शनिवार, 11 अप्रैल 2020

रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ते हैं फुले के विचार - सिराज राज

'भारत में राष्ट्रीयता की भावना का विकास तब तक नहीं होगा, जब तक खान-पान एवं वैवाहिक सम्बन्धों पर जातीय बंधन बने रहेंगे।' यह बात कही थी महात्मा ज्योतिबा फुले ने. 11 अप्रैल 1827 को पुणे में जन्मे फुले ने महिलाओं और दलित समाज के उन्नति के लिए  अनेकों महत्वपूर्ण कार्य किए. सदियों से भारतीय समाज में प्रचलित धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं, मान्यताओं, कर्मकाण्डों का मुख्य आधार ईश्वर को ही माना जाता है। दरअसल  सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक आदि प्रकार के शोषण धर्म की आड़ में ही किए गए। महात्मा फुले का मानना था कि जब तक ईश्वर से संबंधित स्वार्थियों एवं पाखण्डियों की कल्पनाओं, अंधविश्वासों, कुप्रथाओं को दूर नहीं किया जाता, तब तक समाज में सुधार असंभव है। इसीलिए फुले ने ईश्वरवाद, अवतारवाद, पुनर्जन्म, मूर्ति-पूजा आदि का खंडन किया। साथ ही समाज में व्याप्त इस व्यवस्था के लिए धर्म के ठेकेदारों व पुरोहितों को जिम्मेदार ठहराया। उनके अनुसार स्वार्थी ब्राह्मण पंडितों ने आमलोगों, शूद्रों एवं महाशूद्रों को सदा के लिए गुलाम बनाए रखने एवं अपने स्वार्थ के लिए इन सभी सारी चीज़ों को वजूद में लाया। और इन बातों की पुष्टि के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की, जिसमें केवल पाखण्ड और काल्पनिक कहानियां भरी पड़ी हैं। जिनके जाल में अनपढ़, अशिक्षित व आम जनता को फंसाकर वे अपनी रोटियां सेकना चाहते थे। दरअसल भारत में जाति प्रथा, पुरोहितवाद, स्त्री-पुरुष असमानता और अंधविश्वास के साथ- साथ समाज में व्याप्त आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन की जरूरत सदियों से रही है। इसी संकल्प को लेकर आधुनिक युग में समाज को जागरूक व बदलने का सार्थक प्रयास करने का श्रेय समाज सुधारक ज्योतिबा फुले को ही जाता है। इन्होने समाज में परिवर्तन लाने के लिए 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की। जिसका प्रमुख उद्देश्य था- शूद्रों-अतिशूद्रों को पुजारी, पुरोहित, सूदखोर आदि की सामाजिक-सांस्कृतिक दासता से मुक्ति दिलाना, धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यों में पुरोहितों की अनिवार्यता को खत्म करना, शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करना, ताकि वे उन धर्मग्रंथों को स्वयं पढ़-समझ सकें, जिन्हें उनके शोषण के लिए ही रचा गया है, सामूहिक हितों की प्राप्ति के लिए उनमें एकजुटता का भाव पैदा करना, धार्मिक एवं जाति-आधारित उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना, पढ़े-लिखे शूद्रातिशूद्र युवाओं के लिए प्रशासनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना आदि। जब कभी शिक्षा का ज़िक्र किया जाता है तो फुले के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दरअसल इन्होंने  हजारों सालों से शिक्षा से वंचित दलित और स्त्री समाज को शिक्षित करने के लिए कदम उठाया। उनका कहना था लड़का पढ़ता है तो एक परिवार शिक्षित होता है और अगर लड़की पढ़ती है तो पूरा समाज शिक्षित होता है। इसीलिए स्त्री समाज को शिक्षित करने के लिए सन 1848 में स्कूल खोला। जिसमें अपनी जीवन साथी सावित्रीबाई को अध्यापन कार्य की जिम्मेदारी दी। इसीलिए भारतीय इतिहास में सावित्रीबाई को प्रथम महिला शिक्षिका का श्रेय जाता है। समाज में चेतना एवं जागरूकता फैलाने के साथ-साथ रूढ़िवादी परंपरा, अंधविश्वास, धर्माडंबर, जातिवाद, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि के यथार्थ से रूबरू होने के लिए महात्मा फुले की रचनाएं मिल का पत्थर हैं। जो इस प्रकार हैं-  
1- तृतीय रत्न (नाटक 1855)
2- छत्रपति राजा शिवाजी का पंवड़ा (1869) 

3- ब्राह्मणों की चालाकी (1869) 
4- ग़ुलामगिरी(1873)
5- किसान का कोड़ा (1883) 
6- सतसार अंक-1 और 2 (1885)     
7- इशारा (1885)
8- अछूतों की कैफियत (1885)
9- सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक (1889) 
10- सत्यशोधक समाज के लिए उपयुक्त मंगलगाथाएं तथा पूजा विधि (1887)
अतः कहा जा सकता है कि महात्मा फुले का जीवन संघर्ष और विचार भारत को एक शिक्षित राष्ट्र बनाने और समाज को जाति मुक्त बनाने में बीता। वर्तमान समय में फुले, अम्बेडकर और भगतसिंह के विचारों को अमल में लाने की जरूरत है। फुले ने कहा था-
'नए नए विचार तो दिन भर आते हैं,
उन्हें अमल में लाना ही असली संघर्ष है।'

सिराज राज
रिसर्च स्कॉलर, युवा कवि, आलोचक, व्यंग्यकार एवं राजनैतिक विश्लेषक
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी
हैदराबाद


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