शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

त्रिमूर्ति करेगी गुजरात की सल्तनत का फैसला- अकरम हुसैन क़ादरी

त्रिमूर्ति करेगी गुजरात की सल्तनत का फैसला - अकरम हुसैन क़ादरी
गुजरात चुनाव आजकल पूरे देश के लिए एक कौतूहल का विषय बना हुआ है जिस प्रकार से बड़े बड़े मीडिया घराने एडके लिए अनेक प्राइम टाइम, हल्ला बोल, ताल ठोक के कर रहे है उससे ज़ाहिर होता है कि यह चुनाव कुछ ज्यादा ही मायने रखता है क्योंकि उसका सबसे बड़ा राज़ यह भी है देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी उसी गुजरात के मुख्यमंत्री के बाद अब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे है वैसे तो भारतीय राजनीति में उत्तर-प्रदेश का प्रधानमंत्री देने में प्रथम स्थान है लेकिन काफी समय बाद गुजरात की धरती से देश को प्रधानमंत्री मिला है वो भी गुजरात मे भाजपा के 22 साल के कार्यकाल के बाद ।
जिस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री को दिल्ली बादशाहत मिली उसके बाद गुजरात की राजनीति में एक अजीब तरीके की उथल पुथल मच गई जिसके कारण सत्तारूढ़ भाजपा कमज़ोर होने की कगार पर पहुंच गई उसके बाद अनेक सामाजिक संगठनों ने भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया 2014 में दिल्ली की बादशाहत मिलने के बाद आनंदीबेन और रूपानी के कार्यकाल में अनेक ऐसी दिल को दहला देने वाली घटनाएं हुई जिससे भाजपा लगातार कमज़ोर होती चली गयी
भाजपा को कमज़ोर करने में सर्वप्रथम गुजरात के पाटीदार समाज के 23 वर्षीय हार्दिक पटेल ने आरक्षण के मुद्दे को उठाकर कमज़ोर किया है क्योंकि वो चाहते है कि गुजरात के साढ़े छः करोड़ आबादी में पाटीदारों का लगभग 14 से 17 परसेंट आबादी है जो कि सामाजिक, राजनैतिक तौर पर मजबूत भी है काफी बीजेपी कैबिनेट में मिनिस्टर भी है फिर भी आरक्षण चाहते है और एक ही आवाज़ में 23 वर्षीय हार्दिक पटेल पांच लाख जनता को इकट्ठा करके धरना प्रदर्शन करते है और बीजेपी से पाटीदारों को आरक्षण देने की मांग को मजबूती से रखते है जिसको भाजपा नकार देती है और हार्दिक पटेल पर अनेक धाराओं के साथ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा भी लगा देती है तथा प्रदर्शन करते हुए लगभग 10 से 12 पाटीदार समाज के युवाओं को पुलिस कार्यवाही में अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है जिससे पाटीदार समाज मे एक रोष उतपन्न हो जाता है तथा वो भाजपा को आगामी चुनाव यानी 2017 के चुनाव में धूल चटाने के लिए तैयार हो जाते है जिसके अब चुनाव के समय साफ आसार भी नज़र आ रहे है ।
गुजरात चुनाव में सबसे अहम किरदार निभाने वाले अल्पेश ठाकुर है वो पिछड़ा वर्ग से आते है उनकी संख्या लगभग 40 परसेंट है जोकि गुजरात चुनाव से पहले बीजेपी का अहम हिस्सा थे उन्होंने भी आरक्षण के चलते भाजपा से बगावत का बिगुल फूँक दिया है जो बीजेपी को सत्ता के बेदखल करने मुख्य भूमिका में नज़र आ रहे है।
ऊना कांड से सुर्खियों में आये जिग्नेश मेवानी भी दलित समाज के नए नेता बनकर उभरे उन्होंने दलितों पर हो रहे अत्याचार का मुद्दा उठाया तथा अपने समाज को नई दिशा देने की सोच को लेकर आगे बढे, जिस प्रकार से सवर्णों ने गौरक्षा के नाम पर अनेक तथाकथित राष्ट्रभक्त संगठन बनाकर दलितों पर अत्याचार किया वो जगजाहिर है जिससे दलितों को एक माला में पिरोने के लिए जिग्नेश मेवानी ने अपनी ऐड़ी चोटी का जोर लगाया और उनको एक सूत्र में बांधकर ऊना कांड के दंरिन्दों को सबक सिखाने की कोशिश की तथा उसके विरोध के लिए मरी हुई गायों को शवो को अनेक कार्यालयों के सामने लाकर फेंक दिया जिससे भाजपा सरकार बैकफुट पर आ गयी, लेकिन सवर्णों ने फिर भी दलितों के साथ न्याय नही किया है बल्कि पॉलिटिकल उनटचबिलिटी का शिकार बनाया गया, दलितों की संख्या पूरे गुजरात मे लगभग 7 से 8 परसेंट गई जो हमेशा भाजपा को वोट देते है इसबार वो भी अलग राग अलाप रहे है और कह रहे है जो भी उनको सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय दिलाने की बात करेगा वो उनके ही साथ जाएंगे लेकिन भाजपा को ज़रूर हराएंगे जिससे उनका गुरुर टूट सके और उनको मालूम हो जो उनको सत्ता तक पहुंचा सकते है वो उनको सत्ता से चुटकियों में बेदखल भी कर सकते है ।
अफसोस की बात यह है कि 2002 का गुजरात नरसंहार झेलने वाले मुस्लिम अब भी नींद की गोलियां खाकर सो रहे है अभी तक गुजरात चुनाव में उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नज़र नही आया है ना ही उनको कोई भी राजनैतिक पार्टी अपना वोट बैंक समझ रही है बस उनको दबा, कुचला, सताया हुआ समझ कर कांग्रेस उनको अपना वोट बैंक समझ रही है लेकिन उनको सत्ता में कोई हिस्सेदारी देने की बात नही कर रही है क्योंकि ऐसे कयास लगाए जा रहे है यदि मुस्लिमो की बात की गई तो चुनाव हिन्दू-मुस्लिम हो जाएगा जिससे अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को ही फायदा होगा, भाजपा की यह पूरी कोशिश है कि चुनाव मुद्दों पर ना लड़कर हिन्दू मुस्लिम पर लड़ा जाए जिससे उसको फिर से गुजरात की सल्तनत मिल जाये लेकिन हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी हर प्रकार से भाजपा को सत्ता से बेदखल करना चाहते है ।
भाजपा की हार में नोटबन्दी, GST भी अहम भूमिका अदा कर सकते है अभी चुनाव कराने की घोषणा हो चुकी है लोकतंत्र में जनता का फैसला सर्वोपरि होता है फिर भी त्रिमूर्ति, नोटबन्दी, GST अहम भूमिका निभाने के लिए तैयार बैठे है रिजल्ट का इंतेज़ार है
जय हिंद
अकरम हुसैन क़ादरी

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

बहुचर्चित उपन्यास 'हलाला' पर डॉ. फ़िरोज़ अहमद की उपन्यासकार 'भगवान दास मोरवाल' से बातचीत... कुछ अंश ......

