सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

बहुचर्चित उपन्यास 'हलाला' पर डॉ. फ़िरोज़ अहमद की उपन्यासकार 'भगवान दास मोरवाल' से बातचीत... कुछ अंश ......

कथाकार भगवानदास मोरवाल से डॉ.एम.फ़िरोज़ अहमद की  बातचीत …कुछ अंश......
1- आप अपने जन्म स्थान घर परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में विस्तार से बताइए...?
- मेरा जन्म हरियाणा के काला पानी कहे जाने वाले मेवात क्षेत्र के छोटे-से क़स्बा नगीना के एक अति पिछड़े मज़दूर और इस धरती के आदि कलाकार कुम्हार जाति के बेहद निम्न परिवार में हुआ l अपने मेरे घर-परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा है l अभी हाल में मैं अपने क़स्बे में गया हुआ था, तो संयोग से कुम्हार जाति की वंशावली का लेखा-जोखा रखने वाले हमारे जागा अर्थात जग्गा आ पहुँचे l मैंने जब इनसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा, तब इन्होंने कुछ ऐसी जानकारी दी जो मेरे लिए लगभग अविश्वसनीय थीं l जैसे इन्होंने बताया की हमारे मोरवाल गोत्र के पूर्वज उत्तर प्रदेश के काशी के मूल निवासी थे l काशी से पलायन कर बनारस आये l इसके बाद बनारस से पलायन कर सैंकड़ों मील दूर दक्षिण हरियाणा के बावल क़स्बे, जो रेवाड़ी के पास है, यहाँ आये l बावल से चलकर ये दक्षिण दिल्ली के महरोली, महरोली से पलायन कर सोहना (गुडगाँव) के समीप इंडरी गाँव और अंत में यहाँ से चलकर दक्षिण हरियाणा के ही मेवात के इस क़स्बे में जाकर पनाह ली l अपने आप को ऋषि भारद्वाज के वंशज कहलाने वाले इन जागाओं की बेताल नागरी में लिखी इन पोथियों में यह भी दर्ज़ है कि मेरे सड़दादा गंगा राम के पाँच बेटे थे l इनमें से तीसरे नंबर के पल्टू राम के बेटे सुग्गन राम औरसुग्गन राम के चार बेटों में से दूसरे नंबर के बेटे मंगतू राम के तीन बेटों में से दूसरे नंबर का बेटा भगवानदास l मुझ समेत हम तीन भाई और दो बहनें हैं l मैं यहाँ एक बात बता दूं कि हमारा पुश्तैनी काम मिटटी के बर्तन बनाना था, जो 1985 तक रहा l
 मेव (मुसलमान) बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण मेरे क़स्बे और मेरे क़स्बे का वह चौधरी मोहल्ला भी मेव बाहुल्य मोहल्ला हैl यहाँ एक रोचक जानकारी दे दूँ कि मेरे इस चौधरी मोहल्ले का नामकरण हिन्दुओंके चौधरियों के नाम पर नहीं है बल्कि मेव चौधरियों के नाम पर है l मेरे घर के सामने अगर ऐसा ही मेव चौधरी का घर है, तो बाएंतरफ भी ऐसा ही घर है l जबकि हमारे घर का पिछवाड़ा मुसलमान लुहारों से आबाद है l अपने परिवार में उस समय के हिसाब से मैं एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था l हालाँकि अपनी क्षमता के अनुसार मैंने अपने दोनों बच्चों अर्थात बेटा प्रवेश पुष्प जिसकी शिक्षा एमसीए है, तो बेटी नैया ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी में पीएच.डी किया हुआ है l वैसे मैंने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में अपनी स्मृति-कथा की जेठ का गुलमोहर में भी विस्तार से लिखा हुआ है l
2. आप की शिक्षा-दीक्षा कहां से हुई और कहां तक...?

