सोमवार, 22 जून 2020

मोबाइल से ख़त्म होता बचपन - अकरम क़ादरी

मोबाइल से खत्म होता बचपन - अकरम क़ादरी

आजकल के दौर में अक्सर अधेड़ या बुज़ुर्ग अपने बचपन के किस्से बड़े अच्छे से सुनाते है कि हमने यह किया है वो किया है, लेकिन आजकल ज़्यादातर बच्चे कभी भी अपने बच्चों या आने वाली पीढ़ियों को यह नहीं सुना पाएंगे कि हमने कंचे खेले है, गुल्ली- डंडा खेला है या फिर क्रिकेट फुटबॉल खेला है, क्योंकि जिस तरीके से हम खुद को मॉडर्न समझते है लेकिन मॉडर्न बिल्कुल भी नहीं है बल्कि हम आरामतलब इतने ज़्यादा बन चुके है जब बच्चा एक या दो साल की उम्र में होता है तो वो रोता है हम झट से मोबाइल निकालकर उसके सामने रख देते है या फिर उसको यूट्यूब पर कुछ दिखा देते है जिसको वो देखकर, सुनकर चुप हो जाता है फिर उसकी माँ को उसको दूध नहीं पिलाना पड़ता है जिससे सही मायनों में उस वक़्त माँ उसकी पेट की भूख की जगह दिमाग को शांत करके खत्म कर देती है जिससे बच्चा भूखा ही रह जाता है। उसका ध्यान पेट की जगह गेम या फिर मोबाइल पर चला जाता है और उसका शारीरिक विकास रुक जाता है। ऐसे ही धीरे-धीरे उस बच्चे की आदत बन जाती है और बीमारियां उसको घेरने लगती है इसकी पूरी जिम्मेदारी माँ-बाप की है हालांकि ज़्यादा ज़िम्मेदारी मां की ही है क्योंकि वही अपने बच्चे की भाषा को ज़्यादा समझती है पिता तो काम या फिर रोज़ी रोज़गार के लिए बाहर निकल जाता है। 
जब बच्चा तीन से पांच साल तक कि उम्र में आता है तो वो मोबाइल, लैपटॉप, टेबलेट पर गेम देखना शुरू कर देता है या फिर यूट्यूब के ज़रिए खेलने लगता है। जिसमे कुछ गेम ऐसे है जिसके कारण बहुत तेज़ी से बच्चों के दिमाग को गिरफ्त में ले लेते है और उनका दिमाग केवल गेम में ही रहता है और वो आत्महत्या जैसे कदम भी उठा लेते है जैसे ब्लूव्हेल वाले गेम में हुआ था अनेक बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी, उससे भी पहले देखे तो टी.वी सिरियल शक्तिमान के कारण भी ना जाने कितने बच्चों ने छत से छलाँग लगा दी और सोचा कि शक्तिमान उनको बचाने आएगा क्योंकि उन्होंने टीवी सीरियल में देखा है कि जब कहीं पर बच्चों को दिक्कत होती है वो शक्तिमान को याद करते है वो उसको बचाने आ जाता है। दरअसल हम कह सकते है कि बचपन का ज़हन बहुत साफ शफ्फाक होता है जिसको जैसे माहौल में ढालेंगे वो वैसे ही माहौल में खुद को बनाएगा....
मौजूदा दौर में जो मोबाइल गेम चल रहे है वो भी आजकल बच्चों की मानसिकता बदलने उनको क्रूर, निर्दयी, ज़ालिम बनाने में एक अहम किरदार अदा कर रहे हैं क्योंकि उसमें शिक्षा ही मारने पीटने की दी जा रही है जैसे पब्जी, फ्रीफायर, एलियन, बाहुबली, लास्ट कमांडो, न्यू पब्जी और मैनक्राफ्ट जैसे मोबाइल गेम बच्चों को नफसियाती तौर पर ज़ालिम बना रहा है क्योंकि इन गेमों में केवल मारने, घेरने, हथियार चलाने की ही डिजिटल शिक्षा दी जाती है उससे बचपन तो छीनता ही है, दिमाग भी ज़ालिमाना हरकतों की तरफ सोचता और आगे बढ़ता है, यह सच है हमें बच्चों को क्रिएटिव, इनोवेटर बनाना चाहिए उनकी सोचने की शक्ति बढ़ाना चाहिए लेकिन इन गेमों ने उनका बचपन ही छीन लिया उनकी सोचने समझने की शक्ति ही खत्म कर दी वो किसी भी बात पर जो उनको अच्छी ना लगे फौरन जवाब देते है जो कि हमारे संस्कारो के लिए अच्छा नहीं है। 
दूसरी तरफ, टिकटोक, लईकी, हीरो, विगो जैसे एप्प से भी बच्चों के ज़हन में गंदगी भर रही है क्योंकि ज्यादातर उसका कंटेंट ग़लत ही होता है जिससे बच्चे वैसा ही व्यवहार अपने घर के बड़े लोगो से करते है जिससे निश्चित ही उनका मनोविकार होता है और उनमें सहने की क्षमता खत्म होती है जो भावी पीढ़ियों के लिए सही नहीं है सरकार को सोचना चाहिए वो ऐसे गेम और गंदे कंटेंट जल्दी से हटाए और माँ-बाप बच्चों के हाथ से मोबाइल, टेबलेट वापस ले उनको ज़रूरत भर इस्तेमाल करने दे जिससे उनका मानसिक विकास हो, संस्कारवान बने और उनकी आंखों की हिफाज़त हो सके। 