कथाकार भगवानदास मोरवाल से डॉ.एम.फ़िरोज़ अहमद की  बातचीत …कुछ अंश......
1- आप अपने जन्म स्थान घर परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में विस्तार से बताइए...?
- मेरा जन्म हरियाणा के काला पानी कहे जाने वाले मेवात क्षेत्र के छोटे-से क़स्बा नगीना के एक अति पिछड़े मज़दूर और इस धरती के आदि कलाकार कुम्हार जाति के बेहद निम्न परिवार में हुआ l अपने मेरे घर-परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा है l अभी हाल में मैं अपने क़स्बे में गया हुआ था, तो संयोग से कुम्हार जाति की वंशावली का लेखा-जोखा रखने वाले हमारे जागा अर्थात जग्गा आ पहुँचे l मैंने जब इनसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा, तब इन्होंने कुछ ऐसी जानकारी दी जो मेरे लिए लगभग अविश्वसनीय थीं l जैसे इन्होंने बताया की हमारे मोरवाल गोत्र के पूर्वज उत्तर प्रदेश के काशी के मूल निवासी थे l काशी से पलायन कर बनारस आये l इसके बाद बनारस से पलायन कर सैंकड़ों मील दूर दक्षिण हरियाणा के बावल क़स्बे, जो रेवाड़ी के पास है, यहाँ आये l बावल से चलकर ये दक्षिण दिल्ली के महरोली, महरोली से पलायन कर सोहना (गुडगाँव) के समीप इंडरी गाँव और अंत में यहाँ से चलकर दक्षिण हरियाणा के ही मेवात के इस क़स्बे में जाकर पनाह ली l अपने आप को ऋषि भारद्वाज के वंशज कहलाने वाले इन जागाओं की बेताल नागरी में लिखी इन पोथियों में यह भी दर्ज़ है कि मेरे सड़दादा गंगा राम के पाँच बेटे थे l इनमें से तीसरे नंबर के पल्टू राम के बेटे सुग्गन राम औरसुग्गन राम के चार बेटों में से दूसरे नंबर के बेटे मंगतू राम के तीन बेटों में से दूसरे नंबर का बेटा भगवानदास l मुझ समेत हम तीन भाई और दो बहनें हैं l मैं यहाँ एक बात बता दूं कि हमारा पुश्तैनी काम मिटटी के बर्तन बनाना था, जो 1985 तक रहा l
 मेव (मुसलमान) बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण मेरे क़स्बे और मेरे क़स्बे का वह चौधरी मोहल्ला भी मेव बाहुल्य मोहल्ला हैl यहाँ एक रोचक जानकारी दे दूँ कि मेरे इस चौधरी मोहल्ले का नामकरण हिन्दुओंके चौधरियों के नाम पर नहीं है बल्कि मेव चौधरियों के नाम पर है l मेरे घर के सामने अगर ऐसा ही मेव चौधरी का घर है, तो बाएंतरफ भी ऐसा ही घर है l जबकि हमारे घर का पिछवाड़ा मुसलमान लुहारों से आबाद है l अपने परिवार में उस समय के हिसाब से मैं एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था l हालाँकि अपनी क्षमता के अनुसार मैंने अपने दोनों बच्चों अर्थात बेटा प्रवेश पुष्प जिसकी शिक्षा एमसीए है, तो बेटी नैया ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी में पीएच.डी किया हुआ है l वैसे मैंने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में अपनी स्मृति-कथा की जेठ का गुलमोहर में भी विस्तार से लिखा हुआ है l
2. आप की शिक्षा-दीक्षा कहां से हुई और कहां तक...?

