मंगलवार, 24 मार्च 2020

खैरियत तो है ना! - मेराज अहमद


खैरियत तो है ना!

प्रतिदिन की भांति ही आज भी भोर में सैर के लिए साइकिल से निकला। विश्वविद्यालय में दाखिल होने वाले गेट का पहरुआ हमेशा की तरह ही चुपचाप एक तरफ के गेट को आधा खोलें बैठा था। उसने मुझे देखा मगर लगा कि वह आज अन्देखा कर रहा है। विश्वविद्यालय की सड़कों पर निकला सुबह वैसी ही थी जैसी अमूमन हर रोज की होती है।अंदर सब कुछ वैसे का वैसा ही जैसा हमेशा रहता था। इक्का-दुक्का सुबह की सैर वाले वही लोग भी वहीं मिले जो रोज जहां मिलते थे। एक नौजवान लड़का जो दिसंबर और जनवरी की भोर में भी सिर्फ आधी बांह की टी शर्ट पहने दौड़ लगाता मिल जाता वह भी मिला। मैंने आगे बढ़ते हुए निकलते हुए दिन के साथ वातावरण में प्रतिदिन की भांति ही धीरे-धीरे उठने वाली पंछियों की आवाजों को सुनने की कोशिश की… वैसे ही धीरे-धीरे शुरू होकर के पक्षियों की चहचहात बढ़्ती जा रही थी लेकिन ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगने लगा कि आज इस कलरव में उत्साह की ऊर्जा नहीं शोक का संगीत है। मेरी साइकिल के आगे की तरफ मुझे घसीटते हुए पहियों के साथ ले जाने में कोई कोर-कसर नही छोड़ रही थी, पर ना जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि सुबह में वातावरण की चमक फीकी पड़ती जा रही है। विश्वविद्यालय के निर्माता सर सैयद अहमद खान के घर के पीछे बने नए मैनेजमेंट डिपार्टमेंट को जाने वाली सड़क का छोटा गेट जो अक्सर अंदर से बंद होता आज वह खुला था। ठीक गेट के सामने प्राक्टर ऑफिस के वाहन में बैठे सुरक्षाकर्मी ने मुझे देखा तो मगर आज मुझे देखकर ना जाने क्यों नहीं मुस्कुराया ? बाकी अन्दर जाने वाली सड़क वैसी की वैसी ही थी लेकिन दोनों तरफ़ की क्यारियों में उगे पौधों पर खिले और खिलने की तैयारी मे बहुरंगी फूल सुस्त से लगे। भीतर भी अलग-अलग छोटे-छोटे टुकड़ों में सलीके से तराशे घास के मैदान ओस से भीगे हुए तो थे पर बूदों की चमक मध्यम थी। प्रतिदिन की भांति ही मेरे एक किनारे से दूसरे किनारे को तेज़ क़दमों नापते रहने के लगभग आधे घंटे बाद प्रतिदिन आने वाले लोग भी इक्का-दुक्का करके आने लगे। कुछ देर में कुछ एक को छोड़कर सभी पहुंच भी गए जो सब दिन आते थे। सलाम दुआ भी हुई लेकिन सब दूसरे दिनों की अपेक्षा खामोश चलते-फिरते, हल्की-फुल्की कसरत करते चुप-चुप और मुझे ना जाने लगातार ऐसा क्यों लगता रहा की सब बेहद उदास हैं।… पेड़ पौधे पर भांति भांति के फूल भी थे। कसरत से खिले हुए क्यारियों के चटक रंग के गुलाब सब सोये-सोये से थे। पूरब की ऊँची इमारत के पीछे सूरज का बड़ा दायरा दिखने लगा था, लेकिन उसमे वह बेताबी नहीं थी जो सारी क़ायनात में चमक बिखेरने के लिये होनी चाहिये थी। और तो और ! हाथ में पकड़े हुए बेंत को सड़क पर खट-खट बजाते लंबे-लंबे कदमों से आगे बढ़ते हुए 15 साल पहले रिटायर हुए प्रोफेसर ने भी सलाम के जवाब में बस इतना ही कहा, सब खैरियत तो है ना! मैनें  हमेशा की तरह आज न तो उनसे कुछ कहा न ही वह क्षण भर के लिये रुके जैसे रोज़ रुकते थे।

प्रोफेसर मेराज अहमद
कथाकार
उपन्यास - आधी दुनिया
अज़ान की आवाज़, घर के ना घाट के, दावत
Samay srujan


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