सोमवार, 1 जून 2020

बायलॉजिकल और सायकोलॉजिकल सेक्स के सामंजस्य के साथ इंसान बनता है- अनुराग वर्मा

बायलॉजिकल और सायकोलॉजिकल सेक्स के सामंजस्य के साथ इंसान बनता है- अनुराग वर्मा


वसुधैव कुटुम्बकम का दम्भ भरने वाली, दुनिया को मानवता को पाठ पढ़ाने का दावा करने वाली हमारी संस्कृति और उसके समाज ने शायद अब तक ऐसे दावे आँखों के साथ-२ दिलो-दिमाग मे पट्टी बांधकर ही किये होंगे। अन्यथा जो सांस्कृतिक समाज अपनी आधी आबादी को हासिये में डाल 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता' का गान करता रहा हो, अपने समाज को जातियों के पदानुक्रम में बांट मानव - मानव में भेद करता रहा हो, अपने ही घर मे जन्मे बच्चे को महज इसलिए कि उसका जन्मना लिंग उसकी भावना के साथ मेल नहीं खाता तो उसे घर और समाज से बहिष्कृत करता रहा हो, क्या ऐसा खुली आँखों से सम्भव था या है? क्या यह सब किये गए दावों के अनुरूप था या है? यदि हाँ या न दोनों ही स्थितियों में यह सिर्फ बेहयाई है, निर्लज्जता है, बेईमानी है, अमानवीयता है। जब तक समाज के अलग-अलग समूहों के बीच शिक्षा नहीं पहुंची थी तब तक यह सब दबे-छुपे चलता रहा। किन्तु अब, जब समाज के अलग-२ सामुदायिक समूहों के बीच शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है, वैसे-२ सारे दावे भरभरा-२ ढह रहे हैं। वर्तमान दौर हासिये के सामुदायिक समाजों के संघर्ष का दौर है। फिर चाहे वह स्त्री हो, दलित हो, आदिवासी हो या थर्डजेंडर ही क्यों न हो? हमने संविधान बनाया और सभी को भारतीय नागरिक का दर्जा दिया फिर कहा कि सभी बराबर हैं, किसी के साथ धर्म,मूल,वंश,जाती,लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, सभी के अधिकार बराबर हैं, सभी के लिए कानून बराबर है। क्या यह सच था या है? विषयानुसार भेभाव के सम्बंध में ट्रांसजेंडर जेंडर बिल 2016(2018) सबसे उपयुक्त उदाहरण है। इस बिल में यह प्रावधान किया गया कि "अगर कोई इंसान किसी ट्रांस व्यक्ति से बलात्कार करता है तो उसे इसके लिए दो साल की सजा मिलेगी और यदि वही व्यक्ति किसी महिला के साथ बलात्कार करता है तो उसे कम से कम सात साल की सजा मिलेगी।" संविधान की शपथ ग्रहण कर संसद की शोभा बढ़ाने वाले माननीयों द्वारा जिस तरह ट्रांसबिल 2016(2018) में संविधान का मखौल बनाया गया , वह क्या है? हासिये में पड़े एक समुदाय को स्वयं की कानूनी पहचान पाने के लिए 65-67 सालों का इंतजार करना पड़ा, आखिर क्यों? यह भेदभाव नहीं तो और क्या है? अब जब यह पहचान मिली भी है तो थर्ड जेंडर के रूप में?

थर्ड जेंडर शब्द पर मैं प्रश्न उठा रहा हूँ और यह मैं नहीं स्वयम ट्रान्स समुदाय ही इस पर शुरू से ही प्रश्न उठा रहा है। इस सम्बंध में ट्रांस समुदाय से आने वाली सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता मीरा परीदा एक व्यख्यान में  कहती हैं कि " मेरी उम्र अभी 5 साल की है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई पहचान से निश्चित रूप में हमे एक अवसर तो प्राप्त हुआ है। किन्तु मेरा सवाल यह है कि यदि हम तीसरा जेंडर हैं तो पहला और दूसरा जेंडर कौन है? इस हाल में बैठे लोग, पुरुष और औरत में से बताएं कि आपमें कौन पहला जेंडर है और कौन दूसरा? यदि हम तीसरा जेंडर हैं तो भारत मे समानता की बात बन्द करो।" क्या सुधार की ओर बढ़ने वाले कदम अभी पुरुषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं पाए हैं?