- मेरी प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्बे में हुईl हाँ, स्नातक मैंने मेवात के जिले और प्रमुख शहर नूहं से की है l बाकी की शिक्षा जिसे 'शिक्षा' कहना उचित नहीं होगा, ऐसे ही चलते-चलाते पूरी की l स्नातक के बाद पहले राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया l इसके बाद यहीं से हिंदी में एम.ए. किया l बस, मेरठ विश्वविद्यालय से 'हिंदी पत्रकारिता में दिल्ली का योगदान' विषय में पीएच.डी. होती-होती रह गयी l
3. आपकी प्रिय विधा कौन सी है और क्यों....??
- जहां तक मेरी प्रिय विधा का प्रश्न है तो इस समय निसंदेह मेरी प्रिय विधा उपन्यास है l इसका एक कारण यह है कि एक लेखक द्वारा जिस तरह एक विधा साधनी चाहिए, शायद वह मुझसे साध गयी है l इसका प्रमाण पिछले कुछ सालों में एक के बाद तीन उपन्यासों के रूप में देखा जा सकता है l जबकि आगामी उपन्यास पर धीरे-धीरे काम हो रहा है l मुझे लगता है एक लेखक के रूप में, मैं जितना सहज अपने आपको उपन्यास में पाता हूँ उतना शायद दूसरी विधा में नहीं l इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि जीवन-जगत को प्रस्तुत करने के लिए जिस आख्यान की ज़रुरत होती है, उपन्यास उसे बखूबी अपना विस्तार प्रदान करता है l दूसरे शब्दों में कहूं तो मेरी जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि है उसके दुखों, संतापों और आक्रोश को मैं उपन्यास के माध्यम से ही व्यक्त कर सकता हूँ lइसीलिए मैं जितना अपने व्यक्तिगत जीवन में निर्मम हूँ, उतना ही अपनी रचनाओं में हूँl प्रपंच या नकलीपन न मेरे असली जीवन में है, न मेरी रचनाओं में आपको नज़र आएगा l सच कहूं अब मैं उपन्यास को नहीं जीता हूँ बल्कि उपन्यास मुझे जीता है l मेरी रचनाओं और उनके पात्रों में आपको वह दुविधा या दुचित्तापन दिखाई नहीं देगा जो एक लेखक को कमज़ोर बनाता है l
4. हलाला उपन्यास लिखने का उद्देश्य किया था...?
- आपने हलाला के लिखने के उद्धेश्य के बारे में पूछा है l मेरा मानना है कि किसी भी लेखक से उसके लिखने के उद्धेश्य के बारे में नहीं पूछना चाहिए लेखक या रचनाकार किसी उद्धेश्य को ध्यान में रखकर नहीं लिखता है l क्या प्रेमचन्द ने गोदान, रेणु ने मैला आँचल, राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव, अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बीनी-बीनी झीनी चदरिया, भीष्म साहनी ने तमस, श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी, अज्ञेय ने नदी के द्वीप किसी उद्धेश्य के तहत लिखे होंगे - नहीं l दरअसल, रचना किसी उद्धेश्य का प्रतिपाद नहीं बल्कि एक लेखक के अंदर अपने समाज में देखी गयी विसंगतियों से पनपे द्वन्द्वों का सत्य होता है l यह वह सत्य होता है जिसे एक व्यक्ति महसूस तो करता मगर उसे व्यक्त नहीं कर पाता l एक लेखक वास्तव में उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व या कहिए ऐसा प्रतिरूप होता है जो एक पाठक को अलग-अलग पात्रों केरूप में नज़र आता है l उसके लिए धर्म-संप्रदाय या स्त्री-पुरुष मायने नहीं रखते हैं बल्कि उसके लिए उनके दुःख-दर्द और सरोकार कहीं ज़्यादा मायने रखते हैं l एक बेहतर कल्पना उसके लिए कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है l इसलिए यह कहना की हलाला लिखने मेरा क्या उद्धेश्य रहा होगा, इसे आपने उसे पढ़ कर जान और समझ लिया होगा l
5. क्या यह सब लिखने के लिए आपने किसी मुस्लिम महिला से मुलाकात की थी?
-आपने पूछा कि इसे लिखने के लिए मैंने किसी मुस्लिम महिला से मुलाक़ात की थी? ‘हलाला’ की पृष्ठभूमि मेवात की होने के कारण पाठक को ऐसा लगता है मानो हलाला की रस्म मेवात में प्रचलित है l सच तो यह है कि मेवात में यह रस्म बिल्कुल भी चलन में नहीं है l मैंने आज तक हलाला से संबंधित एक भी मामला न देखा न हीं सुना l अब आप पूछेंगे कि फिर आपने इसे मेवात की कहानी क्यों बनाया ? इस पर मैं पलट कर आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसी समस्याएँ सिर्फ़ मेवात की हो सकती हैंl मेवात से बाहर का मुस्लिम समाज ऐसी समस्याओं से नहीं जूझ रहा होगा ? इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मेवात देने का कारण मात्र इतना है ही कि मैं उस समाज को गहरे तक जानता हूँ l अपने लेखकीय कौशल का इस्तेमाल कर मैं अपनी बात को अपने चिर-परिचित पात्रों के माध्यम से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से कह सकता हूँ l सच तो यह कि तलाक़ या हलाला जैसी समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ हैं जिन्हें हमने धार्मिकता का वारन ओढा कर और विकराल बना दिया l इस विकरालता को और भयानक हमारे उन मर्दों ने बना दिया जो औरत को महज एक उपभोग की वस्तु और अपनी जागीर मान बैठा है l 
लेखक का पाने पात्रों में ढालना या कहिए परकथा में प्रवेश करना ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है l अगर यह उपन्यास काल्पनिक होते हुए भी कुछ सवाल उठाता है तो लेखक के साथ-साथ यह इसकी भी सफलता है l
6. हलाला उपन्यास लिखने के लिए क्या आपने कुरान या हदीस को पढ़ा था?
-यह आप अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी रचना या उपन्यास पर काम करने से पहले एक शोधार्थी की तरह मैं अपनी क्षमता और समझ के मुताबिक़ पूरी मेहनत करता हूँ l विषय से संबंधित हर तरह की उपलब्ध साहित्य और सामग्री का अध्ययन करता हूँ l उपन्यास ‘हलाला’ पर काम शुरू करने से पहले इस रस्म से संबंधित कुरआन की आयतों को खोजा, तो कुरआन में इससे संबंधित सूरा अल-बक़रा की मुझे सिर्फ़ 230वीं एक आयत मिली l बाकी हलाला के बारे में मुझे कोई दूसरी आयत नहीं मिलीl इस आयत को मैं हू-ब-हू यहाँ प्रस्तुत कररहा हूँ – ‘तो यदि उसे ‘तलाक़’ दे दे, तो फिर उस के लिए यह स्त्री जायज नहीं है जबतक कि किसी दूसरे पति से निकाह न करले l फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो फिरइन दोनों के लिए एक-दूसरे की ओर पलटआने में कोई दोष न होगा l’ 
इसे और स्पष्ट करने के लिए कुरआन में लिखा गया है –‘यह दूसरा पति यदि उसे छोड़ दे या उसकी मृत्यु हो जाए, तो यह स्त्री अपने पहले पति के साथ फिर से विवाह कर सकती है l ‘ इस आयत का अलग-अलग कोणों से अध्ययन करने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न यह उठा कि अगर कुरआन में ऐसा कहा गया है, तो फिर दूसरे पति से निकाह के बाद उससे सहवास की बात कहाँ से आयी l हालाँकि कुरआन से इतर दूसरे धार्मिक ग्रन्थ जैसे हदीस में इसे क्यों और कहाँ जोड़ा गया कि औरत दूसरे शौहर के लिए उस वक़्त तक हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उसके साथ न कर ले l अगर मैं एक आम मुस्लिम के नज़रिए से सोचूँ तो मेरे भीतर इस सवाल का उठाना स्वाभाविक है कि जब कुरआन में ऐसा कहीं है ही नहीं तो दूसरे पति से सहवास का क्या मतलब है l जहाँ तक हदीस की बात है और जितना मुझे पता है हदीस का आधार भी कुरआन ही है l अब हम यदि कुरआन को एक मुक्कदस आधार ग्रन्थ मानते हैं तो जो बात उसमें है ही नहीं वह कहाँ से आयी l जबकि इसके बरअक्स दूसरे ग्रन्थों में सहवास का न केवल उल्लेख किया गया है बल्कि एक आम मुसलमान को जिस तरह समझाने की कोशिश की गयी है, उसमें मर्दवादी सोच पूरी तरह निहित है l जैसे सैयद अबुल आला मौदूदी की एक पुस्तक में हलाला के बारे में कहा गया है – नबी सल्लाहेवलेअस्ल्लम  ने साफ़ कहा है कि हलाला के लिए केवल दूसरा निकाह ही काफी नहीं है, बल्कि औरत उस वक़्त तक पहले शौहर के लिए हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उससे सहवास का स्वाद न चख ले l इसी तरह मैंने एक पत्रिका इसलाहे समाज में पढ़ा था कि...दूसरा शौहर उससे सहवास का मज़ा ना चख ले l 