- मेरी प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्बे में हुईl हाँ, स्नातक मैंने मेवात के जिले और प्रमुख शहर नूहं से की है l बाकी की शिक्षा जिसे 'शिक्षा' कहना उचित नहीं होगा, ऐसे ही चलते-चलाते पूरी की l स्नातक के बाद पहले राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया l इसके बाद यहीं से हिंदी में एम.ए. किया l बस, मेरठ विश्वविद्यालय से 'हिंदी पत्रकारिता में दिल्ली का योगदान' विषय में पीएच.डी. होती-होती रह गयी l
3. आपकी प्रिय विधा कौन सी है और क्यों....??
- जहां तक मेरी प्रिय विधा का प्रश्न है तो इस समय निसंदेह मेरी प्रिय विधा उपन्यास है l इसका एक कारण यह है कि एक लेखक द्वारा जिस तरह एक विधा साधनी चाहिए, शायद वह मुझसे साध गयी है l इसका प्रमाण पिछले कुछ सालों में एक के बाद तीन उपन्यासों के रूप में देखा जा सकता है l जबकि आगामी उपन्यास पर धीरे-धीरे काम हो रहा है l मुझे लगता है एक लेखक के रूप में, मैं जितना सहज अपने आपको उपन्यास में पाता हूँ उतना शायद दूसरी विधा में नहीं l इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि जीवन-जगत को प्रस्तुत करने के लिए जिस आख्यान की ज़रुरत होती है, उपन्यास उसे बखूबी अपना विस्तार प्रदान करता है l दूसरे शब्दों में कहूं तो मेरी जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि है उसके दुखों, संतापों और आक्रोश को मैं उपन्यास के माध्यम से ही व्यक्त कर सकता हूँ lइसीलिए मैं जितना अपने व्यक्तिगत जीवन में निर्मम हूँ, उतना ही अपनी रचनाओं में हूँl प्रपंच या नकलीपन न मेरे असली जीवन में है, न मेरी रचनाओं में आपको नज़र आएगा l सच कहूं अब मैं उपन्यास को नहीं जीता हूँ बल्कि उपन्यास मुझे जीता है l मेरी रचनाओं और उनके पात्रों में आपको वह दुविधा या दुचित्तापन दिखाई नहीं देगा जो एक लेखक को कमज़ोर बनाता है l
4. हलाला उपन्यास लिखने का उद्देश्य किया था...?
- आपने हलाला के लिखने के उद्धेश्य के बारे में पूछा है l मेरा मानना है कि किसी भी लेखक से उसके लिखने के उद्धेश्य के बारे में नहीं पूछना चाहिए लेखक या रचनाकार किसी उद्धेश्य को ध्यान में रखकर नहीं लिखता है l क्या प्रेमचन्द ने गोदान, रेणु ने मैला आँचल, राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव, अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बीनी-बीनी झीनी चदरिया, भीष्म साहनी ने तमस, श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी, अज्ञेय ने नदी के द्वीप किसी उद्धेश्य के तहत लिखे होंगे - नहीं l दरअसल, रचना किसी उद्धेश्य का प्रतिपाद नहीं बल्कि एक लेखक के अंदर अपने समाज में देखी गयी विसंगतियों से पनपे द्वन्द्वों का सत्य होता है l यह वह सत्य होता है जिसे एक व्यक्ति महसूस तो करता मगर उसे व्यक्त नहीं कर पाता l एक लेखक वास्तव में उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व या कहिए ऐसा प्रतिरूप होता है जो एक पाठक को अलग-अलग पात्रों केरूप में नज़र आता है l उसके लिए धर्म-संप्रदाय या स्त्री-पुरुष मायने नहीं रखते हैं बल्कि उसके लिए उनके दुःख-दर्द और सरोकार कहीं ज़्यादा मायने रखते हैं l एक बेहतर कल्पना उसके लिए कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है l इसलिए यह कहना की हलाला लिखने मेरा क्या उद्धेश्य रहा होगा, इसे आपने उसे पढ़ कर जान और समझ लिया होगा l
5. क्या यह सब लिखने के लिए आपने किसी मुस्लिम महिला से मुलाकात की थी?
