बुधवार, 26 अगस्त 2020

आलोचना से सँवरती है संस्था और व्यक्तित्त्व- अकरम क़ादरी

आलोचना से सँवरती है संस्था और व्यक्तित्त्व- अकरम क़ादरी

मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है।
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ।।

बशीर बद्र ने यह शेर लिखते वक्त बहुत सोचा होगा लेकिन कभी यह नहीं समझा होगा कि ऐसा वक़्त आ जायेगा लोग एक-दूसरे की आलोचना करते वक़्त इतने व्यक्तिगत हो जाएंगे कि पर्सनल अटैक करेंगे जिसमे उनके घर, परिवार और निजी सम्बन्धो को भी लपेट देंगे फिर कुछ लोग ऐसे भी पैदा हो गए है कि जो तनक़ीद के नाम पर एक दूसरे के जान के प्यासे हो जाएंगे और मौत के घाट उतार देंगे। 
दरअसल अभी भी हमारे देश मे लोग आलोचना और व्यक्तिगत दुश्मनी में फ़र्क़ ही नहीं समझते है इसलिए वो ऐसे कदम उठा देते है जिससे किसी भी व्यक्ति का ज़मीर तक को रौंद देते है फिर वो सहिष्णुता को नहीं समझता है और ऐसा क़दम उठा लेता है जो सभ्य समाज के लिए सही नहीं है।
असली तनक़ीद वही है जिससे सामने वाले व्यक्ति को फ़ायदा हो आखिर आलोचना भी वही करता है जिसमे आपकी गलतियां पकड़ने का हुनर हो
जो आपको सही रास्ते पर लाने के लिए कोशिश करता हूँ।
आलोचना एवं सहिष्णुता का इतिहास इस देश का बहुत पुराना है क्योंकि जब कबीर काशी में बैठकर हिन्दू-मुस्लिम दोनो को सुनाते थे दोनो की कमियों पर बोलते थे लेकिन कभी भी किसी ने कुछ नहीं कहा आजकल अगर कोई, किसी व्यक्ति विशेष पर ज़रा सी बात कह दे तो वो मान-हानि का केस करने लगता है जबकि उसकी स्वयं की मान की हानि सवा रुपये से ज़्यादा नहीं होगी।
वर्तमान परिस्थिति में देश के जाने-माने वकील ह्यूमन एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण ने कुछ कह दिया तो उससे किसी संस्था की मान-हानि हो गयी जबकि मेरा देश बहुत विशाल एवं सहिष्णु है किसी एक दो ट्वीट से कुछ नहीं हो जाता है यह तो चलता ही रहता है जबकि दूसरी तरफ कानून में बोलने का अधिकार भी है। आप किसी संस्था की कानून संगत आलोचना कर सकते है जिससे उस संस्था में जो सुधरने, सही होने की गुंजाइश है वो ठीक हो सके और उससे अंततः देश को ही लाभ होगा। प्रशांत भूषण वो वकील है जिनके पिता शांति भूषण ने इंदिरा गांधी जैसी मज़बूत नेत्री को भी कोर्ट में खड़ा करा दिया था, प्रशांत भूषण देश के कई ऐसे मुद्दों पर जनहित याचिका डाल चुके है और उनको कामयाबी भी मिली है कांग्रेस की सरकार में टू जी स्पेक्ट्रम, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला जैसे मुद्दों पर अन्ना हज़ारे के साथ सरकार का विरोध कर चुके है हालांकि इन मुद्दे पर कुछ हुआ नहीं ज्यादातर केस फ़र्ज़ी ही पाए गए लेकिन उनको लगता था कि इनमें कुछ घोटाला हुआ है तो जनपक्ष और देश की अच्छाई के लिए उन्होंने जनहित याचिका दाखिल की है। पिछले दिनो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्था के मुद्दे पर भी वो अपनी राय दे चुके है और इसका विरोध करते है कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्था नहीं है। हालांकि यह केस अभी विचाराधीन है अंतिम फैसला माननीय कोर्ट का ही होगा। 
बिहार के डॉन शाहबुद्दीन जब जेल से बाहर आये थे तो प्रशांत भूषण ने ही जनहित याचिका डालकर उनको दोबारा जेल में पहुंचाया था। दरअसल वो हर मुद्दे का विरोध करते है जो उनको ग़लत और तर्कसंगत नहीं लगता है वो ह्यूमनिस्ट होने के कारण किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते है ज़्यादातर केस में उन्होंने जनहित याचिका दाखिल की है और देश के हित में कार्य किए है अब बहुत लोगो के अलग अलग दृष्टिकोण हो सकते है वो दूसरा पहलू है हालांकि इसपर बहस होना चाहिए। 
प्रशांत भूषण पर माननीय कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है जो भी होगा वो सबको मानना पड़ेगा। लेकिन कोर्ट ने उनको तीन दिन सोचने समझने का मौका दिया और माफ़ी मांगने को भी कहा लेकिन उन्होंने कहा यदि मैं ग़लत होता तो माफी मांग लेता जब मैं ग़लत नहीं हूं तो माफी मांगने का कोई फ़ायदा ही नहीं है कोर्ट जो भी सज़ा देगा उसको मैं भुगतने को तैयार हूं। दूसरा उनका तर्क था कि अगर मैं हार मान जाऊंगा तो जो लोग सरकार की आलोचना करते है, लिखते है, बोलते है, उनका हौसला पस्त हो जाएगा और प्रतिरोध की आवाज़ बन्द हो जाएगी फिर एकछत्र राज चलेगा जिससे अंततः देश का नुकसान होगा मानवतावादी ढांचे में कमी आएगी। इसलिए मैं देश के खातिर कुछ भी सहने को तैयार हूं। हमें अपनी संस्थाओं को मजबूत करना है जिससे संविधान की रक्षा हो सके।