अब आप देखिए कि कुरआन की मूल आयात का अर्थ एक पुस्तक से होता हुआ एक  रिसाले तक आते-आते कितने चटखारे और मसालेदार हो गया ? मेरी नज़र में इस रस्म को घृणित और एक तरह से पूरी तरह स्त्री विरोधी उसके बाद के इन अर्थों और व्याख्याओं ने बना दिया है l चूंकि हमारा आम समाज और आम नागरिक अपने धार्मिक दानिशवरों पर बहुत भरोसा करता है इसलिए जब स्वाद और मज़ा उन तकसंप्रेषित होते हैं , उनके मायने और सलीके भी बदल जाते हैं l एक लेखक होने के नाते मैंने अपनी बात बिना किसी उत्तेजना और उकसावे के स्त्री के हक़ में कही है l
7. अधिकांश लेखक दूसरे की प्रथा पर लिखने से बचते हैं आपको नहीं लगा कीकुछ गलत लिख दिया तो...!!
-आपने सही कहा है कि कोई भी लेखक दूसरे की प्रथा विशेष कर धार्मिक प्रथाओं पर लिखने से बचता है और बचना भी चाहिए l मगर यह इस पर निर्भर करता है कि ऐसा विषय चुनते हुए उसकी मंशा और नीयत क्या और कैसी है l ऐसा ही सवाल कई पाठकों ने मेरे दूसरे उपन्यास ‘बाबलतेरा देस में’  को पढ़ने के बाद उठाया था l इस उपन्यास में भी ऐसे मुद्दों को उठाया गया था l इस बारे में मेरा कहना यह है कि मुझे बचना या डरना तब चाहिए जब मैं दूसरे मज़हब या धर्म को आहत कर रहा हूँl आप ‘हलाला’ को पढ़ कर थोड़ी देर के लिए सहमत या असहमत तो हो सकते हैं लेकिन मेरी बदनीयती पर सवाल नहीं उठा सकते l हाँ, अगर मुझे सिर्फ़ विवादास्पद होना होता, या मुझे कुछ हासिल करना होता तो शायद यह बात लागू होती l ऐसी कोई मंशा मेरी न तो ‘बाबल तेरा देस में’लिखने के दौरान थी, न ‘हलाला’ लिखने के दौरान l सनसनी पैदा करने की नीयत से लिखी गयी किसी भी कृति या रचना की उम्र बहुत छोटी होती है l अच्छी रचना वही है जो पाठक को भीतर से बेचैन करे,ना कि मज़े लेने के लिए लिखी जाए l हाँ, कभी-कभी तब डर-सा लगता है जब कुछ लोग इसे अपनी निजता और धार्मिक मामलों में दखल समझ कर लेखक पर सवाल उठाते हैं कि लेखक को इस्लाम की क्या समझ है lमैं मानता हूँ कि समझ नहीं होगी मगर कोई धर्म या धार्मिकता मनुष्यता से तो ऊपर नहीं है l लेखक का एक दायित्व यह भी होता है कि वह निरपेक्ष हो कर अपने विवेकानुसार गलत और सही में फ़र्क करे l किसी एक का पक्षकार होना भी कभी-कभी उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है l गलत और सही का आकलन खुद लेखक से बेहतर और कौन कर सकता है l
8. क्या आप को पता है कि हज और जमात में बहुत अंतर है?
- आपने पूछा है कि क्या आपको पता है कि हज और जमात में बहुत अंतर है l आपका सोचना एक हद तक बहुत सही है और ईमानदारी से कहूँ, तो सचमुच मुझे हज और जमात में क्या अंतर है, नहीं पताl मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि ‘हज ’मुसलमानों का एक ज़ियारत अर्थात तीर्थ-स्थल है l मक्का मदीना स्थित अल्लाह काबा (घर) है जिसके दर्शन का हर मुसलमान इरादा रखता है l वैसे ‘हज’ का मतलब ही इरादा करना होता है l ‘हज’यानी इरादा करना, वास्तव में आदमी कीओर से इस बात का एलान करना है कि उसका प्रेम और श्रद्धा, उसकी इबादत और बंदगी सब कुछ अल्लाह के लिए ही है l ‘हज’ का मूल उद्देश्य यह है कि इंसान अल्लाह की चाह में उन्मत्त हो कर अपना सब कुछ उसकी राह में लगा दे l वास्तव में यह मूल उद्देश्य केवल हज का ही नहीं है बल्कि सभी धर्मों के तीर्थ-स्थलों का है l इस‘मूल’ की अवधारणाएँ इतनी व्यापक हैं कि अगर मनुष्य इन्हें सच्चे मन से धारण करले, तो आज हमारे समाज में जिस तरह की धार्मिक असहिष्णुता घर कर गयी है, वह शायद हमें देखने को न मिले l दरअसल, यह धारण करना ही धर्म कहलाता है l 
अब आता हूँ  ‘तबलीग़ जमात’  पर l अरबी क़में तबलीग़ शब्द का अर्थ होता है ‘किसी के पास कुछ पहुँचाना’, ‘धर्म का प्रचार करना ’या‘ दूसरों को अपने धर्म में मिलाना’ l यहाँ यह एक बड़ा प्रश्न है की तबलीग़ आन्दोलन मुस्लिम मिशनरी है या मुस्लिम धर्म का पुनर्जीवन आन्दोलन l इसी पर अपनी समझ और जानकारी के मुताबिक़ कुछ रोशनी डाल सकता हूँ l शायद आपको यक़ीन न हो, या आपको इसमें कुछ अतिश्योक्ति लगे, मगर आपको सुनकर हैरानी होगी कि तबलीग़ जमात की शुरुआत 1926 में मेरे मेवात से ही हुई और इसके प्रवर्तक और प्रेरक थे मौलाना मौहम्मद इलियास खंडालवी (1885-1944) l वही तबलीग़ जमात जो आज हर मुसलमान के लिए मानो उसकी धार्मिक अनिवार्यता और जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है l मौलाना इलियास ने एक नारा दिया दिया था -ऐ मुसलमानो मुसलमान बनो ! हालांकि तबलीग़ की  स्थापना मौलाना इलियास द्वारा 1920 में की गयी थी l मगर इसकी जड़ें 19 वीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में इनके वालिद मोहम्मद इस्माइल ने बंगले वाली मस्जिद, हज़रत निजामुद्दीन, नई दिल्ली में जमा दी थीं l मौलाना इलियास 1923 ने मेवात के नूहं में मदरसा मोइनुल इस्लाम की स्थापना की l 1926 में तबलीग़ जमात का पहला जत्था सहारनपुर के मौलाना खलील अहमद के नेतृत्व में आया l इस जत्थे ने स्थानीय लोगों की मदद से नूहं क़स्बे में एक सम्मेलन का आयोजन किया था l हज़ारों की तादाद वाले इस सम्मलेन में लोगों से हिन्दू-रीति-रिवाजों को त्यागने और मुस्लिम क्रियाकलापों को अपनाने तथा पूरे मेवात में तबलीग़ आन्दोलन को फैलाने की अपील की गयी थी l मेवात के मेव मुसलमानों से यह अपील इसलिए की गयी थी की यहाँ के मेव मुसलानों की धार्मिकता आधी हिन्दू रीति-रिवाजों पर आधारित थी, तो आधी मुस्लिम रीति-रिवाज़ों पर l यहाँ तक कि उस समय के पुरषों के नाम हिन्दू नामों से प्रेरित थे, जैसे हरिसिंह, धनसिंह, चांद सिंह, लालसिंह आदि l इस तरह तबलीग़ जमात के मेवात से शुरुआत का एक कारण यह भी हो सकता है l लेकिन सूफ़ी इस्लाम सबसे बेहतर है जो तब्लीगी जमात से पहले से भारत मे है जिसके अनुयायी पूरी दुनियां में शांति, सौहार्द की बात करते है।
9. आपने जिन जिन पात्रों का उपन्यास में उल्लेख किया है क्या वह काल्पनिक है या वास्तविक ?
-किसी भी रचना के चरित्र या पात्र वास्तविक और काल्पनिक दोनों होते हैं l बल्कि कहना होगा कि कोई भी पात्र न तो अपने आप में पूरी तरह काल्पनिक होता है,ना पूरी तरह वास्तविक जो पात्र वास्तविक जीवन से लिए गये होते हैं, उनमें लेखक अपनी कल्पना और लेखकीय कौशल इतना विश्वसनीय और प्रामाणिक बना देताहै कि एक पाठक के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है वह कितना काल्पनिक है और कितना वास्तविक l यही बात उन काल्पनिक पात्रों पर लागू होती है l एक लेखक निजी अनुभवों और पात्रों के मिश्रित अनुभवों से अपने इन काल्पनिक पात्रों को अपनी कल्पना शक्ति से इतना जीवंत और प्रामाणिक बना देता है कि पाठक को लगता है मानो ये पात्र यहीं कहीं उसके आसपास खड़े हैं l यह एक लेखक की कल्पनाशीलता और लेखकीय कौशल पर निर्भर करता है कि वह अपने इन पात्रों को कितना और किस तरह जीता है, या कहिए उनको किस हद तक आत्मसात करता है l यह आत्मसात करने की चुनौती तब और बढ़ जाती है, जब उसने अपने किसी पात्र से। ज़िन्दगी में कभी मुलाक़ात ही ना की हो l बल्कि दूसरे धर्म व स्त्री पात्र और पुरुष पात्रों के मनोविज्ञान को व्यक्त करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है l यह चुनौती स्त्री व पुरुष दोनों लेखकों के लिए सामान होती है l मैं यह बात सिर्फ़ ‘हलाला’ केसन्दर्भ में नहीं, बल्कि मेरी सभी रचनाओं के पात्रों पर लागू होती है l आप कल्पना कर सकते है कि एक लेखक अपने पूरे जीवनकाल की अपनी कितनी रचनाओं के कितने काल्पनिक और वास्तविक पात्रों को एक साथ जीता होगा l इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि एक लेखक के असंख्य पात्रों से गुज़रते हुए हम पात्रों के नहीं बल्कि एक लेखक के अनेक रूपों और व्यक्तित्वों से भी गुज़रते हैं l यह आशा-निराशा ख़ुशी-गम, नैराश्य-कुंठा, चतुराई-चालाकियाँ, घात-प्रतिघात पात्रों की नहीं स्वयं लेखक की होती हैं l अब एक लेखक अपने पाठकों को अपने लेखकीय कौशल से उलझाता या भ्रमित करता है, तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता है l