इन गेम और वीडियो की वजह से सबसे ज़्यादा बच्चों की आंखों पर फ़र्क़ पड़ रहा है उनकी आंखें लाल रहती है सुबह उठते ही आंखों में कीचड़ होते है, आंखों की रौशनी कम हो रही है अगर बचपन मे ही आंखों की रोशनी चली जायेगी तो फिर आगे ज़िन्दगी कैसे गुज़रेगी इसको हमे सोचना पड़ेगा बच्चों के सर्वागीण विकास को करने के लिए हमें उनको सही डायरेक्शन में ले जाना होगा जिससे उनका बचपन बचाया जा सके.
अबसे कम से कम 20 साल पहले दादी, नानी, या जो घर के बुज़ुर्ग होते थे वो रात या शाम को सोते वक्त धार्मिक (रिलीजियस), सामाजिक  कहानियां सुनाकर बच्चों का मानसिक विकास करतीं थीं जिससे उनकी तरबियत होती थी आजकल के बच्चे हाथ में मोबाइल लेकर ही सो जाते है जैसे ही आंख खोलते है तो उनके हाथ में मोबाइल ही होता है। 

इस कंपटीटिव दुनिया में हमें बच्चों को मॉडर्न तो ज़हनी तौर से बनाना है लेकिन उनको अपनी तहज़ीब भी सिखानी है, दुनिया के साथ चलना भी सिखाना है ... .इंसान बनाने की जद्दोजहद में लग जाना चाहिए जिससे वो दुनिया और इंसानियत के लिए फायदेमंद हो सके। 