जय हिंद
अकरम क़ादरी
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

सुरीनामी राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी ने बढ़ाया भारतवंशियों का मान- अकरम क़ादरी

सुरीनामी राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी ने बढ़ाया भारतवंशियों का मान - अकरम क़ादरी

यह लगभग 05 जून 1834 के आसपास की बात है जब लालारुख जहाज़ कलकत्ता प्रवासी घाट से उत्तर भारतीयों को कैरिबियाई देशों में ले जा रहा होगा तो उन गिरमिटिया मज़दूरों ने सोचा भी नहीं होगा कि जो लोग (डच कॉलोनाइजर) उनको दास बनाकर ले जा रहे है उनकी आने वाली पीढियां कभी उसी देश का नेतृत्व करेंगी। शायद एक श्रमिक के लिए यह सोचना बहुत मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन नहीं है। सूरीनाम जैसे विषय पर शोध एवं आदरणीया पुष्पिता अवस्थी के साहित्य का विश्लेषण करते हुए मुझे महसूस हुआ कि भारतवंशियों की भले ही यह पांच या छः पीढियां हो लेकिन उनकी भारतीयता अभी तक खत्म नहीं हुई बल्कि शोध से पता चलता है वो हमसे ज़्यादा भारतीय है क्योंकि वो आज भी हमारी संस्कृति, सभ्यता, समाज, संस्कार और भाषा को इतनी मज़बूती से पकड़े हुए है कि उनकी कई पीढियां बदल जाने के बाद भी वो नहीं बदले वो मेहनतकश भारतवंशी आज भी कई पीढ़ियों के गुज़र जाने के बाद भी वर्तमान समय के आधुनिकीकरण के दौर में भी आधुनिक खूब हुए लेकिन कभी भी अपनी संस्कृति, संस्कार, तीज़, त्यौहार, परंपराओं से समझौता नहीं किया बल्कि हिंदी भाषा को सीखने के लिए आज भी मंदिर, मस्ज़िद, मठ जाकर वो मन लगाकर सीखते है। भारत का सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में स्थित दूतावास भी उनकी सहायता करता है लेकिन जो कार्य प्रोफ़ेसर पुष्पिता अवस्थी ने 2001 के आसपास जाकर फर्स्ट सेक्रेटरी के रूप में किया वो सच मे काबिले तारीफ़ है उस पर भी गौर करना चाहिए। पुष्पिता अवस्थी ने सबसे पहले उनको भारतीय संस्कृति की अलख को दोबारा प्रज्वलित करने का संघर्ष किया है हालांकि यह उनके डीएनए में मौजूद थी लेकिन उसको सही दिशा देने में पुष्पिता अवस्थी ने साहित्य के माध्यम से जो काम किया वो विशिष्ट है। 
पूरी दुनिया मे छाए हुए भारतवंशियों की हाड़-मास तोड़ देने वाली मेहनत एकाग्रता और मेघा के ही बल पर पूरी दुनिया में अपना नाम रोशन कर रहे है। एक तो भारतवंशी रंग-रूप से तो अलग दिखते ही है फिर भी कुछ नस्लभेदी टिप्पणी करने वाले लोगो की आंखे की किरकिरी भी बने रहते है फिर भी अपनी मेहनत के द्वारा उन्होंने भारत का नाम रौशन किया है। 
सुरीनाम के भारतवंशी आज भी स्वयं को भारतवंशी ही कहलाने में गौरवान्वित महसूस करते है और अपने पूर्वजों की ज़मीन से पहुंचने वाले हर व्यक्ति का सम्मान वैसे ही करते है जैसे हमारे भारत मे होता है।