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

बड़ी कठिन है गुजरात की डगर - अकरम हुसैन क़ादरी

बड़ी कठिन है गुजरात की डगर- अकरम हुसैन क़ादरी


2013 के बाद से जिस गुजरात मॉडल को भारतीय जनता पार्टी, कुछ मीडिया घराने प्रचारित कर रहे थे अब उनकी पोल खुलने लगी है जिसको दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने एक टीवी डिबेट में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सामने पोल खोल दी थी ।
गुजरात तो हरेन पांड्या हत्याकांड से भारत मे बहुत मशहूर था लेकिन 2002 के दंगों ने गुजरात को देश विदेश में एक अलग ही पहचान दी जिसको माननीय कविवर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक सार्वजनिक मंच पर राज धर्म निभाने का बोल भी चुके तो और उस वक़्त के तत्कालीन मुख्यमंत्री को सबके सामने डाँट भी चुके थे । 2001 से ही गुजरात की राजनीति में जो उछल पुच्छल मच चुकी थी उसमे शुरुआत हत्या से हुई और कुर्सी तक पहुंचते पहुंचते नरसंहार कराने पढ़ें उसमे ना जाने कितनी महिलाओ को विधवा बनाया गया, हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार किये गये, बच्चों को माँ का पेट फाड़कर मारा गया एेसे कुकृत्यों से देश शर्मसार हुआ। देश का विकास भी बाधित हुआ वो अलग। आज भी जिसकी लपटें हमें देखने को मिल जाती हैं
आगामी विधान सभा  चुनाव 2017 पर नज़र डाले तो हम देखते है कि इस बार गुजरात के 15 साल के इतिहास में पहली बार भाजपा को मात खानी पड़ सकती है क्योंकि गुजरात के सबसे बड़े तबके बीजेपी से पूरी तरह से रूठ चुके है उनको मनाने के लिए बीजेपी के शीर्षथ नेतागण, कैबिनेट मिनिस्टर भी बीजेपी में कुण्डली जमाये बैठे है लेकिन गुजरात की जनता खामोशी से अपना काम कर रही है उसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री महंत योगी आदित्यनाथ का गुजरात का रोड शो है जिसमे अनेक जगह व्यापारियों ने काले झण्डे दिखाए और जिस प्रकार पूर्व में वहां पर किसी बीजेपी नेता की रोड शो में भीड़ नज़र आती थी वो बिल्कुल भी नज़र नही आई बल्कि पूरी तरह से रोड शो फ्लॉप नज़र आया जिसको भारतीय जनता पार्टी के मुख्य प्रवक्ता डॉ. संबित पात्रा ने ट्वीट करके कहा कि योगी जी का रोड शो फ्लॉप होने का मतलब यह बिल्कुल नही है कि मोदी लहर ख़त्म हो गयी है मतलब साफ है कि अभी वो कोई नया साम्प्रदयिक पैंतरा आजमाने की सोच रहे हो जो गुजरात के मिजाज़ के अनुकूल होगा और वो कामयाब नज़र आ सकते है ।
पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष जिनको अब बोलना शायद आ चुका है वो भी अब खूब बढ़कर बोलने लगे है जो आक्रमकता की राजनीति को शायद अब समझ रहे है जोकि उनके पाले में जा रहे है अब मेनस्ट्रीम मीडिया का भी उनको साथ मिलना कुछ हद तक शुरू हो चुका है।
गुजरात में बीजेपी को गड्ढे में धकेलने में सबसे अहम किरदार पाटीदार समाज के कर्ता-धर्ता हार्दिक पटेल अदा करेंगे जिनको शिवसेना का तो समर्थन है ही उसके अलावा वो 'आप' में भी कुछ ज़मीनी स्तर पर काम कर चुके है और कांग्रेस तो पूरी तरह से पाटीदार समाज के प्रमुख के साथ खेल रही है
इसके साथ ही अब पटीदार समाज के नेता ही नहीं आम पाटीदार बीजेपी के विरोध में उतर चुका है। जिसको हम पाटीदार अंदोलन से अब तक देखते आ रहे हैं। अगर एेसा ही रहा तो हो सकता है कि यह मैच जीतने में कांग्रेस सफ़ल हो जाये और उसको गुजरात मे अपनी खोई ही प्रतिष्ठा को दोबारा प्राप्त कर सके। पर कांग्रेस को अभी अपनी गृहकलह पर ध्यान देना होगा। जिस तरह से शंकर सिंह वाघेला ने कांग्रेस को छोड़ा है, अगर एेसा ही रहा तो कांग्रेस बीजेपी विरोधी लहर जो बीजेपी की गलत नीतियों की वजह से उठ रही है, उसका फायदा नहीं उठा पायेगी। बीजेपी को अपने गढ़ गुजरात में पहले सोना व्यापारियों का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था यहाँ तक की कई व्यापारियों ने अपना कारोबार बंद कर के विरोध जताया था। इसके बाद नोट बंदी से छोटे मोटे व्यापार मानो खत्म ही हो गये। अभी गुरात के व्यापारी इस सदमें से उबरे भी नहीं थे कि जी.एस.टी. ने सब की कमर तोड़ दी। आपको यह भी पता होगा कि व्यापारी इलैक्शन में बहुत बड़ा रोल अदा करते हैं क्योंकि पार्टियों की फंड़िंग में एक मोटा हिस्सा इन्हीं का होता है, जो हमने 2017 के इलैक्शन में देखा था।
गुजरात मे बीजेपी को हराने में कपड़ा व्यापारी अहम रोल अदा कर सकते है क्योंकि नोटबन्दी के बाद GST के बिल ने उनकी कमर तोड़ दी है जिसको वो मोदी सरकार को उनके डायरेक्ट पेट मे लात मारने जैसा समझ रहे है और उन्होंने GST के खिलाफ शुरू से ही सूरत में लाखों की तादाद में विरोध किया। सूरत के साथ ही अहमदाबाद और जामनगर में भी कपड़ा व्यापारियों ने बड़ी बड़ी रैलियाँ निकाली थी। लेकिन मुख्य मीडिया में वो सुर्खियां नही बटोर पायीं। जिससे उनके अंदर बहुत गुस्सा है जिसको वो इस चुनाव में भाजपा को विधानसभा चुनाव हराकर पूरा करने की कोशिश करेंगे। जबकि बीजेपी को सबसे ज्यादा समर्थन आजतक गुजरात के पाटीदारों और व्यापारियों से ही मिला है जो अब खिसकता हुआ नजर आ रहा है ऐसा प्रतीत भी हो रहा है कि आने वाले समय मे गुजरात की शक्ल बदल सकती है कोई दूसरा गुजरात मे काबिज़ हो जाएगा
इसके साथ ही ऊना कांड ने बीजेपी की पूरे देश में किरकिरी करवादी थी और आज भी गुजरात के दलित परेशान हैं। आज भी दलितों के साथ छुट पुट घटनाएँ होती रहती हैं। इसका असर सीधा गुजरात विधान सभा में देखने को मिलेगा। वहीं बीजेपी भी इन सब चीजों से अवगत है वह अपने तुरुप के पत्ते रखे हुए है जिनमें कांग्रेस की गृहकलह को हवा देना, पाटीदार अंदोलन को कमजोर करना, जीएसटी में कटौती करके कपड़ा व्यापारियों को मनाना आदि। अब देखना यह है कि कौन मौकों को भुनाकर बाजी मारता है।
अकरम हुसैन क़ादरी और आसिफ साबरी
जय हिंद