जय हिंद
अकरम हुसैन
फ्रीलांसर एंड पॉलिटिकल एनालिस्ट

शनिवार, 13 जून 2020

दवा के साथ मोहब्बत के इंजेक्शन से सही होता है मरीज़ - डॉ. शैलेंद्र गंगवार

दवा के साथ मोहब्बत के इंजेक्शन से सही होता मरीज - डॉ. शैलेन्द्र गंगवार

पूरी दुनिया आज कोविड जैसी महामारी से जूझ रही है फिर भी अगर फ्रंट लाइन पर कोई इससे मुकाबला कर रहा है तो वो इस देश का कर्मठ डॉक्टर ही है, जिसके कारण देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या भी कम हुई है। 
पिछले लंबे अरसे से डॉक्टर शैलेन्द्र गंगवार मेरे गृह जनपद पीलीभीत में एक डॉक्टर से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे है जनपदवासी आपके व्यवहार से बेहद परिचित है अक्सर आप अपने यहां आने वाले मरीज़ों से प्रेम, सहृदयता से बात करते है जिससे उनका आधा मर्ज़ तो डॉक्टर की सकारात्मकता देखकर ही ठीक हो जाता है दूसरी सबसे अच्छी खासियत यह है कि डॉक्टर साहब मरीज़ों से उनकी ही लोकल भाषा मे बात करते है जिससे दिल की बात दिल मे उतरती है मरीज़ को बात करके सुकून मिलता है वो अक्सर मरीज़ों के सम्पर्क में बने रहते है कोई भी ज़िले का बन्दा उनसे संपर्क कर सकता है वो फौरन उसकी परेशानी का निराकरण करने का प्रयास करते है। कभी भी कोई ऐसा समय नहीं आया किसी भी मरीज़ या फिर सज्जन ने उनकी प्रोफेशनल और सामाजिक कार्यो को लेकर आलोचना की हो बल्कि उनके व्यवहार का लोहा उनके राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी भी मानते है अगर कोई रास्ते मे या फिर फोन से उनसे संपर्क करता है तो वो सामाजिक जीवन से रिलेटेड उनका मार्गदर्शन करते है, अब तक ना जाने कितने लोगों को निःशुल्क इलाज कर चुके है लेकिन यह बातें कहने की नहीं होती है क्योंकि वो प्रचार नहीं करना चाहते बल्कि जिस समाज ने उन्हें एम.बी.बी.एस और सर्जन बनाया है उसको अपने अच्छे कार्यो से वापस करना चाहते है क्योंकि वो मानते है मै जिस प्रोफेशन में हूं, चाहूं तो बहुत धन एकत्रित कर सकता हूँ लेकिन क्या फ़ायदा जब आप समाज के काम ना सके, वो धन के साथ साथ समाज को रास्ता भी देने का कार्य कर रहे है। 
कभी कभी उनके साथ बैठना हुआ तो वो बहुत हल्के-फुल्के मूड में बात करते है किसी कॉमन इंसान को ऐसा महसूस ही नहीं होगा कि यह कोई सर्जन है बल्कि ऐसा महसूस होता है यह सच मे हमदर्द इंसान है जो इंसानियत का काम करने के लिए बना है, जब डॉक्टर साहब से मैंने पूछा आप शहर के जाने-माने अच्छे डॉक्टर है तो आपको राजनीति में आने की क्या आवश्यकता है इसके जवाब में उन्होंने कहा मुझे पैसा कमाने या भृष्टाचार करने के लिए राजनीति में नहीं आया हूँ बल्कि मैं  समाज और शहर के पिछड़े हुए हालात को सही रास्ता दिखाने के लिए प्रयास कर रहा हूँ, मैं चाहता हूं कि जिस प्रकार मैं इस छोटे से जिले से निकलकर सर्जन बन सका ठीक ऐसे ही जिले के टैलेंट को देखकर उनकी मदद करके ज़्यादा से ज़्यादा डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस और दूसरे प्रोफेशन में भेज सकूं दरअसल मैं अपने जीवन मे एक चैन बनाना चाहता हूं कि जो मैं करूँगा या कर रहा हूँ वो लोग भी ऐसे ही मिशनरी बने समाज को नया रास्ता दिखाए, गरीबो, मज़दूरों, असहाय, पिछडो की आवाज़ बनकर उन्हें उनका अधिकार दिलाए, जब हम एक लाइन क्रिएट करने में सफल हो जाएंगे तो धीरे धीरे यह काम बहुत तेजी से आगे बढ़ेगा हमारा जिला दूसरे जिलों से पिछडेगा नहीं बल्कि उनसे ज्यादा विकास करेगा और हम सबसे आगे होंगे। 
जब उनसे मैंने दूसरा सवाल किया कि देश मे इतनी सांप्रदायिकता फैल रही है फिर भी आप इंसानियत की बात कर रहे हो? इस सवाल के जवाब में थोड़ा सा ठिठक कर बोले कुछ लोग अपने राजनैतिक हित तो साध सकते है लेकिन कई पीढ़ियों को बर्बाद कर देंगे जो एक सभ्य समाज के लिए सही नहीं है, मैं सबसे ज्यादा धन्यवाद अपने जिले के जागरूक लोगो का करता हूँ जिन्होंने कभी दंगा नहीं होने दिया और इंसानियत को ज़िंदा रखने का प्रयास ज़ारी रखा। मुझे उम्मीद भी है कि आने वाले समय मे हम इंसानियत को ही सपोर्ट करेंगे और जो लोग नफ़रत की बात करते है उनको हरा देंगे। 
डॉ. शैलेन्द्र ने अपने प्रोफेशन से बहुत मोहब्बत की उससे भी ज्यादा कहीं समाज के पिछड़े तबके के लिए समय समय पर मोहब्बत का इज़हार भी किया।
डॉ. शैलेन्द्र ने बताया कि बेशक मेरी जीविका दूसरो की बीमारी पर निर्भर करती है यह तो विधि का विधान है फिर भी कोशिश यही रहती है कि कोई भी मेरे पास रोता हुआ आये और वो हंसकर जाए तो मुझे सबसे ज्यादा खुशी होती है दिल एकदम प्रफुल्लित हो जाता है। आखिर हम लोग दूसरों को दुःखो को दूर करने के लिए प्रयासरत है कहा भी जाता है कि डॉक्टर दुनिया मे भगवान की भांति है वो अपने इलाज़ के माध्यम से दूसरों के दुखों को हर लेता है और उनके चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयत्न करता है। 
अगर आने वाले समय मे सब कुछ अच्छा रहा तो एक बार फिर से इस समाज और जिले के लिए सामाजिक काम करने का प्रयास करूंगा जिससे नागरिको के हक़ और अधिकार मिल सके

अकरम क़ादरी
पॉलिटिकल एनालिस्ट, फ्रीलांसर

सोमवार, 8 जून 2020

SC, ST और महिलाओं की तरह ट्रांसजेंडर को भी मिले राजनैतिक आरक्षण - कंचन सेंदरे

SC, ST और महिलाओं की तरह ट्रांसजेंडर को भी मिले राजनैतिक आरक्षण - कंचन सेंदरे

भारत मे आरक्षण पर लगातार बहस हो रही है सबके विचार भिन्न-भिन्न है, सबका दृष्टिकोण अलग अलग है सब अपने अपने हिसाब से एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करते है लेकिन संविधान में आरक्षण का प्रावधान है उसका लाभ लगातार उन समाज को मिल रहा है जिसके वह लायक भी है आज भी उनकी सामाजिक और राजनैतिक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई अनेक राजनैतिक संघटनो ने इस संदर्भ में काफी बहस भी की कि किसी भी प्रकार से दलितों,पिछडो को मिलने वाला आरक्षण खत्म हो जाये जिसके कारण वर्तमान सरकार ने सामान्य वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जिसके कारण बहुत लोगो को लाभ भी पहुंच रहा है जबकि वो सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक तौर पर पिछड़े नहीं है लेकिन वोट बैंक की पॉलिटिक्स के कारण भारत सरकार ने इस मुद्दे को भुनाने का प्रयत्न किया।
वर्तमान परिस्थितियों में अगर देखा जाए तो हम देखते है कि ट्रांसजेंडर सामाजिक और राजनैतिक तौर पर सबसे ज्यादा पिछड़े हुए है ना ही उनको शिक्षा में कोई स्थान है ना ही किसी सरकारी या गैर सरकारी नोकरी में कुछ आरक्षण मिलता है बल्कि उनको समाज बड़ी हेय दृष्टि से देखता है अजीब अजीब नामो से पुकारा जाता है, बचपन मे ही उनके परिवार द्वारा उनको छोड़ दिया जाता है उनको कोई देखने वाला नहीं था ऐसी स्थिति में उनको जीवन को यथाचित गुज़र करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किशोरावस्था में परिवार द्वारा त्यागने की पीढ़ा को समझा जा सकता है दूसरी तरह जेण्डर के कारण समाज भी उनको नकार देता है जिसके दर्द को वो ही भलीभांति समझते है जो इन दिक्कतों का सामना करते है।
कंचन सेंदरे ने अपने जीवन की दुःखद कहानी को शेयर करते हुए कहा कि जब परिवार ने मुझे किशोरावस्था में त्यागा था तब बड़ी मुश्किलों से मुझे जीवन गुज़ारना पड़ा इधर उधर ठोकरे खाई, किन्नर समाज ने मुझे जीने का अधिकार दिया। मैंने अपने समाज की लड़ाई को लड़ने के लिए लड़को की तरह शिक्षा ग्रहण की किसी को यह एहसास नहीं होने दिया कि मैं ट्रांसजेंडर हूं बल्कि मेहनत से पढ़ाई करके मैंने समाज के सामाजिक कार्यो को तवज्जो दी विधानसभा का चुनाव लड़ा जीत हासिल नहीं कर सकी लेकिन लोगो के दिलो को जीता निर्दलीय लड़ने के बाद मैं तीसरे स्थान पर रही जबकि लोगो ने मुझे सपोर्ट भी किया और पैसा भी दिया।
वर्तमान स्थिति के अनुसार अगर ट्रांसजेंडर को विकास करना है तो राजनीति में आना है समाज से खुद को जोड़ना होगा जिससे हम समाज के और स्वयं के अधिकार ग्रहण कर सके
 जिनमें इस अवसर पर देश-विदेश के तमाम शोधकार्यकर्ता, आचार्य, सहायक आचार्य और गणमान्य लोग लाइव थे। इस अवसर पर डॉ शमा, डाॅ. विजेन्द्र, डाॅ. शमीम, डाॅ. एक.के. पाण्डेय, डाॅ. शगुफ्ता नियाज़, डाॅ. कामिल, डाॅ. आसिफ, मुनवर,
 डाॅ. लता, डाॅ. अफरोज,   अकरम हुसैन, मनीष, दीपांकर, कामिनी,   इमरान, राशिद, रिंकी, साफिया, गिरिजा भारती, अनुराग, अनवर खान, केशव बाजपेयी,  रोशनी आदि ने लाइव शो देखा।

इस कार्यक्रम को आप हमारे यूट्यूब चैनल पर भी देख और सुन सकते है

https://youtu.be/uGhDGwgP0Zw

हम तो इंसान है, समाज किन्नर समझता है - संजना सिंह राजपूत

हम तो इंसान है, समाज किन्नर समझता है - संजना

वाङ्गमय पत्रिका एवं विकास प्रकाशन कानपुर के तत्वाधान में चल रहे, ट्रांसजेंडर व्याख्यानमाला के चौथे दिन ट्रांस समुदाय से आने वाली संजना सिंह राजपूत ने कार्यक्रम "मेरी कहानी मेरी जबानी" के अंतर्गत 'मेरी कहानी और जेंडर समानता' विषय पर वाङ्गमय पत्रिका के पेज के माध्यम से अपनी बात रखी। उन्होंने अपनी बात रखते हुए कहा कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को बचपन से लेकर जवानी तक जो दर्द झेलना पड़ता है, वह बहुत ही असहनीय होता है। जब किसी घर में कोई बच्चा पैदा होता है तो परिवार और समाज के लोग उसके सेक्स अंग को देखकर ही तय कर देते हैं कि वह लड़का है या लड़की। जबकि हमारे मामले में ऐसा सम्भव नहीं हो सकता। संजना ने एमक्स धनन्जय की बात पर सहमति जताते हुए कहा कि हमारा शरीर एक पुरुष का होता है और आत्मा एक औरत की। किन्नर या ट्रांसजेंडर इन्हीं को कहते हैं।  ईश्वर हमें दो तत्वों से नवाज़ता है अर्थात स्त्री और पुरुष लेकिन समाज इसे समझ नहीं पाता है। लोग हमारी अंतरात्मा की आवाज को सुनते ही नहीं, हमारी भावना को समझते ही नहीं। मेरे घरवालों ने भी मेरा लालन-पालन एक लड़के की तरह ही किया था। 
संजना ने अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हम सब पैदा तो इंसान ही होते हैं। कौन लड़का है? कौन लड़की? या फिर कौन किन्नर? यह पहचान तो हमें समाज देता है। मैं जब घर से बाहर निकलना शुरू की तो सबसे पहले समाज ने ही मुझ पर कमेंट कर मेरे स्वरूप को चिन्हित किया। लोग मेरी चाल-ढाल को देख मुझे हिजड़ा/किन्नर आदि कहने लगे। तब पहली बार मुझे भी लगा कि शायद मैं किन्नर ही हूँ। 
उन्होंने अपने घर छोड़ने के सवाल पर कहा कि मेरे मामले में तो शायद परिवार मुझे अपने साथ रखना चाहता था किंतु समाज के रूढ़िवादी विचारों के चलते मेरे परिवार और मुझे दोनों को झुकना पड़ा। अंततः मुझे भी अपना घर त्यागना पड़ा। किसी भी परिवार के लिए अपने ट्रान्स बच्चे को स्वीकार्य कर पाना एक बड़ी चुनौती होती है। परिवार समाज के चलते ही ऐसे बच्चों को स्वीकार्य नहीं कर पाता। संजना ने भारी मन के साथ सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए कहा कि कभी-कभी मुझे लगता है कि आखिर ऐसा कौन सा पाप हमने किया है कि हमें अपना घर,परिवार, समाज सब छोड़ना पड़ता है। सही मायने में देखा जाए तो हमारी हालत एससी-एसटी से बदतर है। किन्नर समुदाय यदि आज अपनी अलग दुनिया बनाए हुए है तो उसका जिम्मेदार समाज ही है। 
संजना की पहचान आज एक सफल इंसान की है। वह मध्य प्रदेश सरकार के समाज कल्याण विभाग में निदेशक के पीए के रूप में कार्यरत हैं। संजना मध्यप्रदेश राज्य की 'स्वच्छ भारत अभियान' की ब्रांड एम्बेसडर भी हैं। उन्होंने अपनी सफलता के पीछे की कहानी के पीछे के राज को स्पष्ट करते हुए कहा कि मुझे परिवार और समाज से जो तकलीफ मिली मैंने उसे हमेशा पॉजिटिव ही लिया है। मेरी हमेशा कोशिश रही है कि मैं खुद को कर्म के माध्यम से सिद्ध करूँ।
उन्होंने अपने वक्तव्य के अंत में किन्नरों की सामाजिक स्थिति की विडंबना पर बात रखते हुए कहा कि हम लोगों के साथ ठीक वैसा ही होता है जैसे हम सभी सत्संग में जाते हैं, साधु-संतों को पूजते हैं, आदर-सत्कार करते हैं लेकिन हमी में से यदि किसी का बेटा साधू-महात्मा बन जाए तो वह दुखी हो जाता है। उसी तरह हमें भी लोग अपने मांगलिक कार्यक्रमों में शामिल करता है, दुआ-आशीष लेता है लेकिन उन्हीं के घर कोई ट्रान्स बच्चा पैदा हो जाए तो वह उसे अभिशाप समझने लगते हैं।
इसके साथ ही संजना ने सरकार से महिला आयोग की तरह राष्ट्रीय स्तर पर ट्रांसजेंडर आयोग बनाने की भी बात की है। आज के कार्यक्रम में बड़ी संख्या में शोधार्थी, प्रोफेसर, लेखक आदि बुद्धिजीवी वर्ग जुड़ा रहा।
इस अवसर पर देश-विदेश के तमाम शोधकार्यकर्ता, आचार्य, सहायक आचार्य और गणमान्य लोग लाइव थे। इस अवसर पर डॉ शमा, डाॅ. रेनू, डाॅ. विजेन्द्र, प्रोफसर विशाला, डाॅ. शमीम, डाॅ. एक.के. पाण्डेय, डाॅ. शगुफ्ता, डाॅ. कामिल, डाॅ. आसिफ, मुनवर,
प्रोफसर सीमा सगीर, डाॅ. लता, डाॅ. अफरोज, डाॅ. शाहिद, नियाज़ अहमद वाङ्गमय के सहसंपादक अकरम हुसैन, सदफ इश्तियाक, कुसुम सबलानिया,  मनीष गुप्त, दीपांकर, कामिनी, इमरान, राशिद, रिंकी, साफिया, गिरिजा भारती, अनुराग, अनवर खान, केशव बाजपेयी,  रोशनी आदि ने लाइव शो देखा।