सुरीनामी की राजनीति में 42 प्रतिशत भारतवंशियों ने स्वयं को वहां सिद्ध किया है उसके अलावा इस छोटे से देश मे चायनीज़, जापानी, नीग्रो, मोरक्की और दूसरे देशों के भी नागरिक रहते है लेकिन गर्व का विषय यह है कि भारतवंशियों का डंका आज भी बज रहा है क्योंकि उसके पीछे उनका असाधारण विवेक, संस्कृति और उस देश के लोगो मे अपनी अलग पहचान को स्थापित करना है। यदि सूरीनाम के भारतवंशियों के बारे में जानने की उत्सुकता है तो पुष्पिता अवस्थी का साहित्य पढ़ना होगा जिसमें उन्होंने सूरीनाम नाम से ही दो किताबे लिखी है जिनमे सूरीनाम का इतिहास एवं भारतवंशियों के संघर्ष का विस्तृत वर्णन मिलेगा। उसके अलावा भारतवंशियों पर लिखे गए एक उपन्यास को भी पढ़ना चाहिए जो 2018 में कुसुमांजलि फॉउंडेशन द्वारा सम्मानित हुआ है। छिन्नमुल उपन्यास पर कई पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक भी प्रकाशित किए है। 
अंततः कहा जा सकता है कि आज संतोखी जो राष्ट्रपति बने है वो भारतवंशियों की एकता, अपनत्त्व का भाव, संस्कृति से प्रेम, भाषा के प्रति अनुराग का ही परिणाम है क्योंकि वो दूसरे देश मे पीढ़ियों से रह रहे है लेकिन उन्होंने भारतीयता को खत्म नहीं होने दिया अपनी पहचान को बनाये रखा। कहा जाता है मानसिक रूप से हमे आधुनिक होना चाहिए लेकिन अपनी संस्कृति, संस्कार को कभी नहीं छोड़ना चाहिए इसी कारण भारतवंशी विश्वपटल पर अपने को स्थापित कर रहे है और देश को गौरवान्वित महसूस करा रहे है। 
सूरीनाम के राष्ट्रपति ने शपथ वेद को हाथ मे लेकर ली हालांकि वहां की राजनीति में धर्मगत गठजोड़ नहीं है, ना ही किसी भी प्रकार से धर्म से नफरत की राजनीति की जाती है फिर भी अपने संस्कार को अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने के लिए ऐसा किया है कि मैं अपने देश के प्रति वफादार हूं और ईमानदारी से देश की सेवा करूँगा।
समाज का एका बनाने में  साहित्य की महती भूमिका है। अगर पुष्पिता अवस्थी जी द्वारा हिंदुस्तानियों के साहित्य को संग्रहित कर ,उनपर 15 वर्षों से लेखन कर जो महान कार्य किया गया है। उसका परिणाम आज
सामने है उन्होंने 2003 में साहित्य मित्र, और विद्यानिवास सूरीनाम साहित्य सन्स्थान, का गठन किया। जहाँ से शब्द -शक्ति और हिंदीनामा पत्रिका का प्रकाशन किया साथ ही यह वही पुष्पिता अवस्थी है जिन्हें कवि और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भेजते समय यह कहा था इस बार मै एक कवि को भेज रहा हूँ और उन्होंने वहाँ सातवे विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित करने में सरकार के साथ मिलकर इसे सिद्ध कर दिया। भारतीय सांस्कृतिक केंद्र ,सूरीनाम में बतौर हिंदी प्रोफेसर सृजनात्मक काम करके देश का नाम  रौशन किया।