-आपने पूछा कि इसे लिखने के लिए मैंने किसी मुस्लिम महिला से मुलाक़ात की थी? ‘हलाला’ की पृष्ठभूमि मेवात की होने के कारण पाठक को ऐसा लगता है मानो हलाला की रस्म मेवात में प्रचलित है l सच तो यह है कि मेवात में यह रस्म बिल्कुल भी चलन में नहीं है l मैंने आज तक हलाला से संबंधित एक भी मामला न देखा न हीं सुना l अब आप पूछेंगे कि फिर आपने इसे मेवात की कहानी क्यों बनाया ? इस पर मैं पलट कर आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसी समस्याएँ सिर्फ़ मेवात की हो सकती हैंl मेवात से बाहर का मुस्लिम समाज ऐसी समस्याओं से नहीं जूझ रहा होगा ? इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मेवात देने का कारण मात्र इतना है ही कि मैं उस समाज को गहरे तक जानता हूँ l अपने लेखकीय कौशल का इस्तेमाल कर मैं अपनी बात को अपने चिर-परिचित पात्रों के माध्यम से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से कह सकता हूँ l सच तो यह कि तलाक़ या हलाला जैसी समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ हैं जिन्हें हमने धार्मिकता का वारन ओढा कर और विकराल बना दिया l इस विकरालता को और भयानक हमारे उन मर्दों ने बना दिया जो औरत को महज एक उपभोग की वस्तु और अपनी जागीर मान बैठा है l 
लेखक का पाने पात्रों में ढालना या कहिए परकथा में प्रवेश करना ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है l अगर यह उपन्यास काल्पनिक होते हुए भी कुछ सवाल उठाता है तो लेखक के साथ-साथ यह इसकी भी सफलता है l
6. हलाला उपन्यास लिखने के लिए क्या आपने कुरान या हदीस को पढ़ा था?
-यह आप अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी रचना या उपन्यास पर काम करने से पहले एक शोधार्थी की तरह मैं अपनी क्षमता और समझ के मुताबिक़ पूरी मेहनत करता हूँ l विषय से संबंधित हर तरह की उपलब्ध साहित्य और सामग्री का अध्ययन करता हूँ l उपन्यास ‘हलाला’ पर काम शुरू करने से पहले इस रस्म से संबंधित कुरआन की आयतों को खोजा, तो कुरआन में इससे संबंधित सूरा अल-बक़रा की मुझे सिर्फ़ 230वीं एक आयत मिली l बाकी हलाला के बारे में मुझे कोई दूसरी आयत नहीं मिलीl इस आयत को मैं हू-ब-हू यहाँ प्रस्तुत कररहा हूँ – ‘तो यदि उसे ‘तलाक़’ दे दे, तो फिर उस के लिए यह स्त्री जायज नहीं है जबतक कि किसी दूसरे पति से निकाह न करले l फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो फिरइन दोनों के लिए एक-दूसरे की ओर पलटआने में कोई दोष न होगा l’ 
इसे और स्पष्ट करने के लिए कुरआन में लिखा गया है –‘यह दूसरा पति यदि उसे छोड़ दे या उसकी मृत्यु हो जाए, तो यह स्त्री अपने पहले पति के साथ फिर से विवाह कर सकती है l ‘ इस आयत का अलग-अलग कोणों से अध्ययन करने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न यह उठा कि अगर कुरआन में ऐसा कहा गया है, तो फिर दूसरे पति से निकाह के बाद उससे सहवास की बात कहाँ से आयी l हालाँकि कुरआन से इतर दूसरे धार्मिक ग्रन्थ जैसे हदीस में इसे क्यों और कहाँ जोड़ा गया कि औरत दूसरे शौहर के लिए उस वक़्त तक हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उसके साथ न कर ले l अगर मैं एक आम मुस्लिम के नज़रिए से सोचूँ तो मेरे भीतर इस सवाल का उठाना स्वाभाविक है कि जब कुरआन में ऐसा कहीं है ही नहीं तो