहे हैं। लेकिन काम तो फिर भी कर रहे हैं, पर उस काम को छोड़कर जो हमारा मुख्य काम है या रोज़गार का साधन है। ये सब मध्यम वर्ग के साथ हो रहा है।
       मध्यवर्गीय समाज इस लॉकडाउन में हॉटस्टार, नेटफिलिक्स, ज़ी थ्री, यूट्यूब पर वेब सीरीज़ या फिल्में देख रहाहै। विद्यार्थियों का लेवल ही दूसरा है वो सामान्य स्थिति में भी अलग दुनिया में विचरण करते थे, आजकल तो दिन रात पबजी की फैंटेसी में खोए हुए हैं। इस लॉकडाउन में स्ट्रीमिंग, गेम और इन्टरटेंटमेंट की ऐप्स की डाउनलोडिंग में भारी बढोत्तरी दर्ज की गई है। भारत में इस ऐप का सब्सक्रिप्शन सबसे अधिक हुआ है। युवा पीढ़ी पहले ही मोबाइल पर चिपकी रहती थी, अब तो और अधिक डूबी हुई है क्यों?  स्कूल - कॉलेज और ऑफिस जाना नहीं है। पर क्या सच में इस लॉकडाउन में हम अपना काम नहीं कर सकते हैं? विचार करो तो रास्ते अवश्य निकल सकते हैं। लॉकडाउन हुआ है पर हाथों और मन पर बेड़ियां नहीं डाली गईं हैं, इसलिए लॉकडाउन का रोना मत रोइये बल्कि इस पर विचार करें कि हम अपना काम कैसे करें।
एम.शाबान ख़ान 
शोधार्थी (एएमयू अलीगढ़)
(लेखक के निजी विचार हैं)

मंगलवार, 12 मई 2020

थर्ड जेण्डर को मुख्यधारा में लाने के लिए समाज और निजी क्षेत्र को आगे आना होगा- डॉ. लवलेश दत्त

थर्ड जेण्डर को मुख्यधारा में लाने के लिए समाज और निजी क्षेत्र को आगे आना होगा- डॉ. लवलेश दत्त
https://youtu.be/9ww_2vuj3Mo (फेसबुक लाइव पूरा सुनने के लिए इस यूट्यूब लिंक पर क्लिक कीजिए)


लॉकडाउन के चलते सभी प्रकार के साहित्यिक क्रिया कलाप रुक जाने से टेक्नोलॉजी ने उन क्रिया कलापों को ज़ारी रखने के लिए वरदान दिया है, फिर समय भी तो कभी रुकता नही है। निश्चित ही इस महामारी का अंत होगा। साहित्य जगत की चर्चित "वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी" पत्रिका के माध्यम से दस दिवसीय व्याख्यान माला के अंतर्गत "हमारा समाज और थर्ड जेंडर" विषय पर वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के फेसबुक पेज से लाइव कार्यक्रम में आज दूसरे दिन चर्चित साहित्यकार डॉ. लवलेश दत्त ने अपने विचार रखे। उन्होंने सबसे पहले किन्नर समुदाय की पौराणिक मान्यताओं को बताया। उन्होंने कहा कि थर्ड जेंडर विमर्श सबसे पहले फिल्मों में आया और फिर साहित्य में। साहित्य में इस विमर्श पर उल्लेखनीय काम हो रहा है। लगभग 20 उपन्यास और कई कहानियाँ इस विषय पर आ चुकी हैं। उन्होंने कहा कि साहित्य में आकर ही कोई विमर्श कालजयी बन जाता है। इससे साहित्यकारों का दायित्व और बढ़ जाता है। उन्हें केवल किताबों तक सीमित न रहकर थर्ड जेंडर की स्थिति को सुधारने के लिए समाज में आगे आना होगा। इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को आगे आना होगा और थर्ड जेंडर्स को अपने प्रतिष्ठानों और संस्थानों में नौकरी और रोजगार के अवसर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि थर्ड जेंडर को मुख्य धारा में लाना है तो उनके लिए आरक्षण भी दिया जा सकता है। इसके अलावा मंदिरों में पुजारी, अस्पतालों में सेवा, होटलों, रेस्टोरेंट, प्रेस आदि अनेक क्षेत्रों में नौकरी दिए जाने के लिए कहा। इसी क्रम में उन्होंने इस समुदाय पर लिखे गए अनेक उपन्यासों का विवेचन किया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार से किन्नरों की दशा, उनकी सामाजिक स्थिति, उनकी समस्याएं आदि को उपन्यासों के माध्यम से रचनाकारों ने उठाने का प्रयत्न किया है।
इस फेसबुक लाइव कार्यक्रम को देश-विदेश के अनेक बुद्धिजीवी लाइव देख रहे थे।  इसका उद्देश्य थर्ड जेण्डर विषय पर आम पाठकों और लेखकों की मानसिकता में बदलाव लाना भी था।
फेसबुक लाइव मे 'अनुगुंजन' पत्रिका की पूरी टीम, 'अनुसंधान' पत्रिका की संपादक डॉ. शगुफ्ता नियाज़, ककसाड़ पत्रिका की संपादिका श्रीमती कुसुमलता सिंह, एएमयू हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर शम्भुनाथ तिवारी, डॉ. शमीम, रजनी गुप्ता, डॉ. ए. के पाण्डेय, प्रिंसिपल तनवीर अहमद, विकास प्रकाशन, कानपुर के पंकज शर्मा, मनीषा गुप्ता तथा वाङ्मय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन के साथ बरेली के डॉ पंकज शर्मा, डॉ हितु मिश्रा, विकास शुक्ला, निधि अरोड़ा, डॉ कामरान खान, श्रीमती यामिनी दत्त, श्रीमती कृष्णा दत्त आदि के  अलावा देश विदेश से लगभग 2000 लोगों ने सुना और 100 से ज्यादा लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया भी दी।

सोमवार, 11 मई 2020

थर्ड जेण्डर की पीड़ा को संवाद कायम करके कम किया जा सकता है - डॉ. रमाकान्त राय

थर्ड जेण्डर की पीड़ा को संवाद कायम करके कम किया जा सकता है- डॉ. रमाकान्त राय

लॉकडाउन के चलते सभी प्रकार के साहित्यिक क्रिया कलाप रुक जाने से टेक्नोलॉजी ने उन क्रिया कलापों को ज़ारी रखने के लिए वरदान दिया है, फिर समय भी तो कभी रुकता नही है। निश्चित ही इस महामारी का अंत होगा। साहित्य जगत की चर्चित "वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी" पत्रिका के माध्यम से दस दिवसीय व्याख्यान माला के अंतर्गत आज "थर्ड जेंडर और हिंदी उपन्यास" विषय पर वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के फेसबुक पेज से लाइव कार्यक्रम में डॉ. रमाकान्त राय ने अपने विचार रखे। उन्होंने सबसे पहले किन्नर समुदाय के नामकरण के बारे में विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि हिन्दी समाज को इस समुदाय के लिए अधिक मानवीय, मौलिक और गरिमायुक्त संज्ञा तलाशनी होगी। उन्होंने इस समुदाय पर लिखे गए अनेक साहित्यिक रचनाओं में से सबसे मजबूत विधा उपन्यासों का विवेचन किया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार से किन्नरों की दशा, उनकी सामाजिक स्थिति, उनकी समस्याएं आदि को उपन्यासों के माध्यम से रचनाकारों ने उठाने का प्रयत्न किया है। डॉ रमाकांत राय ने स्थापना दी कि हिन्दी में थर्ड जेंडर समुदाय का विमर्श अन्य उत्तर आधुनिक विमर्शों की तरह आत्मकथा से नहीं, बल्कि उपन्यासों से आया। उन्होंने इस समुदाय से संबंधित सभी चर्चित उपन्यासों का ज़िक्र अपनी वार्ता में किया तथा निष्कर्षतः कहा कि किन्नर समाज की पीड़ा को अगर कम किया जा सकता है तो उसके लिए उनसे संवाद ज़रूरी है। उनके सुख दुःख में शामिल होकर इन दंश को कम किया जा सकता है। उन्होंने रेखांकित किया कि ज्यादातर उपन्यासों में मिलता है कि बचपन में ही इस समुदाय का व्यक्ति सबसे पहले अपने माँ-बाप और खून के रिश्तों से ही प्रताड़ित किये गया है। इस लिहाज से उनकी पीड़ा कितनी अधिक होगी, उसके बाद महन्त, माई जैसे गद्दीनशीन प्रथा में आकर भी उनको अपने पेट की आग को बुझाने के लिए बधाई लेंने जाना पड़ता है। इस तरह उनका जीवन संघर्षों की अकथ कथा है।
अपने वक्तव्य में डॉ. रमाकान्त राय ने एक बहुत ही विचारणीय बात कही कि किन्नर समाज अपने सदस्य का अंतिम संस्कार रात में करता है। उन्होंने विभिन्न संदर्भों से बताया कि उनको रात में ही अंतिम क्रिया के लिए क्यों लाया जाता है और दूसरे किन्नर उनके शव को जूते-चप्पल मारते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि अगले जन्म में इस दुनिया मे इस योनि में नहीं आना होगा। इस अंतिम संस्कार की प्रविधि से आप उनके जीवन के संघर्ष और चुनौतियों को समझ सकते हैं। 
इस फेसबुक लाइव कार्यक्रम को देश-विदेश के अनेक बुद्धिजीवी लाइव देख रहे थे।  इसका उद्देश्य थर्ड जेण्डर विषय पर आम पाठकों और लेखकों की मानसिकता में बदलाव लाना भी था।
फेसबुक लाइव मे 'गुंजन' पत्रिका के संपादक लवलेश दत्त, 'अनुसंधान' पत्रिका की संपादक डॉ. शगुफ्ता नियाज़, एएमयू हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर शम्भुनाथ तिवारी, डॉ. शमीम, रजनी गुप्ता, डॉ. ए. के पाण्डेय, प्रिंसिपल तनवीर अहमद, प्रवासी कथाकार अर्चना पैन्यूली, शैल अग्रवाल, तेजेन्द्र शर्मा, विकास प्रकाशन, कानपुर के पंकज शर्मा, मनीषा गुप्ता तथा वाङ्मय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन के अलावा देश विदेश से लगभग 2500 लोगों ने सुना और 100 से ज्यादा लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया भी दी।

https://youtu.be/VimZNhwUhgI
सुनिए वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका व्याख्यान माला के अंतर्गत थर्ड जेण्डर समाज और हिंदी उपन्यास -  डॉ. रमाकान्त राय
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शनिवार, 9 मई 2020

संवेदनाओं का अंत, तुरंत ट्विटर है ना - सफी नक़वी

ट्विटर की हक़ीक़त और प्रवासी मज़दूरों की पदयात्रा को बयान करती शब्दों से बनी एक तस्वीर.....
पदयात्रा द्वारा मज़दूरों का पलायन गम्भीर विषय है,परंतु चिंतन का भी...कहावत याद आई, कान में तेल डालना अथवा सुनकर भी अनसुना कर देना। वर्तमान में कुछ ऐसा ही हो रहा है,बहुसंख्यक निर्धन प्रवासी मज़दूरों द्वारा हज़ारों मील पदयात्रा करनी पड़ रही है,इसके चलते न तो इनके लिए कोई यातायात के साधन अभी तक सुलभ हुए, न ही कोई अन्य सहायता,अरे बाबू साहिब आपकी अंतरात्मा को क्या दीमक खा गई.....ओरंगाबाद में दुर्भाग्यपूर्ण घटना से सोलह व्यक्तियों की कटकर मौत हो गई,आपको  इस विषय में कुछ पता नहीं..पता तो थी आपको  साहिब पर क्या करते?ट्विटर है ही,ट्विटर तो वर्तमान युग में ऐसा इनके लिए वरदान सिद्ध हुआ कि सभी अभिव्यक्तियों एवं सहानुभूतियों का सशक्त माध्यम यही हो...देश में कुछ भी घटित हो,आपको ट्वीट,रीट्वीट एक से बढ़कर एक अतिश्योक्तियां, शब्दों के बुनेजाल...ऐसे प्रकट होंगे कि मानों शब्दकोश सामने रखकर ही टंकण किया गया हो...अरे साहिब इस ख्याली पुलाव से....औपचारिकता से बाहर आ जाओ... मुझे साहिब बता सकते हो कि क्या उन मज़दूरों की कीमत सिर्फ उतनी ही थी? कि सोफासेट पर विराजमान होनर...मखमली रुएदार गद्दों पर लेटकर....उन असहाय प्रवासियों के प्रति सूखी सहानुभूति प्रकट करें? घिनआती है,ऐसे व्यक्तियों से...अरे आपको मालूम हो कि गरीब कीचड़ में पैर दो वक्त की रोटी के लिए ही डालता है,जिसका यथार्थ,मौलिक, वास्तविक रूप आमजन ने देखा,जिसे जनता जनार्दन कहा जाता है...अर्थात देश की सारी जनता, जो ईश्वर का रूप मानी जाती है...और आपने प्रवासियों का दर्द ट्विटर पर प्रकट कर दिया...इतना ही बहुमूल्य अंतर है,आप में और जनता जनार्दन में वह सूखी रोटी ही उसका जीवन थी तेईस घण्टों की पदयात्रा करके उसे क्या मिला...एक मौत..जो उसके लिए जीवनचर्या से अधिक मूल्यवान् साबित हुई... आपकी फ़र्ज़ी सहानुभूतियों की उसको आवयश्कता नहीं...काशआप इतना समझने योग्य होते कि निम्नवर्गीय मज़दूर,गिरमिटिया मज़दूर, प्रवासी मज़दूर वह तो सिर्फ कोल्हू का बैल है,उसे घर चलाने के लिए...रोज़मर्रा का जीवन व्यतीत करने के लिए एक ग्लास पानी,और दो रोटी चाहिए, तन ठापने के लिए वस्त्र, रहने के लिए साधारण झोपड़ी की आवयश्कता होती है,वह पदयात्रा क्यों करता यदि उसको सभी रोजमर्रा की वस्तुएं उपलब्ध होतीं?साहिब.....आप हैं कि कान पर जूँ तक नहीं रेंगती....उनकी मौत की क़ीमत का आकलन मामूली क़ीमत से लगाया जाता है... मरणोपरांत ही साहिब आपको गरीबों के प्रति  प्रतिक्रिया देनी होती है वह भी ट्विटर पर...ऐसा क्यों? इससे पहले हमारे देश के साहिब चैन की नींद सो रहे होते हैं....एक के बाद एक घटना घटित होती हैं...लखनऊ से मध्यप्रदेश के लिए कर्ज़ लेने हेतु अपने वतन पति-पत्नी और उनके दो मासूम बच्चे साइकिल द्वारा यात्रा करतें है, कुछ की मिनटों में मासूम बच्चे, निशब्द बच्चे, यतीम हो जाते हैं ऐसे ही न जाने बहुसंख्यक निम्नवर्गीय मज़दूरों की दुर्भाग्यपूर्ण घटनायें इस वैश्विक महामारी के समय देखने को मिली...जिसे देखकर कलेजा मुँह को आने लगता है,अरे साहिब जागो,उठो और देखो आखिरकार ये गिरमिटिया मज़दूर, प्रवासी मज़दूर,दिहाड़ी मजदूर,अपने गंतव्य पर क्यों नहीं जा पा रहा? वह क्यों हज़ारो मील पदयात्रा करने को मजबूर है?उसके पीछे क्या नीति है? मैं बताऊं साहिब वह ऐसा क्यों  कर रहा है, वह भूखा है...साहिब भूखा..धन का नहीं साहिब दो वक्त की रोटी का... उसके लिए करो कुछ करो साहिब वरना कोरोना संक्रमण से भयानक भयावह  तस्वीर ऐसे ही निर्धन व्यक्तियों की...आमजन की होगी...जो ईश्वर  का रूप है। कुछ मत सोचों साहिब बस इतना सोचलो ये आपके वोटर हैं साहिब..इन्हें अपने-अपने स्थान पर सुरक्षित भेज दो साहिब.....कोई दो दिन का भूखा है साहिब...कोई महिला गर्भवती है,उसके पैरों  में छाले चलते-चलते कोख में दर्द होता है... वह बेदम है साहिब...और आपकी हमारी तरहं किसी की मां....किसी की बहन...किसी की बहू...किसी की पत्नी है साहिब....इस आपदा की मार हम और आप नहीं इस समय हर एक वह व्यक्ति जो इस तालाबन्दी के कारण बीच रास्ते में फंसा हुआ है, लंबी अवधी के चलते वह यातायात बाधित होने...जेब खाली होने की मार झेल रहा है...ऐसे कष्टों का निवारण शीघ्र हो,सभी को अपना गंतव्य नसीब हो, इस आपदा, महामारी के कारण जन्में भीषण अकाल की कायापलट हो....जाने दो  साहिब आप भी कोरोना योद्धाओं की तरहं अपनी अहम भूमिका दिखा दो पुष्प वर्षा कर आपका भी भव्य स्वागत किया जाए...साहिब वाली जनता को 136 करोड़ जनता मुझसे बेहतर जानती है,उनकी सूची अगर गिनाना आरंभ की जाती तो शब्दों की तस्वीर में बाधा उत्पन होती... इस लेख में भी ट्विटर जैसी बाढ़ आ जाती,ट्विटर वाले साहिब ट्विटर को ही मुबारक़।🙏🙏🙏🙏
      धन्यवाद।
     सफी हसन नक़वी
          शोधार्थी,
   हिंदी विभाग,अमुवि  अलीगढ़।
       
        

आकृति शावेज़ ख़ान

आकृति 
                         द्वारा 
                       शावेज़ ख़ान
                               
खड़ी चढ़ाई वाली काली डामर की सड़क स्ट्रीट लाइट्स से जगमगाती हुई। बारिश के कारण कुछ और काली दीख पढ़ती थी, जो अनायास किसी तेज़ रफ्तार वाहन की हेडलाइट से ऐसे चमक उठती थी, मानो कोई साँप भरी दोपहरी में लहराता हुआ जा रहा हो, इतनी तेज़ कि किसी की नज़र में न आ जाए। आठ बजे टेकरी वाले मंदिर पर मिलने का जो वादा हुआ था अब वह धीरे धीरे धुंधला पड़ता दीख रहा था। हर एक मिनट झुंझलाहट और गुस्से में तब्दील होता जा रहा था... लेकिन कदम टस से मस न हो रहे थे जैसे इस सड़क के बनते वख्त आप यहीं थे। दूर नीचे एक आकृति धीमी-धीमी सी गति में ऊपर की ओर बढ़ रही थी। तब पहली बार महसूस हुआ की कमबख़्त नज़र कमज़ोर होने का क्या नुक्सान है। अब आकृति केवल आकृति न थी, वह सामने थी और हाँफते हुए उसने हाथ उठाकर ज़बरदस्ती चहरे पे लाई हुई एक मुस्कान के साथ कहा "हैलो...! कैसे हो आप!", जी तो चाह रहा था की कह दूँ तुम्हें देखकर ही तो जीता हूँ,  लेकिन ढोंग रचता हुआ बोला 'कि कितनी देर कर दी तुमने, ये भी कोई तरीका है?' 

कभी कभी जीवन में बहुत कुछ अप्रत्याशित होता है। आप सोचते कुछ हैं और होता कुछ है। वह कुछ देर तक खामोश खड़ी रही और बोली "हमारा एक दूसरे से अलग होना बहतर होगा। तुम्हारी वजह से मैं अपने सिद्धांतों का उल्लंघन कर रही हूँ, लेकिन मैं अपनी स्मृतियों में हमेशा तुम्हें जीवित रखूंगी, तुम जो चाहें मर्ज़ी समझ सकते हो लेकिन यही सही है और यही होना चाहिए। " 

फिर धीमे-धीमे वह आकृति नीचे की ओर चलती गई और कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गई और मैं एकटक मंदिर की जगमगाती रौशनी को देखता रहा, नहीं जानता कितने समय तक। न जाने कितने प्रश्न मेरे मन में मंदिर के घंटे की तरह बजते रहे। बहुत कुछ अकारण ही हो गया बड़ा अजीब होता है जब बिना गलती के आपको सज़ा मिलती है। कहने को तो स्कूल में कई बार मास्टर जी ने स्टील के स्केल से बेवजह हाथ के गट्टे तोड़े थे, पर आज उस पीड़ा ने अपना अस्तित्व खो ही दिया था। एक घुटन, एक मायूसी और अंतहीन प्रश्नों की श्रंखला। आँखें सारी-सारी रात चाह कर भी न बंद हो पातीं, बंद होतीं तो वही जाते हुए छोटे-छोटे कदम मन को भारी कर देते और मैं सिगरेट पीता हुआ उसी टेकरी की ओर चल देता जहां अक्सर बैठ कर मैं दुनिया से निजात पा जाता था। कुछ कहता था और बहुत कुछ सुनता था। 


वो घंटों तक हमें आगोश में लिए बैठे रहते थे। उनकी गरम-गरम सांसें मेरी गर्दन पे जैसे उनका  नाम लिख देती थीं। पकड़ आहिस्ता-आहिस्ता कसती ही जाती थी। वैसे तो मेरी कद काठी पे सभी रश्क करते थे पर न जाने क्यों उसके सामने मेरा कोई ज़ोर न चलता था। आज भी याद है जब वो  सीने में ख़ुद को एक दफ़ा छिपाकर बोले थे “मुझे कभी ख़ुद से अलग न होने देना” और मैंने कुछ न कह कर उनके माथे को चूम लिया था। कभी सोचता हूँ कि क्या मेरे कुछ न कहने की वजह से ये सब हुआ? लफ़्ज़ इतने माइने रखते हैं, तो यही वजह होगी! फिर एक ख्याल ये आता है कि जब यही वजह थी तो वो मुझे देख कर मुस्कुरा क्यों दिए थे? 

आज एक महीना होने को आया, जिस दौरान न तो कोई फोन आया और न ही कोई संदेश। आस छोड़ने के बाद भी एक आस इस आस को न छोड़ने को मजबूर करती है। न जाने क्यों उम्मीद टूटने को तैयार नहीं होती, न जाने क्यों उनकी तस्वीर आँखों के सामने से हटती नहीं, कुछ न सोचकर भी उन्हीं को सोचना। अपने जीवन में बहुत सी स्त्रीविरोधी रचनाएँ पढ़ीं और उनका अध्ययन भी किया किंतु रचनाकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्कों से कभी मेल न बैठा सका हमेशा उन्हें गलत ठहराता रहा। पर आज न जाने क्यों वो सब मुझ पर हंसते से दिखाई पड़ते हैं जैसे कह रहें हो ‘क्यों बच्चू बड़ा पक्ष धरता था, अब क्या हुआ?’ और मैं निःशब्द उनकी इन प्रतिध्वनियों को सुनता रहता हूँ। 

उस टेकरी पर बैठा सिगरेट पी ही रहा था कि इतने में एक सुंदर कद-काठी वाला एक लड़का वहाँ आ धमका और मुझे नमस्ते किया। उसे जानता तो नहीं था पर प्रतिकृया अवश्य दे दी। उसे ऊपर से नीचे तक देख ही रहा था कि इतने में एक आकृति फिर दिखाई पड़ी और मैंने मंदिर की तरफ पलट कर देखा, वह अब भी जगमगा रहा था। वहाँ से हट जाना ही मैंने उचित समझा और धीमे-धीमे ढलान से उतरते हुए मैंने उस लड़के को देखा। वह भी मुझे देख रहा था और आँखों ही आँखों में उससे कहा “मित्र यदि कल तुम्हें सिगरेट की आवश्यकता हो तो संकोच किए बिना मांग लेना” और मैं मुसकुराता हुआ नीचे की ओर बढ़ गया।

शुक्रवार, 8 मई 2020

मैं तब प्यार के बारे में नहीं जानती थी- रामकुमार सिंह


"मैं तब प्यार के बारे में नहीं जानती थी!" - रामकुमार सिंह

साहित्य महोत्सव का मंच सजकर तैयार हो गया है।रंग बिरंगी रौशनी और जगमगाती हुई लाइटों से पूरा पांडाल प्रकाशित हो रहा है। वह साहित्य महोत्सव का मंच कम किसी ग्लैमरस शादी का मंच ज्यादा लग रहा है। दूसरे महानगरों से साहित्यकार बिजनेस क्लास की हवाई यात्रा करके राजधानी को पहुंच रहे हैं, जहां वे पूरे जोरों से सर्वहारा वर्ग की समस्यायों को लेकर विधवा विलाप करेंगे। पूरे सप्ताह भर का आयोजन है।सभी बुद्धिजीवी एक सप्ताह खुलकर मस्ती करेंगे।ये साहित्य महोत्सव और संगोष्ठियां ही तो हैं जहां पर ये बेचारे थोड़ी बहुत मस्ती कर लेते हैं वर्ना देश और दुनिया की चिंता करने से कब फुर्सत मिलती होगी बेचारों को।
जींस कुर्ता और स्लीपर में अभी-अभी गेस्ट हाउस से निकलकर आ रहे दो बुद्धिजीवियों को मैंने देखा।ये वही लोग थे जो एयरपोर्ट पर मँहगे सूट-बूट में नज़र आए थे।आते ही कायापलट क्यों कर ली इन्होंने? फिर थोड़ा सा सोचने पर मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि हो न हो ये ड्रेसकोड इनकी साहित्यिक मजबूरी हो।
मैं भी बतौर युवा कथाकार  अपनी पत्नी सहित कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचा हुआ था।मेरी पत्नी को साहित्य और साहित्यकारों में कोई खास रुचि नहीं थी।बस उसे तरन्नुम में गाई जाने वाली कविता,गीत और ग़जल ही पसंद थीं।शाम के सत्र में मुझे अपनी कहानी का पाठ करना था।हम दोनों दोपहर में शापिंग करने का कार्यक्रम पहले ही बना चुके थे,लेकिन पत्नी के कहने पर कार्यक्रम रद्द करना पड़ा क्योंकि उसे कविता पाठ सुनना था।वही तो उसकी रुचि का कार्यक्रम था।भला उसे क्यों छोड़े।बाकी दिनों में तो उसे मजबूरी में सबको झेलना ही झेलना है।दोनों तेज़ कदमों से चलते हुए उस पांडाल में पहुंचे जहाँ काव्यपाठ चल रहा था।एक उम्रदराज़ कवि अपना कविता पाठ समाप्त कर चुके थे।तभी संचालक ने बड़े ही जोशोखरोश के साथ एक युवा कवयित्री को काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया और साथ ही यह भी बताना नहीं भूला कि वह अपना फलां वाला प्रेम गीत ज़रूर पढ़ें जो जयपुर में पढ़ा था।युवा कवयित्री की उम्र कोई तीस-बत्तीस साल रही होगी।भरा हुआ बदन और साँवली सलोनी सूरत।आँखों पर काले फ्रेम का नज़र का चश्मा।आगे के दोनों दांतों का आकार सामान्य से थोड़ा ज्यादा जो हँसने पर और भी ज्यादा नज़र आता।पर्पल कलर के सूट सलवार और दुपट्टे को सँभालती हुई वह मंच पर एक-एक पैर सँभालकर रखती हुई पहुँचती है।मंच की औपचारिकताओं को निभाते हुए वह सबसे पहले तो आयोजक महोदय का तहेदिल से शुक्रिया अदा करती है, क्योंकि उन्हीं की कृपा दृष्टि से उन्हें युवा कवयित्री बनने का अवसर मिला है।इससे पहले भी एक जगह उनका काव्य पाठ उन्होंने ही कराया था।श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए उन्होंने एक मुक्तक अपने कोकिल कंठ से बयान किया।श्रोताओं में से कुछ लंपट किस्म के लोगों ने वाहवाही दी और कर्तल ध्वनि भी की।कवयित्री ने अपना मोहिनी मंत्र चलते हुए देखकर एक हल्की सी मुस्कान बिखेर दी।दूसरा मुक्तक जिसका विषय कालिज टाइम लव था को उसने और अधिक उत्साह के साथ पढ़ा।श्रोताओं का जोश भी हाई था।मैं अपनी पत्नी सहित सबसे पीछे एक कोने में बैठा हुआ चुपचाप अपने मोबाइल में आ रहे संदेशों को देख रहा था।मेरी पत्नी काव्यपाठ का लुत्फ़ उठा रही थी और जैसे ही तालियां बजतीं तो वह भी उसी उत्साह के साथ तालियां बजा देती।मैं उसके चेहरे की तरफ़ देखकर मुस्कुरा देता और फिर से अपने संदेश देखने लग जाता।अब उसने बताया कि वह उसी प्रेम गीत को पढ़ने वाली है जिसकी फरमाइश की गई थी।मेरी पत्नी ने मुझको लगभग झिंझोड़कर कहा कि अब ये गीत तो सुन लो या मोबाइल में ही घुसे रहोगे। मैंने मुस्कुराते हुए कहा-"जो आज्ञा देवी जी!आपका आदेश सिरोधार्य है।कवयित्री ने पहली लाइन लय,सुर और ताल को ध्यान में रखकर पढ़ी तो दर्शकों की तरफ़ से ग़जब का रिस्पाॅन्स मिला।वाहवाही और कर्तल ध्वनि से पांडाल गूंज उठा।मेरी पत्नी ने इस पर मेरी भी प्रतिक्रिया ये कहते हुए जाननी चाही कि ये बहुत ही अच्छा पाठ कर रही है।हाँ!हाँ! पाठ तो अच्छा ही करेगी क्योंकि संगीत की शिक्षा जो......... इतना कहते ही मैं चुप हो गया।मेरी पत्नी भी मेरा ये कथन नहीं सुन पाई।कवयित्री ने गीत को पूरा किया और श्रोताओं की तरफ से जबर्दस्त रिस्पॉन्स मिला।मेरी पत्नी उस कवयित्री की फैन हो गई और मुझसे जिद करने लगी कि मैं उससे उसे मिलवाकर लाऊं। मैंने कहा कि मैं इधर ही खड़ा हुआ हूँ ,तुम जाकर मिल लो ऐसी भीडभाड़ भी नहीं है।इतना सुनकर उसकी आँखों में लाल डोरे पड़ गए।ऐसा लगने लगा जैसे आँखों से खून टपकने ही वाला हो।बेचारा कथाकार मरता क्या न करता।वह कथाकार होगा अपने लिए और अपने पाठकों के लिए।अपनी पत्नी के लिए तो वह पति ही था, और उतना ही बेचारा जितना कि पति लोग हुआ करते हैं।अपने कुर्ते की जेब में पड़े काले चश्मे को आखों पर चढ़ाकर मैं पत्नी के साथ कवयित्री से मिलने चला गया।मैंने जाकर बताया कि मेरा साहित्यिक नाम राजेश ज्ञानी है और मैं कहानियाँ लिखता हूँ।ये मेरी पत्नी हैं नीलिमा जी।नीलिमा ने लपककर उससे हाथ मिलाया और उसके काव्यपाठ की बहुत ही तारीफ की।कवयित्री ने उसे धन्यवाद दिया।तभी मेरे फोन की घंटी बजी और मैं फोन रिसीव करके बात करने के उद्देश्य से उन दोनों को बातचीत करता हुआ छोड़कर चला गया।बातचीत खत्म करके मैं लौटा और अपनी पत्नी से शीघ्र ही चलने के लिए कहा क्योंकि मेरे कहानी पाठ का समय हो चुका था।दोनों महिलाओं ने एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए बाय कहा।
शाम को अपनी कहानी का पाठ करके मैं अपने गेस्ट हाउस में पहुंचा। नीलिमा काव्यपाठ के बाद ही सिरदर्द के चलते कमरे पर आकर आराम फरमा रही थी।उसने मुझसे पूछा कि मेरा कहानी पाठ कैसा रहा? अच्छा रहा!आपने कौनसी कहानी सुनाई? ज़रूर आपने 'कसक' पढ़ी होगी!वह बहुत चर्चित कहानी है न आपकी!नहीं!वह नहीं पढ़ी!तो फिर कौनसी पढ़ी?वही कहानी जो मैंने आजतक नहीं लिखी।मतलब!ऐसे कैसे बिना लिखे कोई कहानी पढ़ सकता है!ये कोई आशु भाषण प्रतियोगिता तो है नहीं कि जो भी विषय मिल गया उसी पर पाँच मिनट बोल दिए।अरे यार आशु भाषण प्रतियोगिता न सही आशु कहानी प्रतियोगिता ही मान लो।ऐसे कैसे मान लूँ?आपको मेरी योग्यता पर संदेह है? नहीं तो!पर मैंने आपको कभी आशु कहानियों के सत्र में प्रतिभाग करते हुए नहीं देखा है।आज देख सकती थीं लेकिन तुमको सिरदर्द हो रहा था।यू आर सो अनलकी!आज मैंने वही कहानी सुनाई थी जो तुमने तब सुनी थी जब हमारी नयी-नयी शादी हुई थी।अच्छा वो कहानी जिसका बड़ा सा शीर्षक था।हाँ याद आया-"मैं तब प्यार के बारे में नहीं जानती थी!" यही शीर्षक था न?हाँ यही था!लेकिन ये कहानी तो तुमने मुझे तब सुनाई जब मैंने तुमसे तुम्हारी यूनिवर्सिटी वाली दोस्त के विषय में पूछा था।लेकिन वो कहानी इतने बड़े मंच पर तो नहीं सुनाई जानी चाहिए थी।उसमें तो ऐसा कुछ नहीं था।हाँ !तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो मैंने उस कहानी को थोड़ा सा विस्तार दे दिया है।वो लड़की जिसके विषय में मैंने तुमको बताया था कि उसे मैंने एमए के दिनों में प्रपोज किया था और उसने मेरे प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।मैं उन दिनों बहुत दुखी रहता था और मुझे अवसाद ने घेर लिया था।किसी तरह में अवसाद से निकल गया।फिर पीएचडी के दौरान जब मैंने उससे पूछा था कि तुमने मेरे प्रेम प्रस्ताव को क्यों ठुकरा दिया था?तब उसने कहा था-"मैं तब प्यार के बारे में नहीं जानती थी!" ये सब रामायण तो मुझे मालूम है अब इससे आगे की कहानी बताओ क्या विस्तार किया है?बताता हूँ!बताता हूँ!थोड़ा धैर्य रखो डियर।वही लड़की जो तब प्यार के बारे में नहीं जानती थी।आजकल प्रेमगीत गाने लगी है।अच्छा!फिर आगे? थोड़ा सब्र करो मेरी जान!आगे की कहानी तब सुनाऊँगा जब तुम ट्राॅली बेग में पड़ी मेरी ब्राउन कलर की डायरी निकालकर दोगी।नीलिमा फुर्ती के साथ बैग खोलकर ब्राउन कलर की डायरी निकालकर उसकी तरफ बढ़ाती है।मुझे मत दो इसे खोलो!नहीं!नहीं!मैं भला कैसे खोल सकती हूं ये आपकी पर्सनल डायरी है।अरे यार मैं कह रहा हूँ कि खोलो तो फिर किस बात का संकोच।पेज नंबर 148 खोलो।नीलिमा धीरे-धीरे पेज पलटती है।एक सौ छियालिस! एक सौ सैंतालिस!एक सौ अड़तालिस!अब इसे पढ़ो।नीलिमा कवयित्री के गाए हुए प्रेम गीत की पंक्तियों को दोहराने लगती है।गीत के नीचे की पंक्ति के नीचे उसके पति का नाम राजेश कुमार एमए (उत्तरार्द्ध) दिनांक सहित बतौर लेखक अंकित था।नीलिमा राजेश की तरफ़ ईर्ष्या मिश्रित मुस्कान के साथ देख रही थी।तभी राजेश ने उसकी तरफ आँख मार दी और दोनों के ठहाकों से गेस्ट हाउस का कमरा नंबर आठ गूंज उठा।

- रामकुमार सिंह
शोधार्थी एएमयू हिन्दी विभाग एवं
युवा कथाकार