जय हिंद

अकरम क़ादरी
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

अवाम की ज़ुबान थे, राहत इंदौरी - अकरम क़ादरी

अवाम की ज़बान थे, राहत इंदौरी- अकरम क़ादरी

बहुत से शायर, कवि गुज़रे है, जिन्होंने समसामयिक राजनीति या मुद्दों पर खुलकर बोला, लिखा है और जो बोला वो कड़वा सच भी था लेकिन कभी सत्ता वालो ने उनके साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया बल्कि उनसे सीख लेकर अच्छा करने का प्रयास किया, अगर अच्छा नहीं कर पाए तो खामोश रहे लेकिन कभी कुतर्क नहीं किया उनको जेलों में नहीं पहुंचाया उनपर संगीन धाराएं नहीं लगाई बल्कि आलोचना (तनक़ीद) को सिर माथे पर लेकर उनके सजेशन को समझा वाद-विवाद हुआ, कुछ अच्छा निकल कर आया जिससे मानवता का लाभ हुआ।
 डॉ. राहत इंदौरी कबीर के मानिंद एक फक्कड़ शायर, जनमंच की कड़वी और सच्ची आवाज़, जनपक्ष का नायक, दुनियाभर के मुशायरों की जान, मिजाज़ से ज़िद्दी, मीडिया की बुज़दिली के आलोचक, मज़हब के दौर में उसकी पहचान की राजनीति के घोर विरोधी।
राहत साहब इस देश मे धर्म निरपेक्षता के पक्षधर शायर थे, जो अपनी शायरी के माध्यम से शानदार कटाक्ष करते थे जिसको बहुत कम लोग समझते थे, जो समझते थे- वो बहुत हंसते थे और सोचने को मजबूर  भी हो जाते थे, जो कहना चाहते है वो कह चुके है और सत्ता के कानों तक उनकी आवाज़ पहुंच भी रही है जिसमे उन्होंने मशहूर शेर भी कहा है-
"हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते है।
मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते है।।"
इस शेर के माध्यम से वर्तमान स्थिति को बताना चाहते थे कि आखिर किस तरह से एक अल्पसंख्यक तबके को परेशान करने की साज़िश चल रही है। फिर भी वो इस देश की मिट्टी से बेइंतेहा मोहब्बत का सबूत पेश करते करते थक गया है लेकिन बहुसंख्यकवाद की राजनैतिक लोलुपसा ने देश को बर्बादी की तरफ मोड़ दिया है। वो हमेशा मंच, मुशायरों के माध्यम से देश के सभी राजनेताओ को हमेशा देश की उन्नति का संदेश देते रहे क्योंकि एक शायर रास्ता ही बता सकता है लेकिन अमल करना या नहीं करना यह राजनेताओ पर होता है। आजकल राजनेता के कान में जूं भी नहीं रेंगती है क्योंकि उनको पता है कि उनका सेक्युलरिज्म से कुछ नहीं होने वाला है उन मुद्दों को हवा दो जिससे उनका मकसद पूरा हो जिसमे वो कटाक्ष लहज़े में कहते भी है- 
"जुगनुओं को साथ लेकर रात रौशन कीजिये।
रास्ता सूरज का देखो तो सहर हो जाएगी।।"
इस शेर के ज़रिए वो कहना चाहते है कि देश मे अल्पसंख्यक नाम के जो छोटे छोटे जुगनू है उनको भी साथ लेकर चलो जिससे उजाला निश्चित ही होगा लेकिन तुम जिस सूरज को साथ लेकर चल रहे हो उसका अस्त होना निश्चित है और उसके ज़्यादा पास जाओगे तो जल भुन जाओगे इसलिए नफ़रत का रास्ता छोड़ो, देश को मोहब्बत से जोड़ना सीखिए इसी संदर्भ में वो कहते है कि- 
"मिरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे।
मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले।।"
भारत मे मोहब्बत के पैरोकार के रूप में राहत साहब को पहचाना जाता है, वो चाहते थे कि सभी लोग इस देश मे उसी मोहब्बत से रहे जिस मोहब्बत से अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ लड़कर उनको भगाया था, भाईचारा, प्रेम, मोहब्बत देश का गौरव है इसको बचाकर रखिये वरना आने वाला समय बहुत खराब होगा आज देश के पड़ोसी चारो तरफ से हमारे दुश्मन बने हुए है क्योंकि उनको पता है हमारे देश मे राजनेता अंदरूनी कलह को ज़िंदा रखना चाहते है पहले वो धर्म के नाम पर बांटते है फिर जाति, वर्ण के नाम पर भेद करते है फिर भी अगर पेट नहीं भरता या अभिलाषा पूरी नहीं होती है, तो क्षेत्र के नाम पर बांटकर अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करते है। पहले के नेता देश को जोड़ने की बात करते थे, लेकिन आज के नेता देश को तोड़ने की बात करते है। बहुसंख्यक राजनीति को वरीयता देते है हर पार्टी विशेष ने अपने-अपने खांचे तैयार कर लिए है अगर उन खांचों पर कोई मुद्दा फिट बैठता है तो उस पर आवाज़ उठाते है वरना खामोश रहते है। जिससे देश की धर्मनिरपेक्ष आत्मा को आघात पहुंचता है देश का ताना-बाना टूटने का डर बना रहता है जिस पर वो स्वयं कहते है - 
