रविवार, 13 सितंबर 2020

हिंदी को दोयम दर्जे का क्यों समझा जाता है.?- पुष्पिता अवस्थी

हिंदी को दोयम दर्जे का क्यों समझा जाता है ?- पुष्पिता अवस्थी

अक्सर देखा यह गया है कि देश में हिंदी की जयकार करने वाले लोग, मंच, माला और माइक के साथ जब हिंदी का जयघोष करते है तो एक सामान्य भारतीय नागरिक को गर्व होता है होना भी चाहिए क्योंकि यह घोषित रूप से राष्ट्रभाषा तो नहीं है लेकिन राजभाषा तो है जिसको अधिकतर भारतीय बोलते, समझते और लिखते है और उनकी आम जनजीवन की भाषा भी हिंदी है जो देश को नाभिनाल से जोड़े रखने में सहायक है लेकिन भारत के राजनेताओ ने इस संदर्भ में ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने हिंदी भाषा का नाम लेकर, माइक, मंच से खूब हिंदी में लच्छेदार भाषण तो दिए लेकिन अमलीजामा पहनाने में नाकामयाब रहे है जिसको देखकर मुझे बहुत ताज्जुब होता है कि जो यह वादा करते है आखिर वो पूरा क्यों नहीं करते है।
हिंदी भाषा का प्रचार यदि वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो प्रवासियों से ज़्यादा भारतवंशी प्रसार कर रहे है वो हमेशा देश और भाषा को स्वयं से जोड़े रखने में सेतु मानते है और भारतीय संस्कृति, संस्कार को विदेशों में फैलाने का एक मुख्य स्रोत समझते है इसलिए वो विदेशों में मंदिर, मस्ज़िद, मठ में हिंदी को सीखते है और जब वो आपस मे मिलते है तो हिंदी भाषा या भारतीय भाषाओं में ही बात करते है जबकि यूरोपियन देशों में रहकर यह भारतवंशी वहां की राजकीय भाषा को तो सीखते ही है फिर भी अपनी हिंदी को जोड़े रखते है कहा जा सकता है कि हर तरह से आधुनिक हुए है लेकिन कभी भी अपनी भाषा, संस्कृति और संस्कार से उन्होंने समझौता नहीं किया है। अगर समझौता कर लिया होता तो वो भी वही दिखते जो दूसरे दिखते है। हिंदी और भारतीय संस्कृति को साथ लेकर चलने वाले यह वो लोग है जो कभी भारत तो नहीं आये लेकिन अपने पूर्वजों के देश को बहुत सम्मान देते है। आज भी वो त्यौहार, तीज़, उत्सव, को मनाते ही है उसके अलावा भारत के स्वंतत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती को अपना त्यौहार समझते है। 
भारत मे अनेक सेमिनार, संगोष्ठियों में हिस्सेदारी करने के दौरान मैंने देखा है ज़्यादातर लोग मंच से नीचे उतरते ही फर्राटेदार अंग्रेज़ी में बात करते है यधपि मुझे भाषाओं से कोई वैमनस्य नहीं है लेकिन हिंदी को दोयम दर्जे का समझना कतई बर्दाश्त नहीं है। यदि सामने वाले व्यक्ति को हिंदी या कोई दूसरी भारतीय भाषा नहीं आती है तो अंग्रेज़ी में बात करने से कोई गुरेज़ नहीं है लेकिन जो हिंदी कार्यक्रम में शामिल हुए है और हिंदी के अच्छे जानकार है जब वो अंग्रेज़ी मे बात करते है तो अजीब सा प्रतीत होता है जबकि विदेशों में हिंदी में ही बात करते है जहां पर भी भारतवंशी या फिर प्रवासी मिलता है क्योंकि मातृभाषा में बात करने से ह्रदय का हृदय से मिलन होता है शब्द सही से समझ और उनकी भावना भी समझ आती है। 
देश की जितनी भी भारतीय भाषाएं और बोलियां है वो बहुत व्यवस्थित है उनका व्याकरण बहुत अच्छा है शब्द सम्पदा भी अद्वितीय है फिर क्यों हम दूसरी भाषाओं का प्रयोग करें?
हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार भारत से ज़्यादा वैश्विक स्तर पर हो रहा है क्योंकि इसका सबसे अच्छा उदाहरण है विदेश में रह रहे भारतवंशी आज भी जब मिलते है तो वो हिंदी या भारत की बोलियों में ही बात करते है जबकि भारत में हिंदी के पुरोधा कहे जाने वाले लोग हिंदी मंच से उतरते ही फर्राटेदार अंग्रेज़ी में बोलकर भाषा का अपमान करते है। देश की वर्तमान सरकार से मेरी विनती है कि भारत को राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी जैसा उपहार दे। यद्यपि यूरोपियन देशों में किसी भी नागरिक को नागरीकता देने का अधिकार ही भाषा है यदि उसको उस देश की भाषा आएगी तो वो नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है।

पुष्पिता अवस्थी
अध्यक्षा
आचार्यकुल वर्धा एवं हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन नीदरलैंड

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