शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

मुक्तिबोध और वर्तमान परिप्रेक्ष्य - जन संस्कृति मंच

मुक्तिबोध और वर्तमान परिप्रेक्ष्य - जसम

आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एन.आर.एस.सी. क्लब में मुक्तिबोध शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में जन संस्कृति मंच अलीगढ़ ने "मुक्तिबोध का साहित्य: समय, सवाल और हम नाम से एक व्याख्यान माला का आयोजन किया जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार, पॉलिटिकल एक्टिविस्ट रामजी राय और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, मार्क्सवादी आलोचक, चिंतक प्रोफ़ेसर प्रदीप सक्सेना ने अपने विचार रखे
सर्वप्रथम प्रोफेसर आशुतोष कुमार ने बोलते हुए कहा कि आजकल हत्याओं के दौर में मुक्तिबोध की प्रासंगिकता और अधिक बड़ जाती है क्योंकि मुक्तिबोध वास्तविकता के कवि है जिस वास्तविकता की मुक्तिबोध ने अपने साहित्य में जगह दी है वो आज हमारे सामने पल पल घटनाएं घट रही है लिखने, बोलने की आज़ादी को छीना जा रहा है जिससे बुद्धिजीवियों में रोष व्याप्त है, पिछले दिनों चली असहिष्णुता की बहस को वर्तमान घटनाओ ने पुख्ता कर दिया है।इसलिए मुक्तिबोध ने ऐसे प्रश्नों को अपनी कविताओं के भी माध्यम से उठाने का प्रयत्न किया है जैसे " चांद का मुंह टेड़ा है" नामक कविता को ले तो हम समझ सकते है कि लोकतंत्र में बहुमत की सरकार आने का मतलब है फासिज़्म की शुरुआत हो चुकी है जिसमे बुद्धिजीवी, आलोचक, लेखक, विद्वान, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासियों और महिलाओं का पीसना लाज़मी है जो वर्तमान में घटित हो रहा है, आजकल गोली चलाकर लड़ाई जीत सकते है यह एक नई विचारधारा पनपने लगी है जो समाज, देश और मानवता के लिए खतरा है आखिर में कथा साहित्य की तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि प्रेमचंद जीवन संघर्ष की बात करते है जबकि मुक्तिबोध जीवन समस्या की बात करते है दोनों की प्रासंगिकता भिन्न भिन्न है लेकिन वर्तमान समस्याओं को देखते हुए मुक्तिबोध ज्यादा महत्त्वपूर्ण नज़र आते है।
पोलिटिकल एक्टिविस्ट रामजी राय ने मुक्तिबोध को दो शब्दों में समेट दिया " मुक्तिबोध का साहित्य 20 वीं सदी का सोशियो यूनिवर्स है" जिसको बड़े फ़लक में समझने की आवश्यकता है, कई मुद्दों पर इशारतन बात करते हुए अनेक ऐसे अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला जिस पर वहां पर बैठे अध्यापकगण, शोधार्थियों और विद्यार्थियों को सोचने पर मजबूर कर दिया जिससे उनके मस्तिष्क में अनेक प्रश्न कौधने लगे। व्यंग्यात्मक अंदाज़ में बात करते हुए उन्होंने कहा "विश्वगुरु बनते बनते कहीं हमें नरक का दरोगा ना बना दिया जाए" अंत मे शेर का एक मिशरा कहते हुए अपनी बात खत्म करदी "बोले नही वो हर्फ़ जो ईमान में नही थे" जिससे वहां मौजूद अनेक लोगो ने उनका तालियां  बजाकर स्वागत किया
व्याख्यान माला में मार्क्सवादी आलोचक, चिंतक प्रोफ़ेसर प्रदीप सक्सेना जी ने अपने अंदाज में ऐसे सवाल दागे जो आजकल समझने और सोचने योग्य है जिसमे उन्होंने मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की एक पंक्ति कही " जब कोई मार जाता है तब ही वह महान क्यो होता है" उनका कहने का आशय था ना जाने कितने कवि, कथाकार गरीबी, मजबूरी और भूखे लिखते लिखते मर गए जिनको बाद में महान बनाया गया चाहे वो प्रेमचंद हो नागार्जुन हो या फिर मुक्तिबोध , मुक्तिबोध का कविता संग्रह " चाँद का मुँह टेड़ा है" जब छप रहा है था उस वक़्त वो अपने जीवन के आखिरी पल जी रहे थे जो कि एक कवि और लेखक के जीवन का भयावह सच है जिसको हम सोचना और समझना चाहिए, उन्होंने वहां पर उपस्थित सभी बन्धुओ को चिर परिचित अंदाज़ में यथार्थ का परिचय कराया और पढ़ने-लिखने, समझने और उसको जीवन मे उतारने का भी मंत्र मार्क्सवादी विचारधारा को बताया
अंत मे अध्यक्षीय भाषण में डॉ. नमिता सिंह जी ने मुक्तिबोध को वर्तमान समय की ज़रूरत बताया
कार्यक्रम का संचालन प्रोफेसर वेद प्रकाश जी ने किया
जिसमे प्रोफेसर तसनीम सुहैल, प्रोफेसर आशिक़ अली बलौत, प्रोफेसर शम्भूनाथ तिवारी, अजय बिसरिया, प्रोफेसर कमलानंद झा, प्रोफेसर रिज़वान सर, डॉ जावेद आलम, डॉ दीपशिखा, डॉ शहवाज अली ख़ान, नीलोफर उस्मानी, इस्लाम बाबू, ज्योति कुसुम्बल, उमेश सिरसवारी, मोहम्मद वारिस, अबुसाद अहमद, रामकुमार चौधरी, सलीम अहमद अनेक शोधार्थी, विद्यार्थीगण मौजूद थे

प्रस्तुति
अकरम हुसैन क़ादरी
शोधार्थी
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी

बुधवार, 6 सितंबर 2017

मानवाधिकार रक्षकों को क्यो आतंकवादी, नक्सलवादी बताया जाता है - अकरम हुसैन क़ादरी

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अकरम हुसैन कादरी

भारतीय राजनीति में मानवाधिकार की बात करना अब आतंकवादी , नक्सलवादी सिम्प्थाइसर कहा जाने लगा है इस ज़हर को 2012 के बाद मीडिया ने बहुत तेज़ी से फैलाया क्योंकि इससे एक राजनैतिक पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में मदद मिलती है इंसानियत की बात करना अब कैंसर जैसा हो गया है जिसकी चपेट में अनेक लेखक, बुद्धिजीवी आ गए है चाहे वो कलबुर्गी, पानसरे, दाभोलकर हो या फिर कल की घटना गौरी लंकेश के साथ हुआ हश्र  दरअसल यह नफरतों को फैलाने का ही रिजल्ट है जिसको मीडिया की समय समय पर हो रही पिटाई, सम्मानित बुद्धिजीवी व्यक्तियों को धमकी देना एक आम बात हो गयी है जो समाज मे बहुत तेज़ी से फैल रही है जिससे लगातार इंसानियत शर्मशार हो रही है, एक बात सोचने योग्य है इसमें ज्यादातर अंधभक्त, अतिधार्मिक पाखण्डी लोग ही नज़र आते है वो अपनी कायरता और डरपोकपन का परिचय बुद्धिजीवियों के सीनों को गोलियों से भूनकर देते रहते है इसमें ज्यादातर हिन्दू अतिवादी ही नज़र आते है जबकि मरने वाले भी ज्यादातर हिन्दू ही है बस अंतर यह है कि वो दिमाग़ से सोचते है मारने वाले षड्यन्त के साथ साथ साथ कुछ राजनैतिक लाभ और चन्द सिक्को में अपनी इंसानियत को बेचकर किसी बुद्धिजीवी को गोलियों से भून देते है जो सभ्य समाज के लिए बहुत ही खतरा है जिससे समाज को समझने, परखने और बोलने वाले लोगो की कमी आएगी जिससे हमें नई सोच और इंसानियत के लिए काम करने वाले लोगो की कमी निकट भविष्य में महसूस होगी जो मानवता के लिए शुभ संकेत नही है, ऐसे कार्यो में वो लोग शामिल है जो भोले भाले है धर्म और राजनैतिक विचारधारा के चलते जिन्होने अपना दिमाग़ गिरवी रख दिया है इसका लाभ हमेशा फर्स्ट क्लास पॉलिटिशियन उठाते है उसके बदले में यह कुकृत्य करने वालो को केवल जेल और चन्द दिनों की पहचान और चन्द सिक्को से नवाज़ दिया जाता है
देश को बचाने के लिए यह बहुत ज़रूरी है ऐसे लोगो की खुलकर निंदा होनी चाहिए तथा इनको मिल रहा राजनैतिक संरक्षण भी रुकना चाहिए जिसके चलते यह कुकृत्य करते है मानवता शर्मशार होती है.. पिछले चार वर्षों से जो घटनाएं हुई है उनकी पृष्टभूमि लगभग सामान ही थी
ऐसे कुकृत्यों को रोकने के लिए देश के सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति को संज्ञान लेना चाहिए वरना देश मे असहिष्णुता का माहौल बन चुका है मानसिक साम्प्रदायिकता अपने चरम पर है तथाकथित देशभक्त किसी बुद्धिजीवी, प्रतिरोध के शब्द लिखने वालों पर ऐसे अपमानजनक शब्दो का प्रयोग कर रहे है जो समाज और देश को खुलेआम चुनौती दे रहे है
जय हिंद
#अकरम_हुसैन_क़ादरी