रविवार, 27 सितंबर 2020

नया किसान अध्यादेश आने वाली पीढ़ियों के लिए डेथ वारण्ट है- अकरम क़ादरी

नया किसान अध्यादेश आने वाली पीढ़ियों का डेथ वारण्ट है -अकरम क़ादरी


देश की संसद ने जिसप्रकार से कृषि अध्यादेश को पारित किया है तबसे किसानों में रोष व्याप्त है उसके अलावा कई सांसदों ने भी इसका दोनो सदन में भरपूर विरोध भी किया लेकिन सरकार के पास बहुमत होने के कारण यह किसान विरोधी अध्यादेश ध्वनि मत से पास हो गया जिससे किसान लगातार सड़को पर नज़र आ रहे है जिनके साथ मुख्य रूप से कांग्रेस और उसके घटक दलों के साथ-साथ दूसरे विपक्षी दल भी विरोध कर रहे है। इस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सबसे वफादार अकाली दल भी साथ छोड़कर रवाना हो गयी है क्योंकि इस फैसले के विरुद्ध अकाली दल ने कई बार विरोध किया लेकिन उनको दरकिनार कर दिया गया जिसके चलते अकाली दल की एकमात्र केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर ने इस्तीफा दे दिया और किसानों के आंदोलन के साथ हो गयी। जिस फैसले को मोदी जी ऐतिहासिक बता रहे थे उस फैसले को वो अपनी केंद्रीय मंत्री को ही नही समझा सके तो फिर किसान कैसे समझ सकते थे फिर इस बार किसान दो-दो हाथ करने को तैयार है क्योंकि वो जानते है कि जो अध्यादेश पारित हुए है उनके माध्यम से उनकी खेती तो पूंजीपतियों के नाम मे हो जाएगी और वो केवल अपनी ही ज़मीन में मज़दूर बनकर रह जायेगा। वैसे भी इस देश मे प्राचीन काल से आजतक किसान ही सबसे ज्यादा सताया गया है किसान पहले भी लगान देता था उसके बाद साहूकारों, सेठों और जमींदारों ने लूटा फिर अंग्रेज़ो के साथ मिलकर डकैती हुई जिसका वर्णन हिंदी साहित्य के कई साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में किया है प्रेमचंद का "गोदान", श्रीलाल शुक्ल का "रागदरबारी" और वर्तमान में पंकज सुबीर का "अकाल में उत्सव" पढ़ेंगे तो किसानों की व्यथा को आसानी से समझा जा सकता है आज देश की सरकारें अपने पूंजीपति मित्रों के साथ मिलकर लूट कर रही है।
इस अध्यादेश का विरोध सबसे ज़्यादा  कृषि बाहुल्य प्रदेशो में पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, में हो रहा है इसके बाद दूसरे प्रदेशों में भी आग की तरह फैल चुका है और किसान हर माध्यम से अपना दुःख बता चुके है जबकि इस अध्यादेश का विरोध जिन किसान संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया है, उनमें अखिल भारतीय किसान संघ (AIFU), भारतीय किसान यूनियन (BKU), अखिल भारतीय किसान महासंघ (AIKM) और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) प्रमुख हैं। किसानों के आंदोलन का सबसे ज्यादा असर पंजाब और हरियाणा में देखने को मिल रहा है, लेकिन कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के किसानों निकायों ने भी बंद का आह्वान किया है। यही नहीं किसानों के इस बंद को देश की कई ट्रेड यूनियंस ने भी अपना समर्थन दिया है। मज़ेदार बात यह है कि इस अध्यादेश का विरोध भारतीय जनता पार्टी की मातृसंस्था आरएसएस के किसान संगठन ने भी किया है।
जबकि सरकार का पक्ष है कि मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश से कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा मिलेगा?
सरकार का तर्क है कि यह अध्यादेश किसानों को शोषण के भय के बिना समानता के आधार पर बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम बनाएगा। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि इससे बाजार की अनिश्चितता का जोखिम किसानों पर नहीं रहेगा और किसानों की आय में सुधार होगा, लेकिन कृषि विशेषज्ञ तो कुछ और ही कह रहे हैं।
मध्य प्रदेश के युवा किसान नेता और राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन मध्य प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष राहुल राज कहते हैं कि ''इससे मंडी की व्यवस्था ही खत्म हो जायेगी। इससे किसानों को नुकसान होगा और कॉरपोरेट और बिचौलियों को फायदा होगा।" वे आगे कहते हैं, "फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस में वन नेशन, वन मार्केट की बात कही जा रही है लेकिन सरकार इसके जरिये कृषि उपज विपणन समितियों (APMC) के एकाधिकार को खत्म करना चाहती है। अगर इसे खत्म किया जाता है तो व्यापारियों की मनमानी बढ़ेगी, किसानों को उपज की सही कीमत नहीं मिलेगी।" फिर किसान की बड़े स्तर पर लुटाई होगी इस संदर्भ में देश के सबसे बड़े किसान हितैषी, किसानों के लिए अनेक धरना प्रदर्शन करने वाले सरदार वीएम सिंह कहते हैं, "30 साल पहले पंजाब के किसानों ने पेप्सिको के साथ आलू और टमाटर उगाने के लिए समझौता किया था। इस अध्यादेश की धारा 2(एफ) से पता चलता है कि ये किसके लिए बना है। एफपीओ को किसान भी माना गया है और किसान तथा व्यापारी के बीच विवाद की स्थिति में बिचौलिया भी बना दिया गया है। इसमें अगर विवाद हुआ तो नुकसान किसानों का है।"
"विवाद सुलझाने के लिए 30 दिन के अंदर समझौता मंडल में जाना होगा। वहां न सुलझा तो धारा 13 के अनुसार एसडीएम के यहां मुकदमा करना होगा। एसडीएम के आदेश की अपील जिला अधिकारी के यहां होगी और जीतने पर किसानें को भुगतान करने का आदेश दिया जाएगा। देश के 85 फीसदी किसान के पास दो-तीन एकड़ जोत है। विवाद होने पर उनकी पूरी पूंजी वकील करने और ऑफिसों के चक्कर काटने में ही खर्च हो जाएगी।" यह तर्कसंगत भी प्रतीत होता है अगर किसान यहीं करता रहा तो वो अपने बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाएगा, अपनी बेटी के हाथ पीले करने की सोचेगा, माता-पिता की सेवा करेगा या फिर अपने बच्चों की शिक्षा के लिए सोचेगा यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है। 
लम्बे अरसे से किसानों के लिए संघर्षरत, स्वराज इण्डिया के संस्थापक प्रोफेसर योगेंद्र यादव कहते है कि "किसानों के लिए यह बिल ऐसा है कि जैसे पहले किसान के सिर पर छप्पर था उसमें कुछ छेद थे, पानी तो आता था लेकिन बारिश में वो कुछ बचाव कर लेता था, लेकिन इस सरकार ने सिर के ऊपर की छत ही ग़ायब कर दी और किसान को लॉलीपॉप के रूप में बताया गया अब आप आत्मनिर्भर और आज़ाद है। इस जुमले को पुराने ज़माने के किसान तो नहीं समझ सकते है लेकिन वर्तमान दौर के युवा किसान इस पूरे फ़र्ज़ी ऐतिहासिक निर्णय को अच्छे से समझते है बल्कि पिछले जितने भी ऐतिहासिक फैसले बताये गए है वो सब आज फुस्स ही नज़र आ रहे है चाहे वो स्किल इण्डिया हो, स्वच्छ भारत अभियान हो, या फिर 15 किसान को न्यूनतम मूल्य वाला, किसान लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिलने का जुमला हो वो सबको अब अपनी खुली आँखों से देख रहा है और इसका बराबर विरोध कर रहा है। निजीकरण के खिलाफ ज्यादातर सभी संगठन रोड पर है लेकिन भारत की मुख्य धारा की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिया, सुशांत, दीपिका में व्यस्त है क्योंकि यह मुद्दा बिहार चुनाव में भुनाने की साज़िश चल रही है। लेकिन कुछ मीडिया के असली पत्रकार आज भी भारत के मुख्य मुद्दों को स्थान दे रहे है जबकि वो टीआरपी में पिछड़ रहे है फिर भी देश और जनमानस के मुद्दों के साथ खड़े है। 
जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान, जय हिंद
जय भारत...

अकरम क़ादरी

रविवार, 13 सितंबर 2020

हिंदी को दोयम दर्जे का क्यों समझा जाता है.?- पुष्पिता अवस्थी

हिंदी को दोयम दर्जे का क्यों समझा जाता है ?- पुष्पिता अवस्थी

अक्सर देखा यह गया है कि देश में हिंदी की जयकार करने वाले लोग, मंच, माला और माइक के साथ जब हिंदी का जयघोष करते है तो एक सामान्य भारतीय नागरिक को गर्व होता है होना भी चाहिए क्योंकि यह घोषित रूप से राष्ट्रभाषा तो नहीं है लेकिन राजभाषा तो है जिसको अधिकतर भारतीय बोलते, समझते और लिखते है और उनकी आम जनजीवन की भाषा भी हिंदी है जो देश को नाभिनाल से जोड़े रखने में सहायक है लेकिन भारत के राजनेताओ ने इस संदर्भ में ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने हिंदी भाषा का नाम लेकर, माइक, मंच से खूब हिंदी में लच्छेदार भाषण तो दिए लेकिन अमलीजामा पहनाने में नाकामयाब रहे है जिसको देखकर मुझे बहुत ताज्जुब होता है कि जो यह वादा करते है आखिर वो पूरा क्यों नहीं करते है।
हिंदी भाषा का प्रचार यदि वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो प्रवासियों से ज़्यादा भारतवंशी प्रसार कर रहे है वो हमेशा देश और भाषा को स्वयं से जोड़े रखने में सेतु मानते है और भारतीय संस्कृति, संस्कार को विदेशों में फैलाने का एक मुख्य स्रोत समझते है इसलिए वो विदेशों में मंदिर, मस्ज़िद, मठ में हिंदी को सीखते है और जब वो आपस मे मिलते है तो हिंदी भाषा या भारतीय भाषाओं में ही बात करते है जबकि यूरोपियन देशों में रहकर यह भारतवंशी वहां की राजकीय भाषा को तो सीखते ही है फिर भी अपनी हिंदी को जोड़े रखते है कहा जा सकता है कि हर तरह से आधुनिक हुए है लेकिन कभी भी अपनी भाषा, संस्कृति और संस्कार से उन्होंने समझौता नहीं किया है। अगर समझौता कर लिया होता तो वो भी वही दिखते जो दूसरे दिखते है। हिंदी और भारतीय संस्कृति को साथ लेकर चलने वाले यह वो लोग है जो कभी भारत तो नहीं आये लेकिन अपने पूर्वजों के देश को बहुत सम्मान देते है। आज भी वो त्यौहार, तीज़, उत्सव, को मनाते ही है उसके अलावा भारत के स्वंतत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती को अपना त्यौहार समझते है। 
भारत मे अनेक सेमिनार, संगोष्ठियों में हिस्सेदारी करने के दौरान मैंने देखा है ज़्यादातर लोग मंच से नीचे उतरते ही फर्राटेदार अंग्रेज़ी में बात करते है यधपि मुझे भाषाओं से कोई वैमनस्य नहीं है लेकिन हिंदी को दोयम दर्जे का समझना कतई बर्दाश्त नहीं है। यदि सामने वाले व्यक्ति को हिंदी या कोई दूसरी भारतीय भाषा नहीं आती है तो अंग्रेज़ी में बात करने से कोई गुरेज़ नहीं है लेकिन जो हिंदी कार्यक्रम में शामिल हुए है और हिंदी के अच्छे जानकार है जब वो अंग्रेज़ी मे बात करते है तो अजीब सा प्रतीत होता है जबकि विदेशों में हिंदी में ही बात करते है जहां पर भी भारतवंशी या फिर प्रवासी मिलता है क्योंकि मातृभाषा में बात करने से ह्रदय का हृदय से मिलन होता है शब्द सही से समझ और उनकी भावना भी समझ आती है। 
देश की जितनी भी भारतीय भाषाएं और बोलियां है वो बहुत व्यवस्थित है उनका व्याकरण बहुत अच्छा है शब्द सम्पदा भी अद्वितीय है फिर क्यों हम दूसरी भाषाओं का प्रयोग करें?
हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार भारत से ज़्यादा वैश्विक स्तर पर हो रहा है क्योंकि इसका सबसे अच्छा उदाहरण है विदेश में रह रहे भारतवंशी आज भी जब मिलते है तो वो हिंदी या भारत की बोलियों में ही बात करते है जबकि भारत में हिंदी के पुरोधा कहे जाने वाले लोग हिंदी मंच से उतरते ही फर्राटेदार अंग्रेज़ी में बोलकर भाषा का अपमान करते है। देश की वर्तमान सरकार से मेरी विनती है कि भारत को राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी जैसा उपहार दे। यद्यपि यूरोपियन देशों में किसी भी नागरिक को नागरीकता देने का अधिकार ही भाषा है यदि उसको उस देश की भाषा आएगी तो वो नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है।

पुष्पिता अवस्थी
अध्यक्षा
आचार्यकुल वर्धा एवं हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन नीदरलैंड

शनिवार, 5 सितंबर 2020

उस्तादों ने इंसान बनने में मदद की - अकरम क़ादरी

उस्तादों ने इंसान बनने में मदद की- अकरम क़ादरी

"रचनात्मक अभिव्यक्ति और ज्ञान में आनंद जगाना शिक्षक की सर्वोच्च कला है" यह अल्बर्ट आइंस्टीन के शब्द है जिन्होंने बताने का प्रयत्न किया कि इंसान में रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से ज्ञान के भंडार को गुरु हीं जगाता है, वो ही एक पत्थर इंसान को तराशने का कार्य करता है जिससे वो सभ्य समाज मे रहने के लायक हो जाये और समाज को मानवतावादी दृष्टिकोण से देखे और इंसाफ के लिए सदा आगे आये। 
जिस प्रकार से आज शिक्षण संस्थानों में मशीन बनाने की जो प्रक्रिया चल रही है वो उसके एकदम ख़िलाफ़ हूं बल्कि यूं कहिए कि हर एक आदर्श शिक्षक इसके ख़िलाफ़ ही होगा। मेरे गुरुओं ने मुझे कभी मशीन बनने के लिए तैयार नहीं किया, बल्कि कुछ नया सोचने, समझने और लिखने के लिए प्रेरित किया जिसकी वजह से मैं लगातार कोशिश भी करता रहा।
आज इस समय किस उस्ताद के बारे में लिखूं सबने मुझे आगे बढ़ाने के लिए कोशिश की है बचपन में मेरे कस्बे के उस्ताद जहां से मेरी शुरुआती तालीम शुरू हुई उनमें हाजी इरफ़ान ख़ान साहब, हाजी रिज़वान ख़ान ने मुझे आगे बढाने के लिए कोशिश की उसके बाद उत्तराखंड के सैंट पैट्रिक के अध्यापकों में सिस्टर सैलिन, सिस्टर प्रेसी, राजेश सर, पंकज सर, ज्योत्सना मैम, रश्मि मैम, अलका मैम, पवन सर, रेनुका मैम, अबरार सर जैसे कुशल गुरुओं ने शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत मन से पढ़ाया जिससे हमारा किशोरावस्था में सही विकास हो सका जिसकी वजह से लगातार आगे बढ़ने के लिए तत्पर है। उसके बाद लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज का सफर तय हुआ वहां के भी टीचर्स ने खूब आगे बढ़ाया, 2008 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेकर लिटरेचर में अपना कैरियर बनाने की सोची और आज उसी तरफ आगे बढ़ रहे है। स्नातक, स्नातकोत्तर करने के बाद एम. फिल. मौलाना आज़ाद उर्दू यूनिवर्सिटी हैदराबाद से करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जहां पर प्रोफेसर टीवी कट्टीमनी, डॉ. सेषु बाबू जी के कुशल मार्गदर्शन में अपना शुरुआती शोध पूरा किया जिसमें विशेष सहयोग मातातुल्य प्रोफेसर शकीला ख़ानम का रहा जिन्होंने अपने सही मार्गदर्शन में मुझे अच्छा शोध करने के लिए प्रेरित किया उसके बाद दोबारा एएमयू में पीएचडी के लिए लौटना हुआ तो प्रोफेसर अब्दुल अलीम सर, प्रोफेसर रमेश रावत, प्रोफेसर आशिक़ अली बलौत, प्रोफेसर मेराज अहमद सर, प्रोफेसर इफ्फत असग़र मैम ने भी पिछला शोधकार्य देखकर मुझे आगे बढ़ने के लिए, अच्छे शोध के लिए सहयोग दिया जिनका मैं शब्दो मे शुक्रिया अदा नहीं कर सकता हूँ उनका आजीवन ऋणी रहूंगा। 
वर्तमान परिस्थिति में प्रोफेसर मेराज अहमद सर के कुशल मार्गदर्शन में पीएचडी सूरीनाम जैसे नए विषय पर कर रहा हूँ जिसमे वाङ्गमय पत्रिका के सम्पादक डॉ. फ़ीरोज़ ख़ान सर एवं डॉ. शगुफ़्ता नियाज़ मैम लेखन के प्रति मुझे बहुत सहयोग दिया, वक़्त, बेवक्त बहुत समझाया, डांटा छोटे भाई जैसा प्रेम दिया और कुछ नए विषयों पर लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जिनके अथक सहयोग के कारण मैं तीन पुस्तकें जिसमे एक मौलिक और दो सम्पादित कर सका, फिलहाल कई संस्थाओं में काम कर रहा हूँ और वाङ्गमय का सहसंपादक हूं। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओ में कमसेकम तीन दर्जन शोधालेख प्रकाशित हो चुके है। वैश्विक लेखिका यायावर, प्रेम की कवयित्री प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी ने मेरे शोध में भी बहुत सहयोग दिया है वो अनवरत रूप से मुझे समझाती रहती है किसी भी नए विषय पर लिखने के लिए आईडिया देती है। आजकल उन विषयों पर लिखने के लिए अधिक प्रोत्साहित करती है जिन विषयों पर कोई लिखना नहीं चाहता। 
स्वयं की इस ज़िंदा लाश को मैं कंधे पर लेकर इन्हीं सब गुरुओं की बदौलत चल रहा हूं आगे भी उम्मीद करता हूँ कि यह मुझे सहयोग करेंगे जिसके लिए मैं जीवनभर शुक्रगुज़ार रहूंगा और एहसानमन्द करूँगा....आपकी दुआओं का आकांक्षी - अकरम क़ादरी
जय हिंद