हमारे यहां सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि यहां जितने आंदोलन वह सभी सुधारवादी आंदोलन थे यहां परिवर्तनवादी आंदोलन कभी नहीं हुए। यही वजह है कि किसी भी क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हमे देखने को नहीं मिलता। थर्ड जेंडर के सम्बंध में भी कुछ ऐसा ही है।
वर्तमान दौर हासिये के समुदायों के संघर्ष का दौर है और इस संघर्ष में साहित्य की बड़ी भूमिका है। साहित्य की एक बड़ी प्रचलित परिभाषा है कि "साहित्य समाज का दर्पण है।" कल्पना करिए यदि दर्पण के सामने से कुछ हिस्से को हटा दिया जाए या छिपा दिया जाए तो क्या यह परिभाषा अपने आप में पूर्ण होगी? अब तक यही हो रहा था किंतु अब नहीं। भारतीय समाज एवम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि साहित्य की यह परिभाषा अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर है।

थर्ड जेंडर के सम्बंध में जब हम हिंदी साहित्य पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि आज व्यापक मात्रा में साहित्य हमारे पास उपलब्ध है। व्यापक मात्रा में साहित्य उपलब्ध होने के बाद भी हमे यह देखना होगा कि क्या उपलब्ध साहित्य विमर्श का साहित्य है या नहीं?
थर्ड जेंडर से जुड़े उपन्यासों या कहानियों और आत्मकथाओं पर हम नजर डालें तो हमे इन दोनों के बीच स्पष्ट अंतर नजर आता है। ज़्यादातर उपन्यास कहानियां मुख्यधारा से आने वाले लेखकों द्वारा लिखी गई हैं, यही वजह है कि इनमें एक ट्रांस व्यक्ति का चरित्र उभर कर नहीं आ पाता। अब तक आये उपन्यास कहानियों से हम थर्ड जेंडर समुदाय के बाह्य एवं व्यवहारिक स्वरूप से ही परिचित हो सके हैं। हालांकि इन सब मे राजेश मलिक का 'आधा आदमी' कुछ अलग है। वहीं जब हम थर्ड जेंडर से जुडी आत्मकथाओं का अध्य्यन करते हैं तो देखते हैं कि इनमें एक ट्रांस बच्चे का विकास कैसे होता है? उसे किस तरह की मानसिक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है? वह बायोलॉजिकल सेक्स और साइकोलॉजिकल सेक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करता है, उसके शोषण के कारण क्या है? यह सभी बातें विस्तार से स्पष्ट होती हैं। मेरा मानना है कि अब तक आये साहित्य और डॉ फिरोज खान द्वारा निभाई गई सम्पादकीय भूमिका ने इस विमर्श के लिए रास्ता खोला है, अब इससे आगे बढ़ने की जरूरत है, ट्रान्स समुदाय को लेखन कार्य के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
इस फेसबुक लाइव में अनेक बुद्धिजीवी, लेखक एवं पत्रकार शामिल हुए जिसमे
सुभाष अखिल,  डॉ शगुफ्ता, डॉ फ़ीरोज़ खान, डॉ शमीम, डॉ ए के पांडेय, डॉ शमा नाहिद, , डॉ  मेराज अहमद, रजनी वर्मा,  रोशनी बाजपेयी, डॉ मो.  आसिफ, अनवर , मनीष कुमार,  दीपांकर, कामिनी, रिंक्की, मुशिरा खातून, रुद्रांशी
वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन भी शामिल थे
यूट्यूब लिंक
https://youtu.be/EYunopEnVOQ
सुनिए थर्ड जेण्डर की ज़मीनी हक़ीक़त पर अनुराग वर्मा के विचार
वाङ्गमय पत्रिका के फेसबुक लाइव से

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें