तपते बदन और झुलसे हुए मन से निकलते है शब्द, तब होती है सृजनात्मक साहित्य की साधना ऐसा होते मैंने स्वयं देखा है जब एक साहित्य का सच्चा साधक जो सुबह की किरण फूटने के बाद दैनिक दिनचर्या से निपटकर हल्का फुल्का नाश्ता लेकर किताब की तरफ आगे बढ़ जाता है जो सोचता है कि कम समय मे साहित्य को कुछ ज्यादा देकर जाए जिससे साहित्य की सही मायनों में सेवा हो सके, जब भी वो उठता,खाता, पीता है तो साहित्य के ही लिए सोचता है, वैसे तो वो लगभग 15 वर्ष से एक पत्रिका का संपादन कर रहे है, जिसने हिंदी साहित्य की अद्वितीय सेवा की है जिसको आज देश-दुनियां के हिंदी प्रेमी पड़ते भी है उसके अलावा कुछ ऐसे है जो कुछ कटु शब्द रखते है उस इंसान से वो दुसरो से पत्रिका मंगवाकर पड़ते है ऐसे लोगो को मैं सलाम पेश करता हूँ जो साहित्य की इज़्ज़त करना जानते है वो बात दूसरी है कि हमारे आपके सम्बन्ध ना मेल खाये, लेकिन अगर दुश्मन भी अच्छा काम करे तो उसकी प्रशंसा भी बड़े मन से होना चाहिए, पिछले लगभग दो वर्ष से किन्नर समाज के प्रश्नों को उन्होंने नए ढंग से उठाकर साहित्यप्रेमियों को सोचने, समझने पर मजबूर कर दिया हालांकि वो कहते है प्रथम कहानी 1915 में थी, प्रथम उपन्यास 1880 में लिखा गया, आखिर क्या वजह थी किसी भी साहित्यकार ने किन्नर समाज के बारे में हिंदी साहित्य में नही सोचा बड़े मुश्किल से सन दो हज़ार के आस-पास कुछ बुद्धिजीवियों ने सोचा भी लेकिन उनको प्रोत्साहन नही मिल पाया, उनका सृजनात्मक साहित्य की साहित्य जगत में इतनी चर्चा भी नही हुई क्योंकि यह काम एकदम भिन्न है ऐसे लोगो के बीच से लिया जा रहा है ना ही उनका कोई धर्म है, ना कोईं लिंग, ना कोई जाति वो खुद में एक संपूर्ण समुदाय है जो लोगो के मध्य खुशी बांटने का व्यापार करता है, जबकि स्वयं को अपने परिवार से दूर पाता है, ऐसे वंचित समाज की पीड़ाओं को उन्होंने अपने पत्रिका और पुस्तक संपादन के माध्यम से उठाने का जटिल प्रयत्न किया है, एक ऐसा साधक जब उनके पास बैठो तो साहित्य के अलावा दूसरी चर्चा भी नही होती है कभी कभार खाने पीने की बात हो जाती है उसके अलावा कोई तीसरी चर्चा ही नही, इस पुस्तक पर यह काम बढ़िया रहेगा, उस पुस्तक का टाइटल बदलो वो पुस्तक शोध के लिए बढ़िया है, उस पुस्तक में किन्नर विमर्श को अच्छे से उठाया है यही सब सुनने को मिलता रहता है, उनकी इस चर्चा से उनकी प्रिय पुत्री भी कभी कभी खीझने लगती है, कभी उनकी साहित्यप्रेमी पत्नी भी सवाल करने लगती हैं जब ऐसा होता है तब वैसा क्यो नही हुआ, इसमे आपने यह बोला तो वो क्यो नही हो सकता काफी साहित्यिक वाद-विवाद होता हम लोग रुचि से सुनते रहते फिर सोचने पर मजबूर हो जाते। कुछ समय बाद उसी वाद-विवाद से एक दाना अंकुरित होता फिर हमको नए विषय पर सोचने और लिखने की प्रेणना मिलती ।
एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने साहित्य को ही जिया है उनके साथ बैठकर हम अल्पज्ञानी भी कुछ आनन्दविभोर होते है, मज़ा लेते है, सीखते है, वो नए रास्ते बताते है हम उनपर कमर कसकर आगे बढ़ने की सोचते है, वो डांटते है प्यार करते है और समय समय पर एक ऐसा सुझाव देते है जिससे यकीनन हमारा और साहित्य का लाभ होता है.... इतना सब कुछ लिख दिया लोग समझते होंगे वो इंसान आखिर है कौन वो सच मे एक सच्चा इंसान, मानवता का प्रहरी डॉ. एम. फ़िरोज़ ख़ान सर है जिन्होंने हमारी रुचि को साहित्य की तरफ मोड़ दिया है, हम ईश्वर से कामना करते है कि ऐसे साहित्य प्रेमी को लम्बी आयु प्रदान करे और हमारे जैसे अनेक अल्पज्ञानियो का मार्गदर्शन कर सके
बहुत बहुत धन्यवाद
सर.........
Nice
जवाब देंहटाएंNice sir ji
जवाब देंहटाएंbehtareen
जवाब देंहटाएंवास्तव में अकरम सर आदरणीय फ़िरोज़ सर जैसी ललक साहित्य प्रेमियों में बहुत ही कम देखने को मिलती हैं । ये समकालीन दौर के स्तंभ हैं।💐👌बधाई सर👌
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