दूसरे पति से सहवास का क्या मतलब है l जहाँ तक हदीस की बात है और जितना मुझे पता है हदीस का आधार भी कुरआन ही है l अब हम यदि कुरआन को एक मुक्कदस आधार ग्रन्थ मानते हैं तो जो बात उसमें है ही नहीं वह कहाँ से आयी l जबकि इसके बरअक्स दूसरे ग्रन्थों में सहवास का न केवल उल्लेख किया गया है बल्कि एक आम मुसलमान को जिस तरह समझाने की कोशिश की गयी है, उसमें मर्दवादी सोच पूरी तरह निहित है l जैसे सैयद अबुल आला मौदूदी की एक पुस्तक में हलाला के बारे में कहा गया है – नबी सल्लाहेवलेअस्ल्लम  ने साफ़ कहा है कि हलाला के लिए केवल दूसरा निकाह ही काफी नहीं है, बल्कि औरत उस वक़्त तक पहले शौहर के लिए हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उससे सहवास का स्वाद न चख ले l इसी तरह मैंने एक पत्रिका इसलाहे समाज में पढ़ा था कि...दूसरा शौहर उससे सहवास का मज़ा ना चख ले l 
अब आप देखिए कि कुरआन की मूल आयात का अर्थ एक पुस्तक से होता हुआ एक  रिसाले तक आते-आते कितने चटखारे और मसालेदार हो गया ? मेरी नज़र में इस रस्म को घृणित और एक तरह से पूरी तरह स्त्री विरोधी उसके बाद के इन अर्थों और व्याख्याओं ने बना दिया है l चूंकि हमारा आम समाज और आम नागरिक अपने धार्मिक दानिशवरों पर बहुत भरोसा करता है इसलिए जब स्वाद और मज़ा उन तकसंप्रेषित होते हैं , उनके मायने और सलीके भी बदल जाते हैं l एक लेखक होने के नाते मैंने अपनी बात बिना किसी उत्तेजना और उकसावे के स्त्री के हक़ में कही है l
7. अधिकांश लेखक दूसरे की प्रथा पर लिखने से बचते हैं आपको नहीं लगा कीकुछ गलत लिख दिया तो...!!
-आपने सही कहा है कि कोई भी लेखक दूसरे की प्रथा विशेष कर धार्मिक प्रथाओं पर लिखने से बचता है और बचना भी चाहिए l मगर यह इस पर निर्भर करता है कि ऐसा विषय चुनते हुए उसकी मंशा और नीयत क्या और कैसी है l ऐसा ही सवाल कई पाठकों ने मेरे दूसरे उपन्यास ‘बाबलतेरा देस में’  को पढ़ने के बाद उठाया था l इस उपन्यास में भी ऐसे मुद्दों को उठाया गया था l इस बारे में मेरा कहना यह है कि मुझे बचना या डरना तब चाहिए जब मैं दूसरे मज़हब या धर्म को आहत कर रहा हूँl आप ‘हलाला’ को पढ़ कर थोड़ी देर के लिए सहमत या असहमत तो हो सकते हैं लेकिन मेरी बदनीयती पर सवाल नहीं उठा सकते l हाँ, अगर मुझे सिर्फ़ विवादास्पद होना होता, या मुझे कुछ हासिल करना होता तो शायद यह बात लागू होती l ऐसी कोई मंशा मेरी न तो ‘बाबल तेरा देस में’लिखने के दौरान थी, न ‘हलाला’ लिखने के दौरान l सनसनी पैदा करने की नीयत से लिखी गयी किसी भी कृति या रचना की उम्र बहुत छोटी होती है l अच्छी रचना वही है जो पाठक को भीतर से बेचैन करे,ना कि मज़े लेने के लिए लिखी जाए l हाँ, कभी-कभी तब डर-सा लगता है जब कुछ लोग इसे अपनी निजता और धार्मिक मामलों में दखल समझ कर लेखक पर सवाल उठाते हैं कि लेखक को इस्लाम की क्या समझ है lमैं मानता हूँ कि समझ नहीं होगी मगर कोई धर्म या धार्मिकता मनुष्यता से तो ऊपर नहीं है l लेखक का एक दायित्व यह भी होता है कि वह निरपेक्ष हो कर अपने विवेकानुसार गलत और सही में फ़र्क करे l किसी एक का पक्षकार होना भी कभी-कभी उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है l गलत और सही का आकलन खुद लेखक से बेहतर और कौन कर सकता है l
8. क्या आप को पता है कि हज और जमात में बहुत अंतर है?
