गुरुवार, 14 मई 2020

प्रवासी मज़दूर रोड़ पर कराहते हुए- अकरम क़ादरी

प्रवासी मज़दूरों का इस विकट परिस्थिति में हमदर्द कौन- अकरम क़ादरी

प्रवासी मज़दूर नाम सुनते ही शरीर मे एक अजीब सी सिहरन उठने लगती है आखिर क्यों ना उठे क्योंकि प्रवास और गिरमिटिया मज़दूरों का रिश्ता भारत का बहुत पुराना है विदेशी सरज़मीं पर हिंदुस्तान से अनेक गिरमिटिया मज़दूर दास प्रथा के अंतर्गत भारत से बाहर ले जाये गए जहां पर उनसे हाड़ मास कंपा देने वाला काम लिया गया और बदले में उनको जीने भर का राशन दिया गया, उनकी महिलाओं के साथ व्यभिचार किया गया उसके बाद भी वो विदेश की धरती में स्वयं को झोंके रहे। आज वही भारतवंशी कैरिबियाई देशों के अलावा जिस भी देश मे रह रहे है वहां का झण्डा बुलन्द कर रहे है और उनकी पीढ़ियों में भी भारतीयता की झलक साफ दिखाई पड़ती है क्योंकि वो उनका मन मस्तिष्क तो आधुनिक है लेकिन डीएनए आज भी भारतीय है जिसमे भारतीय संस्कार, संस्कृति, भाषा अपना स्थान यथाचित बनाये हुए है जिसको देखकर भारतीय होने पर गर्व महसूस होता है। 
वर्तमान समय मे भारत मे प्रवासी मज़दूरों की कराहियत देखने को मिल रही है जिसको अंग्रेज़ी दां लोग माइग्रेंट लेबरर कहते है। आखिर क्यों कहा जाता है इनको माइग्रेंट लेबर क्योंकि यह वही लोग है जो अपने गाँव, मोहल्ले, देहात और कस्बो को छोड़कर शहर की तरफ रोज़गार के लिए अपने बच्चों को लेकर चल दिए थे जहां पर ना ही इनको भरपूर आराम है और ना ही इनको खाने पीने की पूरी सहूलियत बल्कि पेट की आग बुझाने के लिए थोड़ा बहुत कमा रहे है उनके बच्चे एजुकेशन से मुक्त हो रहे है उनकी शिक्षा- दीक्षा भी नहीं हो पा रही है। पूरा परिवार मिलकर काम करता है तो कुछ खाना खर्चा करने के बाद थोड़ा बहुत अच्छे-बुरे वक्त के लिए बच जाता है जिसको मैं अपनी सामाजिक कार्यो की ज़िम्मेदारी बच्चों की शादी ब्याह तथा अचानक किसी परेशानी में आने पर उपचार की व्यवस्था हो सके। 
भारत मे जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से भारत का मज़दूर वर्ग अपने घर पर जाने के लिए छटपटा रहा है जिसको सरकार द्वारा कुछ मामूली सी सुविधाएं मिल रही है लेकिन इससे उसका पूरा नहीं पड़ रहा है बल्कि वो दिन वा दिन काफी परेशानियों से दो-चार हो रहा है लॉकडाउन में जब तक उसके पास पैसा था तो वो जहां पर काम कर रहा था वही पर रुककर पालन करता रहा और जब पैसा खत्म हुआ तो उसके बाद गैर सरकारी संस्थाओं से मदद पहुंचती रही है जिसके माध्यम से वो अपने देश की सरकार का पालन करता रहा जब वहां से भी मदद पहुंचना बन्द हुई या फिर कम हुई तो कुछ सरकारों ने भी मदद पहुंचाई जो उसके लिए पूरी नहीं थी  ऐसे ही लॉकडाउन के एक, दो, तीन चरण निकल गए ।
तीसरे लॉक डाउन से प्रवासी मज़दूरों में अजीब से व्याकुलता नज़र आने लगी क्योंकि जो सरकारे ने उनसे वादे किए थे वो उनपर खरा नहीं उतर पाई उनको काफी तकलीफों का सामना करना पड़ा गाहे-बगाहे ऐसी वीडियोस और खबरे आती रही है कि देश के मज़दूर कई जगह परेशान है और उनको खाने की भी दिक्कत हो रही है जिसके कारण वो अपने स्थान से पलायन करने लगे और पैदल ही सड़को पर निकल आये जिसका नज़ारा हमने आनंद बिहार, अहमदाबाद और मुम्बई  जैसे इलाको में देखा उसके अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी खबरे लगातार मिल रही है। 
प्रवासी मज़दूरों को सड़कों पर गैर सरकारी संस्थाएं खाना खिला रही है उनको उपचार के लिए दवाएं मुहैय्या करा रही है उनको पानी की व्यवस्था कर रही है उसके अलावा कुछ सामान बांधकर भी बिस्कुट बगैरा दे रहे है जिससे मज़दूर अपने घर पर पहुंच जाए। वर्तमान स्थिति में सरकारो के फेल होने की खबरे आम हो चुकी है कोरोना से सबको डर लग रहा है लेकिन जब वो भुखमरी से मरने लगे तब उनको प्रतीत हुआ कि अब मरना ही है तो क्यों ना घर जाकर ही मरे इसलिए वो परेशानी में अनेक कठिनाइयों को सहन करके निकल पड़े है जिसपर उनको निकटवर्ती शहर के स्कूल, बारात घर मे क्वारंटाइन किया जा रहा है जबकि छात्र, छात्राओं को उनके घर पर ही 14 से 21 दिन तक के लिए होम क्वारंटाइन किया गया है, गौरतलब बात यह है कि जितने भी दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करने वाले लोग है उनमें सबसे ज्यादा हिंदी हार्टलैंड या हिंदी प्रदेशो के ही लोग है जो अपने प्रदेश में धर्म, मज़हब, जाति पर वोट देते है और दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करते है और दो वक्त की रोटी का इंतेज़ाम करते है।
मौजूदा पत्रकारों में अनेक ऐसे पत्रकार भी देखने को मिले है जिन्होंने मज़दूरों की पीड़ा को देखते हुए अपने साथ बिस्कुट, पानी और नमकीन जैसी चीज़े भी बांटी तथा अपने कार्य को भी ज़िम्मेदारी से निभाकर मज़दूरों की हालत को भारत के सामने रखा आखिर वो कितनी दिक्कतों का सामना कर रहे है। कई पत्रकारों को देखा जो रिपोर्टिंग करते करते भावुक भी हुए और कई को सामने रोते हुए भी देखा है। कुछ ऐसे भी मंज़र सामने आए है कि पत्रकारों ने अपनी चप्पलें और जूते तक प्रवासी मज़दूरों को दे दी है आखिर पत्रकार का भी हृदय भावुक और संवेदनशील होता है। 
जिसमे वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त, एन. डी.टी.वी. के शोहित मिश्रा और बीबीसी के सलमान रावी को देखकर आंख से आंसू आ जाते है जो मज़दूरों के दर्द को अपने मुख से बयान करते करते रो रहे थे जबकि दूसरी तरफ मज़दूरों के पैरों में पड़े छाले इस बात की तस्दीक कर रहे थे कि आखिर वो कैसे अपने घर आये है

अकरम हुसैन
शोधार्थी 
एएमयू अलीगढ़

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें