मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

वाङ्गमय का 'वेश्यावृत्ति' अंक की समीक्षा - डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह

डॉ. फिरोज अहमद द्वारा संपादित पत्रिका वाङ्गमय का जनवरी-जून 2019 का अंक वेश्‍यावृत्ति पर केंद्रित हिंदी-उर्दू तथा पंजाबी कहानियों पर आधार एक संग्रहणीय अंक है। यह अंक प्रेमचंद (वेश्‍या), यशपाल (हलाल का टुकड़ा), राजकमल चौधरी (जलते हुए मकान में कुछ लोग), कमलेश्‍वर ( मांस का दरिया),  सूरज प्रकाश (उर्फ  चन्‍दरकला), चित्रा मुद्गल (फातिमा बाई कोठे पर ही नहीं रहती), नासिरा शर्मा(दरवाज-ए-कजविन), सुभाष अखिल (बाजार बंद), लवलेश दत्‍त(दरवाजे), डॉ.विजेंद्र पाल शर्मा(वेश्‍या),अजय कुमार शर्मा(वेश्‍या एक प्रेरणा), डॉ. लता अग्रवाल(तवायफ की बेडि़यां), मंटो(हतक), तौसीफ चुगताई(तस्‍वीर), शमोएल अहमद(सिंगारदान), सगीर रहमानी(हरामजादियां), जिंदर (मछली),जसवीर भुल्‍लर( समंदर की तरफ खुलती खिड़कियां) तथा अंजना शिवदीप (देही कार्ड) आदि का संग्रह है। सारी कहानियां जहां रचनाकारों के स्‍तर पर नामचीन हैं वहीं विषय, कथ्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से बहुत ही उम्‍दा हैं।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी कला का कोई शानी नहीं है। ‘वेश्‍या’ दो मित्रों दयाकृष्‍ण और सिंगार सिंह के एक ही वेश्‍या के साथ संलिप्‍तता की कहानी है परंतु वेश्‍या के लिए दोनों के आदर्श और मायने अलग हैं। ‘‘वह सिंगार सिंह का मित्र नहीं रहा, प्रतिद्वंदी हो गया है। दोनों एक ही प्रतिमा के उपासक हैं, मगर उनकी उपासना में अंतर है। सिंगार सिंह की दृष्टि में माधुरी केवल विलास की एक वस्‍तु है, केवल विनोद का एक यंत्र। दयाकृष्‍ण विनय की मूर्ति है जो माधुरी की सेवा में ही प्रसन्‍न है।’’( पृष्‍ठ 12) यशपाल की ‘हलाल का टुकड़ा‘  कहानी में फुलिया वेश्या होकर भी धर्म को पहचानती है। ईमानदारी से सौदा करती है। दो रूपए की खातिर अपना शरीर बेंचने वाली फुलिया कांग्रेस नेता रावत के दो हजार रूपए ठुकरा देती है-‘‘वाह रे, हम कोई पीर-फकीर हैं क्या? जो हाथ फैलाकर खैरात की खिदमत करेंगे तो हलाल के टुकड़े पर हमारा हक होगा। ऐसे गए गुजरे थोड़े ही हैं कि भीख माँग लें।‘‘(पृ.28) राजकमल चौधरी की जलते हुए मकान में कुछ लोग अलग मिजाज की कहानी है। इसमें पुलिस रैड से बचने के लिए रंडियां अपने ग्राहकों के साथ एक अंधकारपूर्ण सीलन भरे तहखाने छुप जाते हैं। ग्राहक अपने वहां फंसने से चिंतित होते हैं और छोटीबड़ी समस्‍याओं से जूझते हैं तो रंडियां अपने ग्राहकों के साथ उस अंधेरे कमरे में भी मस्‍त। अभ्‍यस्‍तता के कारण। दीपू नामक वेश्‍या वेश्‍यागमन और आनंद का आरेख खींचते हुए कहती है-‘शराब और औरत यहां सस्‍ते में मिलती है। देखों न, मैं बैठती तो रात भर के पचास रूपये लोग खुशी से दे जाते। मैं मेहनती औरत हूं। कायदे से काम करना जानती हूं। तुम जरा भी शर्म मत करो समझलो, अंधेरे में हर औरत हर मर्द की बीबी होती है। अंधेरे में शर्म मिट जाती हैा रंग, धर्म, जात-बिरादरी,मोहब्‍बत,ईमान, अंधेरे में सब कुछ मिट जाता है। सिर्फ कमर के नीचे बैठी हुई औरत याद रहती है।(पृष्‍ठ; 36-37) सूरजप्रकाश की कहानी ‘उर्फ चंदरकला दो नौकरपेश सफेदपोश अय्याशों की कहानी है जो जिस्‍म की भूख के समय रंडी को चूमते,चाटते एवं जूठा खाना खाते खिलाते है परंतु रात गुजारने के बाद उसे ताल मार कर भगा देते हैं। उसे हर तरह से इस्‍तेमाल करते हैं रंडी प्रतिवाद भी करती है परंतु मजबूरीवश चुप रहकर ग्राहकों की सारी बातें मानती रहती हैं। महानगरीय जीवन में ऐसा होना आम बात है।
उपर्युक्‍त के अतिरिक्‍त चित्रा मुद्गल (फातिमा बाई कोठे पर ही नहीं रहती), नासिरा शर्मा(दरवाज-ए-कजविन), सुभाष अखिल (बाजार बंद), लवलेश दत्‍त(दरवाजे), डॉ.विजेंद्र पाल शर्मा(वेश्‍या),अजय कुमार शर्मा(वेश्‍या एक प्रेरणा), डॉ. लता अग्रवाल(तवायफ की बेडि़यां), मंटो(हतक), तौसीफ चुगताई(तस्‍वीर),शमोएल अहमद(सिंगारदान),सगीर रहमानी(हरामजादियां),जिंदर (मछली),जसवीर भुल्‍लर( समंदर की तरफ खुलती खिड़कियां) तथा अंजना शिवदीप (देही कार्ड) आदि कहानियां भी स्‍त्री जीवन की त्रासदी का प्रस्‍तुतीकरण करती है साथ ही पाठकमन को विवश करती हैं यह सोचने के लिए कि क्‍या स्‍त्री जीवन  की परिणति यही है।

समीक्षक
डॉ.विजेंद्र प्रताप सिंह
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संदर्भ – वाङ्गमय (‍त्रैमासिक हिंदी पत्रिका), वेश्‍यावृत्ति पर केंद्रित हिंदी-उर्दू ओर पंजाबी कहानियां, जनवरी-जून 2019,  संपादक डॉ.फिरोज अहमद,
सहसंपादक
अकरम हुसैन

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