- आपने पूछा है कि क्या आपको पता है कि हज और जमात में बहुत अंतर है l आपका सोचना एक हद तक बहुत सही है और ईमानदारी से कहूँ, तो सचमुच मुझे हज और जमात में क्या अंतर है, नहीं पताl मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि ‘हज ’मुसलमानों का एक ज़ियारत अर्थात तीर्थ-स्थल है l मक्का मदीना स्थित अल्लाह काबा (घर) है जिसके दर्शन का हर मुसलमान इरादा रखता है l वैसे ‘हज’ का मतलब ही इरादा करना होता है l ‘हज’यानी इरादा करना, वास्तव में आदमी कीओर से इस बात का एलान करना है कि उसका प्रेम और श्रद्धा, उसकी इबादत और बंदगी सब कुछ अल्लाह के लिए ही है l ‘हज’ का मूल उद्देश्य यह है कि इंसान अल्लाह की चाह में उन्मत्त हो कर अपना सब कुछ उसकी राह में लगा दे l वास्तव में यह मूल उद्देश्य केवल हज का ही नहीं है बल्कि सभी धर्मों के तीर्थ-स्थलों का है l इस‘मूल’ की अवधारणाएँ इतनी व्यापक हैं कि अगर मनुष्य इन्हें सच्चे मन से धारण करले, तो आज हमारे समाज में जिस तरह की धार्मिक असहिष्णुता घर कर गयी है, वह शायद हमें देखने को न मिले l दरअसल, यह धारण करना ही धर्म कहलाता है l 
अब आता हूँ  ‘तबलीग़ जमात’  पर l अरबी क़में तबलीग़ शब्द का अर्थ होता है ‘किसी के पास कुछ पहुँचाना’, ‘धर्म का प्रचार करना ’या‘ दूसरों को अपने धर्म में मिलाना’ l यहाँ यह एक बड़ा प्रश्न है की तबलीग़ आन्दोलन मुस्लिम मिशनरी है या मुस्लिम धर्म का पुनर्जीवन आन्दोलन l इसी पर अपनी समझ और जानकारी के मुताबिक़ कुछ रोशनी डाल सकता हूँ l शायद आपको यक़ीन न हो, या आपको इसमें कुछ अतिश्योक्ति लगे, मगर आपको सुनकर हैरानी होगी कि तबलीग़ जमात की शुरुआत 1926 में मेरे मेवात से ही हुई और इसके प्रवर्तक और प्रेरक थे मौलाना मौहम्मद इलियास खंडालवी (1885-1944) l वही तबलीग़ जमात जो आज हर मुसलमान के लिए मानो उसकी धार्मिक अनिवार्यता और जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है l मौलाना इलियास ने एक नारा दिया दिया था -ऐ मुसलमानो मुसलमान बनो ! हालांकि तबलीग़ की  स्थापना मौलाना इलियास द्वारा 1920 में की गयी थी l मगर इसकी जड़ें 19 वीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में इनके वालिद मोहम्मद इस्माइल ने बंगले वाली मस्जिद, हज़रत निजामुद्दीन, नई दिल्ली में जमा दी थीं l मौलाना इलियास 1923 ने मेवात के नूहं में मदरसा मोइनुल इस्लाम की स्थापना की l 1926 में तबलीग़ जमात का पहला जत्था सहारनपुर के मौलाना खलील अहमद के नेतृत्व में आया l इस जत्थे ने स्थानीय लोगों की मदद से नूहं क़स्बे में एक सम्मेलन का आयोजन किया था l हज़ारों की तादाद वाले इस सम्मलेन में लोगों से हिन्दू-रीति-रिवाजों को त्यागने और मुस्लिम क्रियाकलापों को अपनाने तथा पूरे मेवात में तबलीग़ आन्दोलन को फैलाने की अपील की गयी थी l मेवात के मेव