शनिवार, 9 मई 2020

आकृति शावेज़ ख़ान

आकृति 
                         द्वारा 
                       शावेज़ ख़ान
                               
खड़ी चढ़ाई वाली काली डामर की सड़क स्ट्रीट लाइट्स से जगमगाती हुई। बारिश के कारण कुछ और काली दीख पढ़ती थी, जो अनायास किसी तेज़ रफ्तार वाहन की हेडलाइट से ऐसे चमक उठती थी, मानो कोई साँप भरी दोपहरी में लहराता हुआ जा रहा हो, इतनी तेज़ कि किसी की नज़र में न आ जाए। आठ बजे टेकरी वाले मंदिर पर मिलने का जो वादा हुआ था अब वह धीरे धीरे धुंधला पड़ता दीख रहा था। हर एक मिनट झुंझलाहट और गुस्से में तब्दील होता जा रहा था... लेकिन कदम टस से मस न हो रहे थे जैसे इस सड़क के बनते वख्त आप यहीं थे। दूर नीचे एक आकृति धीमी-धीमी सी गति में ऊपर की ओर बढ़ रही थी। तब पहली बार महसूस हुआ की कमबख़्त नज़र कमज़ोर होने का क्या नुक्सान है। अब आकृति केवल आकृति न थी, वह सामने थी और हाँफते हुए उसने हाथ उठाकर ज़बरदस्ती चहरे पे लाई हुई एक मुस्कान के साथ कहा "हैलो...! कैसे हो आप!", जी तो चाह रहा था की कह दूँ तुम्हें देखकर ही तो जीता हूँ,  लेकिन ढोंग रचता हुआ बोला 'कि कितनी देर कर दी तुमने, ये भी कोई तरीका है?' 

कभी कभी जीवन में बहुत कुछ अप्रत्याशित होता है। आप सोचते कुछ हैं और होता कुछ है। वह कुछ देर तक खामोश खड़ी रही और बोली "हमारा एक दूसरे से अलग होना बहतर होगा। तुम्हारी वजह से मैं अपने सिद्धांतों का उल्लंघन कर रही हूँ, लेकिन मैं अपनी स्मृतियों में हमेशा तुम्हें जीवित रखूंगी, तुम जो चाहें मर्ज़ी समझ सकते हो लेकिन यही सही है और यही होना चाहिए। " 

फिर धीमे-धीमे वह आकृति नीचे की ओर चलती गई और कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गई और मैं एकटक मंदिर की जगमगाती रौशनी को देखता रहा, नहीं जानता कितने समय तक। न जाने कितने प्रश्न मेरे मन में मंदिर के घंटे की तरह बजते रहे। बहुत कुछ अकारण ही हो गया बड़ा अजीब होता है जब बिना गलती के आपको सज़ा मिलती है। कहने को तो स्कूल में कई बार मास्टर जी ने स्टील के स्केल से बेवजह हाथ के गट्टे तोड़े थे, पर आज उस पीड़ा ने अपना अस्तित्व खो ही दिया था। एक घुटन, एक मायूसी और अंतहीन प्रश्नों की श्रंखला। आँखें सारी-सारी रात चाह कर भी न बंद हो पातीं, बंद होतीं तो वही जाते हुए छोटे-छोटे कदम मन को भारी कर देते और मैं सिगरेट पीता हुआ उसी टेकरी की ओर चल देता जहां अक्सर बैठ कर मैं दुनिया से निजात पा जाता था। कुछ कहता था और बहुत कुछ सुनता था। 


वो घंटों तक हमें आगोश में लिए बैठे रहते थे। उनकी गरम-गरम सांसें मेरी गर्दन पे जैसे उनका  नाम लिख देती थीं। पकड़ आहिस्ता-आहिस्ता कसती ही जाती थी। वैसे तो मेरी कद काठी पे सभी रश्क करते थे पर न जाने क्यों उसके सामने मेरा कोई ज़ोर न चलता था। आज भी याद है जब वो  सीने में ख़ुद को एक दफ़ा छिपाकर बोले थे “मुझे कभी ख़ुद से अलग न होने देना” और मैंने कुछ न कह कर उनके माथे को चूम लिया था। कभी सोचता हूँ कि क्या मेरे कुछ न कहने की वजह से ये सब हुआ? लफ़्ज़ इतने माइने रखते हैं, तो यही वजह होगी! फिर एक ख्याल ये आता है कि जब यही वजह थी तो वो मुझे देख कर मुस्कुरा क्यों दिए थे? 

आज एक महीना होने को आया, जिस दौरान न तो कोई फोन आया और न ही कोई संदेश। आस छोड़ने के बाद भी एक आस इस आस को न छोड़ने को मजबूर करती है। न जाने क्यों उम्मीद टूटने को तैयार नहीं होती, न जाने क्यों उनकी तस्वीर आँखों के सामने से हटती नहीं, कुछ न सोचकर भी उन्हीं को सोचना। अपने जीवन में बहुत सी स्त्रीविरोधी रचनाएँ पढ़ीं और उनका अध्ययन भी किया किंतु रचनाकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्कों से कभी मेल न बैठा सका हमेशा उन्हें गलत ठहराता रहा। पर आज न जाने क्यों वो सब मुझ पर हंसते से दिखाई पड़ते हैं जैसे कह रहें हो ‘क्यों बच्चू बड़ा पक्ष धरता था, अब क्या हुआ?’ और मैं निःशब्द उनकी इन प्रतिध्वनियों को सुनता रहता हूँ। 

उस टेकरी पर बैठा सिगरेट पी ही रहा था कि इतने में एक सुंदर कद-काठी वाला एक लड़का वहाँ आ धमका और मुझे नमस्ते किया। उसे जानता तो नहीं था पर प्रतिकृया अवश्य दे दी। उसे ऊपर से नीचे तक देख ही रहा था कि इतने में एक आकृति फिर दिखाई पड़ी और मैंने मंदिर की तरफ पलट कर देखा, वह अब भी जगमगा रहा था। वहाँ से हट जाना ही मैंने उचित समझा और धीमे-धीमे ढलान से उतरते हुए मैंने उस लड़के को देखा। वह भी मुझे देख रहा था और आँखों ही आँखों में उससे कहा “मित्र यदि कल तुम्हें सिगरेट की आवश्यकता हो तो संकोच किए बिना मांग लेना” और मैं मुसकुराता हुआ नीचे की ओर बढ़ गया।

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