इस कार्यक्रम को दोबारा सुनने के लिए आप हमारे यूट्यूब पर देख सकते है

https://youtu.be/3t4x06I4hSg

सोमवार, 1 जून 2020

बायलॉजिकल और सायकोलॉजिकल सेक्स के सामंजस्य के साथ इंसान बनता है- अनुराग वर्मा

बायलॉजिकल और सायकोलॉजिकल सेक्स के सामंजस्य के साथ इंसान बनता है- अनुराग वर्मा


वसुधैव कुटुम्बकम का दम्भ भरने वाली, दुनिया को मानवता को पाठ पढ़ाने का दावा करने वाली हमारी संस्कृति और उसके समाज ने शायद अब तक ऐसे दावे आँखों के साथ-२ दिलो-दिमाग मे पट्टी बांधकर ही किये होंगे। अन्यथा जो सांस्कृतिक समाज अपनी आधी आबादी को हासिये में डाल 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता' का गान करता रहा हो, अपने समाज को जातियों के पदानुक्रम में बांट मानव - मानव में भेद करता रहा हो, अपने ही घर मे जन्मे बच्चे को महज इसलिए कि उसका जन्मना लिंग उसकी भावना के साथ मेल नहीं खाता तो उसे घर और समाज से बहिष्कृत करता रहा हो, क्या ऐसा खुली आँखों से सम्भव था या है? क्या यह सब किये गए दावों के अनुरूप था या है? यदि हाँ या न दोनों ही स्थितियों में यह सिर्फ बेहयाई है, निर्लज्जता है, बेईमानी है, अमानवीयता है। जब तक समाज के अलग-अलग समूहों के बीच शिक्षा नहीं पहुंची थी तब तक यह सब दबे-छुपे चलता रहा। किन्तु अब, जब समाज के अलग-२ सामुदायिक समूहों के बीच शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है, वैसे-२ सारे दावे भरभरा-२ ढह रहे हैं। वर्तमान दौर हासिये के सामुदायिक समाजों के संघर्ष का दौर है। फिर चाहे वह स्त्री हो, दलित हो, आदिवासी हो या थर्डजेंडर ही क्यों न हो? हमने संविधान बनाया और सभी को भारतीय नागरिक का दर्जा दिया फिर कहा कि सभी बराबर हैं, किसी के साथ धर्म,मूल,वंश,जाती,लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, सभी के अधिकार बराबर हैं, सभी के लिए कानून बराबर है। क्या यह सच था या है? विषयानुसार भेभाव के सम्बंध में ट्रांसजेंडर जेंडर बिल 2016(2018) सबसे उपयुक्त उदाहरण है। इस बिल में यह प्रावधान किया गया कि "अगर कोई इंसान किसी ट्रांस व्यक्ति से बलात्कार करता है तो उसे इसके लिए दो साल की सजा मिलेगी और यदि वही व्यक्ति किसी महिला के साथ बलात्कार करता है तो उसे कम से कम सात साल की सजा मिलेगी।" संविधान की शपथ ग्रहण कर संसद की शोभा बढ़ाने वाले माननीयों द्वारा जिस तरह ट्रांसबिल 2016(2018) में संविधान का मखौल बनाया गया , वह क्या है? हासिये में पड़े एक समुदाय को स्वयं की कानूनी पहचान पाने के लिए 65-67 सालों का इंतजार करना पड़ा, आखिर क्यों? यह भेदभाव नहीं तो और क्या है? अब जब यह पहचान मिली भी है तो थर्ड जेंडर के रूप में?

थर्ड जेंडर शब्द पर मैं प्रश्न उठा रहा हूँ और यह मैं नहीं स्वयम ट्रान्स समुदाय ही इस पर शुरू से ही प्रश्न उठा रहा है। इस सम्बंध में ट्रांस समुदाय से आने वाली सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता मीरा परीदा एक व्यख्यान में  कहती हैं कि " मेरी उम्र अभी 5 साल की है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई पहचान से निश्चित रूप में हमे एक अवसर तो प्राप्त हुआ है। किन्तु मेरा सवाल यह है कि यदि हम तीसरा जेंडर हैं तो पहला और दूसरा जेंडर कौन है? इस हाल में बैठे लोग, पुरुष और औरत में से बताएं कि आपमें कौन पहला जेंडर है और कौन दूसरा? यदि हम तीसरा जेंडर हैं तो भारत मे समानता की बात बन्द करो।" क्या सुधार की ओर बढ़ने वाले कदम अभी पुरुषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं पाए हैं?