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

2019 का चुनाव तय करेगी छात्र राजनीति - अकरम हुसैन क़ादरी

2019 का चुनाव तय करेगी छात्र राजनीति- अकरम हुसैन क़ादरी

2014 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जिस मजबूती से देश के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयो और कॉलेज स्तर पर अपनी पैठ बना रही थी उससे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह छात्रशक्ति अपनी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी बीजेपी को कमसेकम 10 साल तक देश से उखड़ने नही देगी लेकिन 2017 में ही छात्रों का भरोसा वर्तमान सरकार की नीतियों से उठ गया है क्योंकि जबसे यह सरकार सत्ता में आई है तब से शिक्षा का बजट तो कम हुआ ही है उससे ज्यादा छात्रों पर दमनात्मक कार्यवाही भी बड़ी है और छात्र छात्राओं को मिलने वाले अनुदान में भी घटोत्तरी हुई है जिसकी वजह से उनकी छात्र इकाई कमज़ोर हुई है और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी बीजेपी को भी नुकसान हुआ है।
2014 के बाद देश के अनेक विश्वविद्यालयों में अजीब का मंज़र देखने को मिला सबसे पहले इसकी शुरुआत FTI से हुई जहां पर छात्रों ने गजेंद्र चौहान का विरोध किया है उसके बाद डॉ. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या फिर जेएनयू में फ़र्ज़ी देशद्रोह के मुक़दमे लगाए गए उसके बाद यूजीसी पर अपने फ़ेलोशिप के लिए लड़ाई लड़ रहे छात्रों पर दमनात्मक कार्यवाही हुई, जेएनयू छात्र नजीब को कुछ गुण्डो ने मार पीट की जो आज तक लापता है,  रामजस कॉलेज में एक शहीद सैनिक की पुत्री के कुछ ट्वीट कर देने पर एबीवीपी के छात्रों ने उसको रेप करने की धमकी दी आखिर में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्राओं पर कुछ शोहदों और असामाजिक तत्त्वों ने बत्तीमीज़ी की और उनके साथ विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी न्याय नही किया बल्कि उन छात्राओं को अपशब्द बोले गए जिससे छात्र राजनीति और ज्यादा गर्मा गयी और छात्र छात्राओ का विश्वास वर्तमान सरकार से कम हो गया।
अभी पिछले तीन चार महीने में हुई अनेक विश्वविधायलयो में छात्रसंघ चुनाव सबमे आरएसएस की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सुफड़ा साफ हो गया ।

पिछले दिनों बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह ने 2019 में 350 सीट लाने का आंकड़ा पेश किया था कहीं ना कहीं यह प्रतीत हो रहा था कि यूपी चुनाव के बाद यह भविष्यवाणी सही साबित हो सकती है लेकिन जिस प्रकार से जाधवपुर यूनिवर्सिटी, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, जेएनयू, अखिल विद्यार्थी परिषद का गढ़ कही जाने वाली दिल्ली यूनिवर्सिटी और आखिर में इलाहाबाद विश्वविद्यायल में भी सुफड़ा साफ हो गया, यह कही ना कहीं यह दर्शाता है कि बीजेपी, आरएसएस की पकड़ विश्वविद्यालयो में कमज़ोर हुई है जो निश्चित ही आगामी लोकसभा चुनाव में अपना रंग दिखाएगी उसके अलावा अनेक भावनात्मक मुद्दों पर जिस प्रकार से बीजेपी ने काम किया है उसको देश के पढ़े लिखे युवा तो समझ गए है यदि जनता भी समझ जाएं तो परिणाम एकदम अलग होंगे देश मे हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई की भाईचारे की बात होगी, हिन्दू मुस्लिम मुद्दा भी खत्म होने की कगार पर नज़र आ रहा है अब चुनाव विकास के मुद्दे पर होने की संभावना नज़र आ रही है

अकरम हुसैन क़ादरी

उपभोक्तावादी संस्कृति को ढोती महिलाएं- डॉ. नमिता सिंह

उपभोक्तावादी संस्कृति को ढोती महिलाएं-डॉ. नमिता सिंह
आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्त्वाधान में मार्क्सवादी चिंतक, विदुषी स्त्री लेखन में अग्रणीय भूमिका निभाने वाली डॉ. नमिता सिंह जी की पुस्तक "स्त्री-प्रश्न" का विमोचन किया गया जिसकी अध्यक्षता समाजसेवी प्रोफेसर ज़किया अतहर सिद्दीकी और हिंदी विभाग के हरदिल अजीज़ अध्यक्ष प्रोफेसर अब्दुल अलीम  ने की जिन्होंने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया है उन्होंने अपने अनुभवों को भी बांटा कार्यक्रम में पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की गयी सर्वप्रथम डॉ. जया प्रियदर्शिनी शुक्ल ने पुस्तक की उपयोगिता पर बोलते हुए 'स्त्री-प्रश्न' जैसे मुद्दे पर बात की और स्त्री के बारे में गहराई से बताया कि किस प्रकार  अनेक विद्वानों ने बताया था कि 21 वी सदी महिलाओ की सदी होगी लेकिन आज स्त्रियों की दयनीय स्थिति को देखते हुए वो एक तरह से उपभोग की वस्तु बन चुकी है जिसको जैसी आवश्यकता होती है वो उसको वैसे इस्तेमाल करता है और छोड़ देता है जो समाज के लिए एक कलंक है। इसमें कोई संदेह नही है कि प्रगतिशील मानसिकता ने स्त्री की प्रतिष्ठा को तो बढ़ाया है लेकिन देखने मे आया है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है क्योंकि इसके गर्भ में दो मानसिकताओं, विचारधाराओं का टकराव है जिसकी वजह पूंजीवादी और सामंतवादी सोच है जिसने स्त्री को उपभोग की वस्तु बनाने में अहम भूमिका निभाई है जबकि पहले मातृसत्तात्मक समाज था लेकिन अब पितृसत्तात्मक समाज का बोलबाला है जिससे ना ही स्त्री स्वास्थ्य, कुपोषण, यौन हिंसा और ऑनर किलिंग जैसे मुद्दे पर कोई कुछ बोल पाता है ना ही उसको पूर्णतया न्याय मिलता है उसका सबसे बड़ा कारण स्त्रियों की राजनीति में बराबर की भागीदारी का ना होना भी है, समाज मे आज भी स्त्री को मासिक धर्म आने के समय उसको रसोई घर और घर मे बने मन्दिर में भी घुसने नही दिया जाता है जोकि संविधान में बराबरी के कानून की धज्जियां उड़ा रहा है, आजकल मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़कियों को केवल स्टेटस मेन्टेन करने के लिए उनको थोड़ा बहुत शिक्षित किया जा रहा है जिससे उसकी शादी किसी अच्छे पढ़े लिखे लड़के से हो जाये और ससुराल में उसको ग्रहण कर लिया जाए।
इसी सिलसिले में हिंदी विभाग के अजय बिसरिया सर ने पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न' पर विचार रखते हुए उपभोक्तावादी समाज मे किस प्रकार स्त्रियों का दोहन हो रहा है उस संदर्भ में विस्तार से समझाया कि आज किस प्रकार धनी लोगो ने पूंजीवादी व्यवस्था के चलते हुए विज्ञापन में बाजारवादी संस्कारो ने स्त्री का प्रयोग किया है, स्त्रियों पर संस्कृति के नाम पर धर्म को थोपा जा रहा है क्योंकि पूंजीवादी,सामंतवादी,उपभोक्तावादी समाज की यह पहली पसंद भी है, इन सबसे बचने के लिए अब आने वाली नई पीढ़ी को अन्तररजातीय, अंतर्धार्मिक विवाह करने होंगे जिससे स्त्रियों को अपनी पसंद से वर चुनने की पूरी छूट होगी और समाज मे निश्चित ही बदलाव आएंगे और संविधान भी इसकी इजाजत देता है अगर ऐसा होता है तो हम कह सकते है कि बंधे कदमो से ही लम्बी छलांग लगाई है।
उसके बाद डॉ. नामिता सिंह जी ने स्वयं की पुस्तक पर ज्यादा ना बोलते हुए चन्द बातो में भी बात खत्म कर दी उन्होंने कहा मानव समाज का विकास स्त्री पराधीनता का भी विकास है जिस प्रकार मानव ने विकास क्या है ठीक उसी प्रकार स्त्री पराधीनता ने भी अपने पांव पसारे है तथा वर्तमान में बनारस हिन्दू विश्वविद्यायल का मामला हमारे सामने है कि किस प्रकार से पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्रियों से पढ़ने, लिखने, घूमने तक की आजादी को छिनने का षड्यंत्र रचा है और वो हमेशा औरतो को अपना ग़ुलाम बनाना चाहते है
कार्यक्रम में हिंदी विभाग अध्यक्ष हरदिल अजीज़ प्रोफेसर अब्दुल अलीम, प्रोफ़ेसर प्रदीप सक्सेना, प्रोफेसर आशिक़ अली, प्रोफेसर तसनीम सुहैल,प्रोफेसर रेशमा बेगम, प्रोफ़ेसर शम्भूनाथ तिवारी, प्रोफेसर कमलानंद झा, प्रोफ़ेसर समी रफ़ीक़, डॉ. जावेद आलम, डॉ. शाहवाज़ अली खान, डॉ. गुलाम फरीद साबरी, डॉ. राहिला रईस, नीलोफर उस्मानी के अलावा अनेक शहर के गणमान्य लोग मौजूद थे अंत मे प्रोफेसर आसिम सिद्दीकी सर ने धन्यवाद ज्ञापन किया,
कार्यक्रम का सफल संचालन डॉ. दीपशिखा सिंह जी ने किया ......
प्रस्तुति
अकरम हुसैन क़ादरी
शोधार्थी
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
अलीगढ़

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

मुद्दों पर भावुक मुद्दे थोपने की कला

'मुद्दों पर भावुक मुद्दे थोपने की कला'
     अकरम हुसैन क़ादरी
वर्तमान राजनीति इतने बुरे दौर से गुज़र रही है जिसमे समस्याएं ही समस्याएं है लेकिन उनका संज्ञान ना ही पक्ष ले रहा है और ना ही विपक्ष, जबकि मानव की मूलभूत समस्याओं को पक्ष रखे या ना रखे लेकिन विपक्ष को अपनी राजनीति को बचाने के लिए मुद्दों के हिसाब से प्रहार करने चाहिए हर छोटे मुद्दे को बड़ा बनाकर प्रस्तुत करना चाहिए जिससे सत्तासीन सरकार उस मुद्दे पर अपना ध्यान लगाएं और जल्दी से जल्दी समाधान हो सके, लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि ना ही देश मे मजबूत विपक्ष बचा है और ना ही मीडिया सही से अपना उत्तरदायित्त्व निभा पा रहा है विपक्ष और मीडिया खानापूरी करके मुद्दों को भटकाने का भी प्रयत्न करता है जिससे सत्तासीन सरकार सवालो से बच जाती है और विपक्ष कमज़ोर पढ़ जाता है ।
किसी भी लोकतंत्र  को चलाने के लिए चारो स्तम्भो को अपना काम करना चाहिए जिससे देश की सत्ता रूपी चारपाई को सही ढकेला जा सकता है अब तो ऐसा प्रतीत होता है चारपाई का एक पैर टूट चुका है और चारपाई वेंटिलेटर पर जा चुकी है जिससे देश का लोकतंत्र खतरे में आ गया है
विपक्ष की निष्क्रियता का ही परिणाम है जिसकी वजह से हर बड़े मुद्दे पर वो भावुक मुद्दे छोड़ते गए कार्पोरेट मीडिया भी कुछ ना कर सका,
जहां पर देश की समस्याओं की बात होनी थी वहां पर वो लव जिहाद, गाय, गोबर, मजनू स्क्वाड, नाम बदलने जैसी फ़र्ज़ी बातो में मीडिया और जनता को ढोते रहे है जिससे बेरोज़गारी अपने चरम पर पहुंच गयी, जीडीपी लगातार लुढ़क रही है, शिक्षा व्यवस्था चरमराने की कगार पर है स्वास्थ्य सेवाओं का हाल पिछले तीन महीनों से किसी से छुपा नही है, रेल मंत्रालय की रोज़ पटरी उतर जा रही है उधर नेता बता रहे है अगस्त में ज्यादा बच्चे मरते है मीडिया टीआरपी के लिए बाबा और उनके काले कारनामो को ज्यादा ही जगह दिए हुए जिससे जनता के मुख्य मुद्दों पर सरकारी ऑफिस में रखी फाइलों की तरह धूल चढ़ती जा रही है जिससे स्वास्थ्य व्यवस्था खराब हो रही है, बेरोज़गारी की वजह से अपराध के आंकड़े कम होने का नाम नही ले रहे है ।
अकरम हुसैन क़ादरी

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

समाजवादी सम्मेलन में नही दिखा समाजवाद

"समाजवादी सम्मेलन में नही दिखा समाजवाद"
       अकरम हुसैन क़ादरी
हाल में ही आगरा में सम्पन्न हुए समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में देश के सभी समाजवादी नेताओं और पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन में जोर शोर से पार्टी को मजबूत करने का संकल्प तो लिया गया लेकिन कोई भी पार्टी कार्यकर्ता अपनी पूरी लय में नही दिखा और न ही किसी को समाजवादी पार्टी के इतिहास के बारे में मालूम था। चन्द पुराने समाजवादियों को छोड़कर बाकी सब यूँ ही खानापूरी करते हुए दिखे।
लगता है आजकल समाजवादी पार्टी अपनी विचारधारा से भटक रही है क्योंकि अधिकांश कार्यकर्ताओं को न तो डॉ. राममनोहर लोहिया की विचारधारा से मतलब है और न ही जनेश्वर मिश्र जैसे जांबाज़ों के योगदान से भलीभांति परिचित है। वे तो केवल अगले चुनाव में सत्ता हथियाने के चक्कर मे नज़र आये ।
पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गोरखपुर में मृत बच्चों के परिवारों की सहायता करके कुछ समाजवाद को ज़िंदा करने की कोशिश की; लेकिन राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने कुछ ऐसा मजबूत भाषण नहीं दिया जो विचारधारा से लबरेज़ हो और जिसमें समाजवादी जननायकों को याद किया जाए। ऐसा प्रतीत हुआ कि यह सम्मेलन एक व्यक्ति विशेष को ध्यान में रखकर रखा गया है, ताकि उनकी ताजपोशी हो जाये और सभी चलते बने। इसमें चापलूसी साफ झलक रही थी। 
पूरे सम्मेलन में जहां एक ओर धैर्य की कमी लगी वहीं पर नैतिकता, सामाजिकता और राजनीति के भी कोई ठोस लक्षण या क़दम नहीं दिखाई दिए जिससे समाजवाद कमज़ोर होने की कगार पर नज़र आ रहा है।
भाषणों पर अगर दृष्टिपात करें तो आज़म खान साहब ने कुछ सामाजिक, धार्मिक मुद्दों को समाजवाद के नज़रिए से छूने की कोशिश की लेकिन बीच में युवा समाजवादियों के नारों के चक्कर में वह स्वयं अपना इतिहास ही सुनना भूल गए जिसके जरिये आज़म ख़ान साहब सच्चे समाजवाद को पारिभाषित करना चाह रहे हैं। अखिलेश यादव और उनकी धर्मपत्नी सांसद डिम्पल यादव के भाषणों में समानता दिखी जबकि समाजवादी का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते अखिलेश यादव को 2019 का ख़ाका तो खींचना ही चाहिए था।  इसके अलावा, 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव पर अपनी रणनीति के साथ साथ युवा नेताओ से आह्वान भी करना चाहिए था कि पिछले चुनाव में हुई ग़लतियों से सीख लेते हुए अगले चुनाव में उन ग़लतियों को दूर करना है। हर वोटर के घर घर जाकर समाजवाद को फैलाना है। इसके साथ, अनेकता को एकता में पारिभाषित करके साम्प्रदायिकता के दंश से प्रदेश में फैल रहे इस कैंसर से भी निजात दिलाने के लिए बूढ़े और नौजवान कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देकर जनता के बीच में जाने का आह्वान करना चाहिए था।
प्रदेश में अनेक ऐसे मुद्दे हो चुके हैं जिसको समाजवादियों ने सही से नहीं भुनाया है। वे लोग अपने साम्प्रदायिकरण को मजबूती दे रहे हैं, इधर आप लोग पैर पर पैर रखे बैठे हैं। अगर ऐसे ही बैठे रहे तो वो दिन दूर नहीं है जब आपकी भी हालत बहुजन समाज पार्टी जैसी हो जाएगी। न ही आपको यादवों का वोट मिलेगा और न ही अल्पसंख्यकों का, क्योंकि उसका सीधा कारण है कि जब उनके मुद्दे चल रहे थे तो तुम उस समय कहाँ थे .....
सच्चे समाजवादियों ने हमेशा देश, प्रदेश के विकास में विशेष योगदान दिया है चाहे वो देश का कोई भी कोना हो। जहां पर भी अत्याचार होता है वहां पर समाजवादी नज़र आते थे। न जाने अब क्या हो गया है इस समाजवाद को....अनेक मुद्दों को भुना ना पाने में उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता नज़र आती है .....
अखिलेश यादव को अगर सपा को बसपा बनने से रोकना है तो समय की मांग के अनुसार, साम्प्रदायिकता, मानसिक साम्प्रदायिकता, छात्रों के हित, स्त्री विरोध को खत्म करके, ऊंच-नीच जैसे मुद्दों पर खुलकर सामने आना चाहिए।
दलितों पर हो रहे अत्याचारों पर भी अपनी बेबाक और निष्पक्ष बात रखनी चाहिए। ओबीसी, माइनॉरिटी और दलितों के आरक्षण के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए।
जय हिंद
अकरम हुसैन क़ादरी