मंगलवार, 24 नवंबर 2015

टॉलरेंस

वीविल नॉट टॉलरेट इन्टॉलरेन्सश् भारत में हाल में जो हालत बने हैं उससे संबंधित एक सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री जी ने लंदन में कहा। उन्होने यह भी कहा कि भारत बुद्ध और गांधी का देश है। मोदी शायद यह नही कहना चाहेंगे कि भारत हेडगेवार या सावरकर का देश है या फिर ये कि भारत तो परशुराम का देश है। इनके नाम से सहिष्णुता के प्रचार पर बट्टा लग जाएगा। लेकिन जिस संगठन के वे प्रचारक रहे हैं वो तो हेडगेवार को ही अपना आदर्श मानता है। प्रधानमंत्री जी झंडेवालां या नागपुर में संघ के दफ़्तर में भी क्या ये समझाना चाहेंगे कि भारत बुद्ध और गांधी का देश है।
प्रधानमंत्री जी के इस लंदन बयान से ठीक पहले गिरीश कर्नाड को हत्या की धमकी मिली क्योंकि उन्होने यह कह दिया था कि बंगलौर हवाई अड्डे का नाम टीपू सुल्तान के नाम पर रखा जा सकता है। कर्नाड को माफी मांगनी पड़ी। प्रोण् कलबुर्गी की हत्या के बाद कर्नाड को अंदाजा है कि यहां क्या हो सकता है। इससे कुछ दिन पहले ही एक भाजपा नेता ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री का सर कलम कर उससे फुटबॉल खेलने की धमकी दी क्योंकि मुख्यमंत्री जी ने कहा था बीफ खाना उनका अधिकार है। इस तरह और भी उदाहरणों की कोई कमी नही है। लेकिन शायद ये प्रधानमंत्री जी के लिए असहिष्णुता की श्रेणी में नही आते हैं क्योंकि इस तरह की धमकियां देने वालों के खिलाफ़ न प्रधानमंत्री की तरफ से न उनकी पार्टी से और न ही पार्टी के आका संगठन ;यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघद्ध की तरफ से कार्यवाही तो दूर भत्र्सना का कोई बयान ही आया। बल्कि इसके उलट बिहार चुनाव में खुद प्रधानमंत्री ने अपनी शैली में बड़े सहिष्णुतापूर्ण बयान दिए।
संभवत: यह पहली बार हुआ है कि विदेश में किसी प्रधानमंत्री से देश में सहिष्णुता के बारे में चिंता प्रकट करते हुए सवाल पूछे गए। मोदी भक्त कहीं इसे भी भारत में रहने वाले ष्पाकिस्तानियोंष् की साजिश न करार दें। अभी कुछ दिन पहले अरुण जेटली ने कहा ही था कि कहां है असहिष्णुता! साहित्यकारोंए कलाकारों व बुद्धिजीवियों के भारी विरोध और पुरस्कार.वापसी को जेटली ने सरकार के खिलाफ़ खड़ी की गई एक श्मैनुफ़ैक्चर्ड क्राइसिसश् ;छद्म संकटद्ध भी कहा था।
हजामत मंगलवार को बनाना चाहिए या नहीं इस बात पर कहीं हिंसा हो रही है। कहीं पर गौ.मांस के नाम पर इंसानों की हत्या हो रही है। सरकार के विरोध में बोलने वालों को पाकिस्तानी कहा जा रहा है। हत्या की धमकियां दी जा रही हैं। जेटली के लिए ये संकट नही है। घड़ी.घड़ी सोशल मीडिया पर ष्ट्वीटष् करने वाले प्रधानमंत्री इन घटनाओं पर चुप्पी साधे रहते हैं और बहुत दबाव में मुंह खोलते है तो कहते हैं कि ये तो राज्य सरकार का मामला है। ये सब जेटली की नजर में संकट नही है। संकट तब है जब इसके विरोध में आवाज उठाई जाती है!
लेकिन संकट इतना भर ही नही है। संकट तो ये भी है कि इन सबके बावजूद प्रधानमंत्री विदेश में बयान देते हैं कि असहिष्णुता के प्रति सहिष्णुता नही बरती जाएगी। बहुत लोग इस तरह के झूठे बयान को शायद संकट की श्रेणी में न रखें। सच बोलने के लिए नेताओं की ख्याति लंबे समय से नही बची है। मोदी जी भला अपवाद क्यों रहें। पंद्रह.पंद्रह लाख रुपए हर खाते में जमा करने के वादे से ये जबसे मुकरे हैं तबसे तो लोगों की रही.सही उम्मीद भी जाती रही है।
भाजपा.संघ समर्थकों का एक बड़ा समूह है जो ये कह रहा है कि इस ष्असहिष्णुताष् में नया क्या है। वो बोल रहे हैं कि इस तरह की घटनाएं तो देश में हमेशा से होती रही हैं फिर अभी इस तरह का विरोध क्यों। ये सब बस मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए हो रहा है। मै ये नही कहूंगा कि ये लोग पूरी तरह गलत हैं। लेकिन बात सिर्फ 1984 के दंगों या कश्मीरी पंडितों की ही क्यों होघ् अगर असहिष्णुता का इतिहास खंगालना ही है तो शुरुआत और पहले होनी चाहिए। तपस्या कर रहे शंबूक की हत्या इसका पुराना उदाहरण है। चार्वाकों का पूरा भौतिकवादी साहित्य ब्राह्मणों ने नष्ट कर दिया ये दूसरा उदाहरण है। ब्राह्मणवादी शासकों द्वारा बौद्धों का बड़े पैमाने पर किया गया संहार एक और उदाहरण है। जाति प्रथा व छुआ.छूत और सती प्रथा दूसरे उदाहरण हैं। मनु.स्मृति तो असहिष्णुता का स्मारक ही है। तो यह तो बिल्कुल सही है कि असहिष्णुता इस देश के लिए नई घटना नही है।
लेकिन ये सिर्फ एक तिहाई सच है पूरा सच नही। बाकी एक तिहाई सच ये है कि इस असहिष्णुता के खिलाफ़ आवाज पहले भी उठी है। शंबूक की हत्या को दर्ज करने वाला भी तो साहित्यकार ही था। ब्राह्मणवादी असहिष्णुता के खिलाफ़ आवाज उठाने वाले कवियों और दार्शनिकों की तो समृद्ध परंपरा ही रही है देश में। हमारे आधुनिक साहित्यकारों ने इस परंपरा को और समृद्ध किया है। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ़ उभरे राष्ट्रीय आंदोलन में साहित्यकार व बुद्धिजीवी मुखर रहे हैं। आज़ादी के बाद भी देश के साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से की आवाज़ सामाजिक विसंगतियों और सत्ता के प्रतिपक्ष की ही रही है। तो ये कहना कि साहित्यकार या बुद्धिजीवी इससे पहले चुप रहे हैं सही नही है।
इस तस्वीर का तीसरा एक तिहाई पक्ष ये भी है कि पिछले कुछ समय से देश में असहिष्णुता को बढ़ावा देने वाली ताकतों को बल मिला है। समाज के वे हिस्से जो पहले दमन या असहिष्णुता के निशाने पर सीधे.सीधे नही थे उनपर भी निशाना साधा गया है। इसकी संगठित शुरुआत शायद एमण् एफ़ण् हुसैन या तसलीमा नसरिन के साथ ही शुरु हो गई थी और उसके बाद ये असहिष्णुता तेजी से आगे बढ़ी है। असहिष्णुता की प्रवृतियों में एक गुणात्मक दुस्साहस पनपा है जिसकी झलक वर्तमान सरकार और संघ गिरोह में देखने को मिल रही है। ये और कुछ नही बल्कि आधुनिक व समतावादी विचारों व आंदोलनों के खिलाफ़ प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवाद का हमला है। मोदी चाहे जो बोलेंए यह याद रखना चाहिए कि ये उस याज्ञवल्क्य का देश है जो गार्गी के सवालों से घबराकर उसका सर फोडऩे की धमकी देते हैं।

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