हमारे यहां सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि यहां जितने आंदोलन वह सभी सुधारवादी आंदोलन थे यहां परिवर्तनवादी आंदोलन कभी नहीं हुए। यही वजह है कि किसी भी क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हमे देखने को नहीं मिलता। थर्ड जेंडर के सम्बंध में भी कुछ ऐसा ही है।
वर्तमान दौर हासिये के समुदायों के संघर्ष का दौर है और इस संघर्ष में साहित्य की बड़ी भूमिका है। साहित्य की एक बड़ी प्रचलित परिभाषा है कि "साहित्य समाज का दर्पण है।" कल्पना करिए यदि दर्पण के सामने से कुछ हिस्से को हटा दिया जाए या छिपा दिया जाए तो क्या यह परिभाषा अपने आप में पूर्ण होगी? अब तक यही हो रहा था किंतु अब नहीं। भारतीय समाज एवम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि साहित्य की यह परिभाषा अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर है।

थर्ड जेंडर के सम्बंध में जब हम हिंदी साहित्य पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि आज व्यापक मात्रा में साहित्य हमारे पास उपलब्ध है। व्यापक मात्रा में साहित्य उपलब्ध होने के बाद भी हमे यह देखना होगा कि क्या उपलब्ध साहित्य विमर्श का साहित्य है या नहीं?
थर्ड जेंडर से जुड़े उपन्यासों या कहानियों और आत्मकथाओं पर हम नजर डालें तो हमे इन दोनों के बीच स्पष्ट अंतर नजर आता है। ज़्यादातर उपन्यास कहानियां मुख्यधारा से आने वाले लेखकों द्वारा लिखी गई हैं, यही वजह है कि इनमें एक ट्रांस व्यक्ति का चरित्र उभर कर नहीं आ पाता। अब तक आये उपन्यास कहानियों से हम थर्ड जेंडर समुदाय के बाह्य एवं व्यवहारिक स्वरूप से ही परिचित हो सके हैं। हालांकि इन सब मे राजेश मलिक का 'आधा आदमी' कुछ अलग है। वहीं जब हम थर्ड जेंडर से जुडी आत्मकथाओं का अध्य्यन करते हैं तो देखते हैं कि इनमें एक ट्रांस बच्चे का विकास कैसे होता है? उसे किस तरह की मानसिक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है? वह बायोलॉजिकल सेक्स और साइकोलॉजिकल सेक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करता है, उसके शोषण के कारण क्या है? यह सभी बातें विस्तार से स्पष्ट होती हैं। मेरा मानना है कि अब तक आये साहित्य और डॉ फिरोज खान द्वारा निभाई गई सम्पादकीय भूमिका ने इस विमर्श के लिए रास्ता खोला है, अब इससे आगे बढ़ने की जरूरत है, ट्रान्स समुदाय को लेखन कार्य के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
इस फेसबुक लाइव में अनेक बुद्धिजीवी, लेखक एवं पत्रकार शामिल हुए जिसमे
सुभाष अखिल,  डॉ शगुफ्ता, डॉ फ़ीरोज़ खान, डॉ शमीम, डॉ ए के पांडेय, डॉ शमा नाहिद, , डॉ  मेराज अहमद, रजनी वर्मा,  रोशनी बाजपेयी, डॉ मो.  आसिफ, अनवर , मनीष कुमार,  दीपांकर, कामिनी, रिंक्की, मुशिरा खातून, रुद्रांशी
वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन भी शामिल थे
यूट्यूब लिंक
https://youtu.be/EYunopEnVOQ
सुनिए थर्ड जेण्डर की ज़मीनी हक़ीक़त पर अनुराग वर्मा के विचार
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