"घर के बाहर ढूंढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है"
इस दौर में मतलबी अदब के लोगो को उन्होंने अपने तरीके से जवाब दिया है क्योंकि इस देश मे अनेक अदब वालो की संस्थाएं है- लेकिन बहुत कम संस्थाएं आज दलित, आदिवासी,महिलाओं और अल्पसंख्यकों की आवाज़ को उठाती है अपनी अदब बिरादरी को भी ललकारते हुए वो कहते है कि-
"हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे।
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते।।" 
साहित्य जगत से वो कहना चाहते है जिस प्रकार से वर्तमान समय मे ज्यादातर लेखक सहित्य से जुड़े लोग सरकारो की ग़ुलामी में लगे है देश की मानवता का चीर-हरण हो रहा है वो खामोश है उससे भी देश को बहुत खतरा है। हमे मिलकर एकजुट होकर देश को बचाने का प्रयास करना चाहिए सबको बिना किसी लाग-लपेट, धर्म-जाति, वर्ण-विभेद, ऊंच-नीच के देश की अखण्डता, एकता, संप्रभुता को बचाने का प्रयास करना चाहिए। 
एक जिंदादिल शायर जिसने अपना बचपन बहुत तंगियो में गुज़ारा फिर भी कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की खामोशी से इतनी मेहनत की इस देश का नाम पूरी दुनिया मे रौशन किया हर जगह इसकी पहचान को ज़िंदा रखा लेकिन जब भारत मे मुशायरा पढ़ा तो इश्क-मोहब्बत की शायरी भी की और सियासी तंज़ का भी जादू बिखेरा जो आज भी प्रासंगिक नज़र आती है। 
"बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए।
मैं पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिए।।"
हिंदुस्तान के महबूब शायर के बारे में ज़्यादा लिख पाना मेरे बस की बात तो नहीं है लेकिन कुछ बातों को बताने का प्रयत्न ज़रूर किया है यह वो अज़ीम शायर था जिसको उसके दुश्मन भी इस्तेमाल करते थे और दोस्त भी, राहत इंदौरी ने कभी तुकबंदी और मंचीय शायरों को ज़्यादा तरज़ीह नहीं दी क्योंकि जो लोग केवल तुकबंदी करके जनता की भावनाओ को बस में करके उनको केवल भावुक करदे वो इसके ख़िलाफ़ थे बल्कि वो चाहते थे कोई भी मुशायरे में आये तो वो कुछ सीखकर जाए जो उसको तमाम उम्र काम आए आजकल ज्यादातर मुशायरों में फालतू की भगदड़, हू-हल्ला बचा है इसलिए एक दो शायर के साथ उन्होंने मंच शेयर करना बंद कर दिया था क्योंकि उन मुशायरों में वही लोग होते थे जो भावुक होते है लेकिन जहां गम्भीर और सीरियस लोग मुशायरा सुनने आते थे वहां पर राहत साहब ज़रूर जाने की कोशिश करते थे। आखिर में हिंदुस्तान की मोहब्बत के लिए उन्होंने जो शेर लिखा है उसको इस देश के सभी वर्गों को समझना चाहिए 
"मैं मर भी जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना।
लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना" 
राहत साहब ने तमाम उम्र अवाम के बीच में  रह कर अवाम की अवाज़ उठाई, उन के शेर हिन्दुस्तान के बच्चे बच्चे की ज़बान पर रटे  हुए थे, पिछ्ले कुछ  दिनों  में  उनकी ग़ज़ल  का एक शेर बहुत चर्चा में  रहा,
बुलाती है मगर जाने का नई
ये दुनिया है इधर आने का नई
बाद में  इस ग़ज़ल  पर राहत साहब ने बहुत से शेर जोड़े,  जिन में ये शेर अवाम के अन्दर के हौसले को ज़िन्दा रखने के लिए सदियों  तक याद किया जाता रहेगा
वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर ज़ालिम से डर  जाने का नई

