रविवार, 17 मई 2020

पारिवारिक सहयोग से कम हो सकती है किन्नरों की पीढा - डॉ. राधेश्याम सिंह

परिवारिक सहयोग से कम हो सकती है किन्नरों की दिक्कत - डॉ. राधेश्याम सिंह


हिंदी की महत्त्वाकांक्षी एवं प्रतिष्ठि पत्रिका ‘वाङमय’ के संयोजन में आयोजित किन्नर विमर्श पर आधारित फेसबुक लाइव दसदिवसीय श्रृंखला में आज (17.05.20) को  कमलानेहरू भौतिक एवं सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्राचार्य डाॅ. राधेश्याम सिंह ने ‘किन्नर समुदाय की उपेक्षा के कारक तत्त्वों पर एक सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया।
डाॅ. सिंह की स्पष्ट मान्यता थी कि किसी भी समुदाय की ‘आइडेंटिटी’ को स्थापित करने में उसकी सांस्कृतिक, धार्मिक यात्रा क्रम में रचे गए मिथकों, प्रतीकों, भाषा और संस्कृति का विशेष योगदान होता है। जब हम इनका विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इन कारक तत्त्वों में उनको कोई जगह नहीं दी गई। कहीं जगह भी मिली तो उनके समाज को ऊर्जासित करने में उन कारकों की कोई सकारात्मक भूमिका नहीं दिखाई पड़ती।
मिथकों का विश्लेषण करते हुए डाॅ. सिंह ने कहा कि सृष्टि के गढ़ने के मिथकों का आधार ही पुलिंग वर्चस्व का रहा है। प्रारंभ तो ब्रह्म के साथ होता है, वहाँ नारी भी अनुपस्थित ही है तो तृतीय लिंगियांे को कौन पूछता? मनुस्मृति का ऋषि भी इस समुदाय को दास वर्ग की तरह अवश्य मानता है। महाभारत काल के जिन किन्नरों का नाम- जैसे शिखंडी, बृहन्नला, मोहिनी या अरावन का नाम लिया जाता है उनमें सभी या तो श्राप के कारण जन्म ग्रहण करते हैं या किसी छल-छद्म के उपकरण के रूप में काम आते हैं। या तो वे शापित-अभिशप्त हैं या किसी दूसरे के हाथों के ‘टूल्स’ बने हुए हैं। ऐसे मिथकों से किन्नर समाज को कौन-सी ऊर्जा मिल सकती है? उलटे उनमें हीन भावना ही पनप सकती है। इन किन्नरों को महल या दरबार में रहने की जगह इसलिए मिल जाती है कि वे आभिजात्यों के कुकर्मों का फल हैं या उनकी कार्यसिद्धि में औजार के रूप में प्रयुक्त होने को तत्पर हैं। इतना कहा जा सकता है कि उनके प्रति हिकारत का भाव इस स्तर का नहीं था जैसा हमारे समय में है। मुगल काल में हरमों की सुरक्षा में नियुक्ति में भी ज्यादा ध्यान हरम की रानियों की चारित्रिक सुरक्षा की है, इस समुदाय की खुले भाव से मंगल कामना कम ही है। मलिक काफूर जैसे योद्धाओं का चरित्रा अपवाद की तरह है। इन स्थितियों को केवल ‘ना’ से ‘हाँ’ के रूप में ही देखा जा सकता है। अपनी राष्ट्र भक्ति के कारण जब 1871 में इन्हें जरायमपेशा घोषित किया गया तो मुख्य धारा के समाज के साथ इनकी दूरियाँ बढ़ती गईं। संवाद भी बंद हुआ और इस समुदाय की रहस्यमय कथाओं का अम्बार लग गया। लोगों को इनसे भय लगने लगा जो बाद में घृणा में परिवर्तित हुआ।
इसी तरह ‘अर्द्धनारीश्वर’ के प्रतीक को किन्नर समुदाय के पक्ष में विश्लेषित किए जाने की परंपरा रही है। पर सत्य यह है कि अर्धनारीश्वर स्वस्थ शैवों और शाक्त सम्प्रदाय के बीच के टकराव को शमन करने के समझौते के फलस्वरूप आया है। इनका किन्नर विमर्श से कोई सीधा समीकरण नहीं बन पाता। यदि ऐसा होता तो निश्चय ही इस धार्मिक प्रतीक का प्रतिबिंब समाज में आता और इसका सीधा फायदा किन्नर समुदाय को मिलता। पर ऐसा हो न सका।
इसी तरह ‘बहुचरा’ और ‘बेशरा’ देवी किन्नर समुदाय की वैकल्पिक सोच का उत्पाद है। ठीक उसी तरह जेसे निर्गुणियों ने सगुणियों से अपने आप को अलग करने के क्रम में अपने निर्गुण ह्मण का सृजन किया। समाज के निचले पायदान की जातियों ने यह काम किया जो मंदिर निर्माण तो करते थे पर पूजा करने के हक से विरत थे। इसी तरह का विकल्प किन्नरों ने बहुधा उच्चरित सत्य को बहुचरा देवी बना लिया। किन्नरों के मुसलमान तबके ने उसे ‘बेशरा’ या शरीयत से अलग कहा। इसीलिए उस दैवी प्रतीक को ‘मुर्गे पर सवार शक्ति’ के रूप में प्रयुक्त किया गया। मुर्गा प्रतीक है सामाजिक जागरण का। पर उसकी आवाज आज भी अनसुनी है। इस विवेकशील विकल्प को देखकर उनकी प्रतिभा एक संदेह खत्म हो जाता है। निर्गुणियों का सम्बंध योग से जुड़ता है तो बहुचरा देवी का संबंध श्री चक्र कुंडलनी जागरण से है। दोनों ही वर्ग शास्त्रा विरोधी और अनपढ़ हैं। पर विवेकशीलता के उदाहरण है।
और इस समुदाय को अभिव्यक्ति के माध्यम भाषा के क्षेत्रा से भी निरस्त करने का उपक्रम किया गया। संस्कृत और मराठी में तो नपुंसक लिंग की अवधारण है पर हिंदी में नहीं है। दरअसल भारतीय समुदाय अनुत्पादक मनुष्य या वस्तु सबको हेय समझता रहा है। भाषा से यह दूरी ही उन्हें मुख्य धारा की संस्कृति से और दूर करती है। विकल्प में संधा भाषा जैसी कोड़ीफायन भाषा के शब्दों को सृजित कर इस समुदाय ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है।
किन्नरों की समुदायित संस्कृति अपने पर अत्याचार करने वालों के प्रति भी उपकार भावना से भरपूर है। जिसे ईश्वर से लेकर मनुष्य तक ने अपने मनोराज्य से बाहर किया हो जिसे परिवार का वात्सल्य न मिल सका। उसको तो अराजक और प्रतिक्रियावादी होना चाहिए था। पर यह समुदाय अपने पर अत्याचार  करने वाले समाज का नाच-गाकर मनोरंजन करता है। इससे उनके मूल चरित्रा का पता चलता है।
भारतीय सामाजिक संरचना में ऐसी ढेर सारी जातियाँ हैं जिनका जन्म आधारित व्यवसाय होता है। पर इन किन्नरों कोउस कौशल से भी महरूम करके आर्थिक तौर पर विपन्न करने का षड्यंत्रा किया गया। अन्य विमर्श में शामिल जैसे दलित, नारी आदि व्यवस्था के भीतर रहकर व्यवस्था से प्रतिरोध करते हैं। किन्नर समुदाय यह कार्य प्रभावी तौर पर न कर सका क्योंकि वह तो सिस्टम से ही बाहर था। एकदम ‘आउट साइडर’
आज जरूरत है इन्हें राजनैतिक तौर पर आरक्षण की क्योंकि राजनीति आज की वह शक्ति है जो मनुष्य जीवन की संचालिका है। जेसे दलितों की रिजर्व सीटें हैं इनके लिए भी संसद की दो सीटें हो तो परिदृश्य बदल सकता है। या इन्हें राष्ट्रपति नामित ही करें। दूसरी महत्वपूर्ण चीज शिक्षा है जो इन्हें स्वाभिमान दिला सकती है। इनके लिए अलग शिक्षा परिसर होना ही चाहिए। जेंडर संवेदना के विषय को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि इनके प्रति समझ का भाव विकसित हो। इन्हें केंद्र सरकार की ‘स्टार्टअप’ योजना से कुटीर धंधे, सौंदर्य, फैशन डिजाइनिंग मीडिया सुरक्षा आदि से जोड़कर इसका सशक्तिकरण किया जा सकता है पर इन सबके लिए समाज और सरकार के संकल्पबद्धता की आवश्यकता है।
इस कार्यक्रम में एएमयू हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर कमलानंद झा, प्रिंसिपल डॉ तनवीर अख्तर, डॉ लता अग्रवाल, डॉ मुश्ताक़ीम, डॉ शमा नाहिद, डॉ पांडेय, इरशाद हुसैन, डॉ रमाकांत राय, डॉ गौरव तिवारी, डॉ शगुफ्ता, डॉ भारती अग्रवाल, डॉ शमीम, अनवर खान, मुशिरा खातून, कामिनी कुमारी,  मनीष कुमार, रिंक्की कुमारी, दीपांकर, मनीषा महंत, मिलन, पंकज बाजपेयी, डॉ कामिल, मुनवर कामिल, डॉ सविता सिंह एवं 
वाङ्गमय पत्रिका के सहसंपादक अकरम हुसैन ने भी लाइव कार्यक्रम में शिरकत की
इस कार्यक्रम को आप पुनः यूट्यूब चैनल पर AKRAM HUSSAIN QADRI नाम से सर्च करके दोबारा सुन और देख सकते है इसी नाम से ब्लॉग पर भी पढ़ सकते है

यूट्यूब लिंक
https://youtu.be/URAkLTRQtE4
सुनिए डॉ. राधेश्याम सर को "किन्नर समुदाय के उपेक्षा के कारक तत्त्व"  जैसे विषय पर वाङ्गमय पत्रिका के लाइव पेज के माध्यम से

अकरम हुसैन
सहसंपादक
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका

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