मुसलमानों से यह अपील इसलिए की गयी थी की यहाँ के मेव मुसलानों की धार्मिकता आधी हिन्दू रीति-रिवाजों पर आधारित थी, तो आधी मुस्लिम रीति-रिवाज़ों पर l यहाँ तक कि उस समय के पुरषों के नाम हिन्दू नामों से प्रेरित थे, जैसे हरिसिंह, धनसिंह, चांद सिंह, लालसिंह आदि l इस तरह तबलीग़ जमात के मेवात से शुरुआत का एक कारण यह भी हो सकता है l लेकिन सूफ़ी इस्लाम सबसे बेहतर है जो तब्लीगी जमात से पहले से भारत मे है जिसके अनुयायी पूरी दुनियां में शांति, सौहार्द की बात करते है।
9. आपने जिन जिन पात्रों का उपन्यास में उल्लेख किया है क्या वह काल्पनिक है या वास्तविक ?
-किसी भी रचना के चरित्र या पात्र वास्तविक और काल्पनिक दोनों होते हैं l बल्कि कहना होगा कि कोई भी पात्र न तो अपने आप में पूरी तरह काल्पनिक होता है,ना पूरी तरह वास्तविक जो पात्र वास्तविक जीवन से लिए गये होते हैं, उनमें लेखक अपनी कल्पना और लेखकीय कौशल इतना विश्वसनीय और प्रामाणिक बना देताहै कि एक पाठक के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है वह कितना काल्पनिक है और कितना वास्तविक l यही बात उन काल्पनिक पात्रों पर लागू होती है l एक लेखक निजी अनुभवों और पात्रों के मिश्रित अनुभवों से अपने इन काल्पनिक पात्रों को अपनी कल्पना शक्ति से इतना जीवंत और प्रामाणिक बना देता है कि पाठक को लगता है मानो ये पात्र यहीं कहीं उसके आसपास खड़े हैं l यह एक लेखक की कल्पनाशीलता और लेखकीय कौशल पर निर्भर करता है कि वह अपने इन पात्रों को कितना और किस तरह जीता है, या कहिए उनको किस हद तक आत्मसात करता है l यह आत्मसात करने की चुनौती तब और बढ़ जाती है, जब उसने अपने किसी पात्र से। ज़िन्दगी में कभी मुलाक़ात ही ना की हो l बल्कि दूसरे धर्म व स्त्री पात्र और पुरुष पात्रों के मनोविज्ञान को व्यक्त करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है l यह चुनौती स्त्री व पुरुष दोनों लेखकों के लिए सामान होती है l मैं यह बात सिर्फ़ ‘हलाला’ केसन्दर्भ में नहीं, बल्कि मेरी सभी रचनाओं के पात्रों पर लागू होती है l आप कल्पना कर सकते है कि एक लेखक अपने पूरे जीवनकाल की अपनी कितनी रचनाओं के कितने काल्पनिक और वास्तविक पात्रों को एक साथ जीता होगा l इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि एक लेखक के असंख्य पात्रों से गुज़रते हुए हम पात्रों के नहीं बल्कि एक लेखक के अनेक रूपों और व्यक्तित्वों से भी गुज़रते हैं l यह आशा-निराशा ख़ुशी-गम, नैराश्य-कुंठा, चतुराई-चालाकियाँ, घात-प्रतिघात पात्रों की नहीं स्वयं लेखक की होती हैं l अब एक लेखक अपने पाठकों को अपने लेखकीय कौशल से उलझाता या भ्रमित करता है, तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता है l

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