डॉ. अकमल पीलीभीती का यह शेर राहत इन्दौरी की अचानक मौत के भाव को प्रदर्शित करता है-
अब तेरे शहर में  रुकने की इजाज़त ही नहीं, 
जा बचाने को कोई रख्त-ए-सफ़र चाहता  है


अकरम क़ादरी
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट

बुधवार, 5 अगस्त 2020

नई शिक्षा प्रणाली से कैसे पैदा होंगे शास्त्री और कलाम- अकरम क़ादरी

नई शिक्षा प्रणाली से कैसे पैदा होंगे शास्त्री और कलाम - अकरम क़ादरी

देश में एक लंबे अरसे के बाद नई शिक्षा नीति आई, लेकिन इसमें सबकी प्रतिक्रियाएं अलग-अलग नज़र आई. कुछ सत्ता के लोभी लोगों ने इसको बग़ैर किसी विश्लेषण एवं दूरदृष्टि के अद्वितीय घोषित कर दिया तो कुछ विपक्षियों ने हल्के-फुल्के अंदाज़ में विरोध किया लेकिन हकीकत कोई भी सामने नहीं रख सका. इस दौर में जहाँ एक तरफ़ वैश्विक महामारी (दुनियावी वबा) है जिसकी वजह से सड़कें सूनी है. उन पर जनपक्ष के लोगों का विचरण नहीं हो रहा है. कोई भी कुछ बोलने को राज़ी नहीं है. फिर भी ज़्यादा ना लिखते हुए चन्द बातों की तरफ ध्यान दिलाना चाहूंगा कि यह जो शिक्षा नीति है, इससे शिक्षा का बाज़ारीकरण हो रहा है जिसको देश के बड़े-बड़े पूंजीपति चलाएंगे, जिसके कारण देश के गरीब, मज़दूर, किसान, आदिवासी, दलित और 'सलीम' पंचर वाले क़ा बच्चा नहीं पढ़ पायेगा क्योंकि मुझे लगता है आत्मनिर्भर बनाने के चक्कर मे शिक्षा को तीन हिस्सों में विभाजित कर दिया गया है जिसमें रिसर्च यूनिवर्सिटीज को स्वायत्तता प्रदान की गई है जिसका सीधा मतलब पूंजीवाद से है जिसको अंग्रेज़ी में फाइनेंशियल ऑटोनोमी कहते है इसके तहत किसी भी यूनिवर्सिटी को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने ख़र्चों को खुद उठाना होगा जिससे जो शिक्षा गरीबों, दबे, कुचलों को मिल रही थी शायद वो ख़त्म हो जाएगी, उसकी जगह पर केवल अमीर के ही बच्चे पढ़ सकेंगे और "गुदड़ी के लाल" वाली कहावत समाप्त हो जाएगी. फिर जो लाखो रुपये में रिसर्च या पढ़ाई करेगा तो वो क्यों ना ज़्यादा पैसा कमाने की बात करेगा जिसके लिए वो चित-अनुचित सारे काम करेगा, प्राइवेटाईज़ेशन को बढ़ावा मिलेगा. पब्लिक फंडेड यूनिवर्सिटीज़ को बंद कर दिया जाएगा. फिर अगर आपके पास पैसा होगा तो आप पढ़ाइये वरना जो मेहनत मजदूरी बाप करता था वही मेहनत मज़दूरी बच्चा करेगा जिससे देश का असली टैलेंट मारा जाएगा. नेपोटिज़्म और फ़ेवरटिज़्म को बढ़ावा मिलेगा. 
जिस प्रकार से एक गरीब मछुआरे का बेटा साइंटिस्ट बनकर राष्ट्रपति  कलाम बन गया, एक गुदड़ी का लाल "लाल बहादुर शास्त्री" देश का प्रधानमंत्री बन गया, एक चाय वाला भी प्रधानमंत्री बन गया तो क्या आने वाले समय में यह सोचा जा सकता है- जब शिक्षा महंगी हो जाएगी हम ऐसे साइंटिस्ट, राजनेता, उद्यमी, पब्लिक सर्वेंट पैदा कर पाएंगे जो देश को ख्याति प्रदान करे, जिससे देश विकास कर सके, शायद बहुत मुश्किल है फिर भी नामुमकिन नहीं है क्योंकि जो खुशबू होती है वो बाहर ज़रूर आती है. कुछ परेशानियां तो महसूस होती है लेकिन संघर्ष का फल बहुत अच्छा होता है. ऐसे प्रतिभावान लोग अपने दादा, परदादा, बाप की संपत्ति बेचकर शिक्षा ग्रहण करेंगे और  कोशिश करेंगे कि दूसरे लोगो के बराबर आ सके. देश में जितने भी मोस्ट सक्सेसफुल लोग हुए हैं वो ज़्यादातर गरीब, मज़दूर ही रहे है चाहे वो कोई भी हो इस शिक्षा नीति से मुझे नहीं महसूस होता है. ऐसे लोगों को बढ़ावा मिलेगा बल्कि इनके हौंसलो को कम किया जाएगा. इनको शिक्षा की पहुंच से दूर रखकर वो लोग सत्ता पर काबिज रहेंगे क्योंकि बाबा अम्बेडकर जी ने कहा था "शिक्षा वो शेरनी का दूध है जी पियेगा वो शेर की भांति दहाड़ेगा" जब वो पढ़ेगा ही नहीं तो बोलेगा कहाँ से फिर एक समय ऐसा आ जायेगा कि वो स्वयं को ज़िंदा रहने को ही बड़ी उपलब्धि मानकर ख़ामोश रहेगा. डेमोक्रेसी का धीरे-धीरे गला दबा दिया जाएगा. सत्ता में बैठे लोग हमेशा उस कुर्सी का मज़ा लेंगे. गरीब, मज़दूर, किसान, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक केवल मेहनत करेंगे और दो वक्त की रोटी का इंतेज़ाम करते रहे जाएंगे.

मुझे उमीद थी कि जब नई शिक्षा नीति आ रही है तो कुछ अच्छा होगा उसमे देश को फ्री शिक्षा दी जाएगी जो के.जी. से लेकर पीएचडी तक होगी क्योंकि शिक्षा लेना एक फंडामेंटल राइट के तहत आता है लेकिन यहां बहुत से अधिकार पहले ही छिन चुके है अब व्यापारी बनाने की कोशिश हो रही है.

स्कूल के मुख्य दरवाजे पर लिखा देखता हूँ "शिक्षार्थ आइये, सेवार्थ जाइये" शायद वो अब हो जाएगा बाज़ारीकरण में आइये, व्यापारी बनकर जाइये" इससे सामाजिकता को तहस-नहस किया जा सकता है। 
सामाजिक बन्धुता को नुकसान पहुंच सकता है। देश की शिक्षा व्यवस्था को व्यापारीकरण से रोकना चाहिए पूंजीवाद जो शिक्षा व्यवस्था पर गिद्ध की तरह नज़रे गड़ाए बैठा है उसके मंसूबो को खत्म करना चाहिए। इसका उदाहरण एक वो यूनिवर्सिटी है जो अभी तक ज़मीन में आई ही नहीं है और उसको "यूनिवर्सिटी ऑफ एमिनेंस" का दर्जा मिल चुका है। लाखो करोड़ो रूपये उसको सत्ताधीशों ने दे दिए है क्या वो लोग गरीब, मज़दूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों के साथ साथ महिलाओं को फ्री में शिक्षा दे पाएंगे। जबकि अज़ीम प्रेमजी ने शिक्षा के विस्तार के लिए पूरे देश मे ऐसे फैलाया है कि उनके वालंटियर सरकारी स्कूलों में जाकर पढ़ाते है, गरीबो की मदद करते है कोई उनसे पैसा नहीं लेते है। क्योंकि वो शिक्षा को आम करना चाहते है हर गरीब के बच्चे को मजबूत आधार देना चाहते है जिससे देश नए आयाम स्थापित करे और विकास के पथ पर अग्रसर हो सके।
जय हिंद