सुरीनामी राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी ने बढ़ाया भारतवंशियों का मान - अकरम क़ादरी
यह लगभग 05 जून 1834 के आसपास की बात है जब लालारुख जहाज़ कलकत्ता प्रवासी घाट से उत्तर भारतीयों को कैरिबियाई देशों में ले जा रहा होगा तो उन गिरमिटिया मज़दूरों ने सोचा भी नहीं होगा कि जो लोग (डच कॉलोनाइजर) उनको दास बनाकर ले जा रहे है उनकी आने वाली पीढियां कभी उसी देश का नेतृत्व करेंगी। शायद एक श्रमिक के लिए यह सोचना बहुत मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन नहीं है। सूरीनाम जैसे विषय पर शोध एवं आदरणीया पुष्पिता अवस्थी के साहित्य का विश्लेषण करते हुए मुझे महसूस हुआ कि भारतवंशियों की भले ही यह पांच या छः पीढियां हो लेकिन उनकी भारतीयता अभी तक खत्म नहीं हुई बल्कि शोध से पता चलता है वो हमसे ज़्यादा भारतीय है क्योंकि वो आज भी हमारी संस्कृति, सभ्यता, समाज, संस्कार और भाषा को इतनी मज़बूती से पकड़े हुए है कि उनकी कई पीढियां बदल जाने के बाद भी वो नहीं बदले वो मेहनतकश भारतवंशी आज भी कई पीढ़ियों के गुज़र जाने के बाद भी वर्तमान समय के आधुनिकीकरण के दौर में भी आधुनिक खूब हुए लेकिन कभी भी अपनी संस्कृति, संस्कार, तीज़, त्यौहार, परंपराओं से समझौता नहीं किया बल्कि हिंदी भाषा को सीखने के लिए आज भी मंदिर, मस्ज़िद, मठ जाकर वो मन लगाकर सीखते है। भारत का सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में स्थित दूतावास भी उनकी सहायता करता है लेकिन जो कार्य प्रोफ़ेसर पुष्पिता अवस्थी ने 2001 के आसपास जाकर फर्स्ट सेक्रेटरी के रूप में किया वो सच मे काबिले तारीफ़ है उस पर भी गौर करना चाहिए। पुष्पिता अवस्थी ने सबसे पहले उनको भारतीय संस्कृति की अलख को दोबारा प्रज्वलित करने का संघर्ष किया है हालांकि यह उनके डीएनए में मौजूद थी लेकिन उसको सही दिशा देने में पुष्पिता अवस्थी ने साहित्य के माध्यम से जो काम किया वो विशिष्ट है।
पूरी दुनिया मे छाए हुए भारतवंशियों की हाड़-मास तोड़ देने वाली मेहनत एकाग्रता और मेघा के ही बल पर पूरी दुनिया में अपना नाम रोशन कर रहे है। एक तो भारतवंशी रंग-रूप से तो अलग दिखते ही है फिर भी कुछ नस्लभेदी टिप्पणी करने वाले लोगो की आंखे की किरकिरी भी बने रहते है फिर भी अपनी मेहनत के द्वारा उन्होंने भारत का नाम रौशन किया है।
सुरीनाम के भारतवंशी आज भी स्वयं को भारतवंशी ही कहलाने में गौरवान्वित महसूस करते है और अपने पूर्वजों की ज़मीन से पहुंचने वाले हर व्यक्ति का सम्मान वैसे ही करते है जैसे हमारे भारत मे होता है।
सुरीनामी की राजनीति में 42 प्रतिशत भारतवंशियों ने स्वयं को वहां सिद्ध किया है उसके अलावा इस छोटे से देश मे चायनीज़, जापानी, नीग्रो, मोरक्की और दूसरे देशों के भी नागरिक रहते है लेकिन गर्व का विषय यह है कि भारतवंशियों का डंका आज भी बज रहा है क्योंकि उसके पीछे उनका असाधारण विवेक, संस्कृति और उस देश के लोगो मे अपनी अलग पहचान को स्थापित करना है। यदि सूरीनाम के भारतवंशियों के बारे में जानने की उत्सुकता है तो पुष्पिता अवस्थी का साहित्य पढ़ना होगा जिसमें उन्होंने सूरीनाम नाम से ही दो किताबे लिखी है जिनमे सूरीनाम का इतिहास एवं भारतवंशियों के संघर्ष का विस्तृत वर्णन मिलेगा। उसके अलावा भारतवंशियों पर लिखे गए एक उपन्यास को भी पढ़ना चाहिए जो 2018 में कुसुमांजलि फॉउंडेशन द्वारा सम्मानित हुआ है। छिन्नमुल उपन्यास पर कई पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक भी प्रकाशित किए है।
अंततः कहा जा सकता है कि आज संतोखी जो राष्ट्रपति बने है वो भारतवंशियों की एकता, अपनत्त्व का भाव, संस्कृति से प्रेम, भाषा के प्रति अनुराग का ही परिणाम है क्योंकि वो दूसरे देश मे पीढ़ियों से रह रहे है लेकिन उन्होंने भारतीयता को खत्म नहीं होने दिया अपनी पहचान को बनाये रखा। कहा जाता है मानसिक रूप से हमे आधुनिक होना चाहिए लेकिन अपनी संस्कृति, संस्कार को कभी नहीं छोड़ना चाहिए इसी कारण भारतवंशी विश्वपटल पर अपने को स्थापित कर रहे है और देश को गौरवान्वित महसूस करा रहे है।
सूरीनाम के राष्ट्रपति ने शपथ वेद को हाथ मे लेकर ली हालांकि वहां की राजनीति में धर्मगत गठजोड़ नहीं है, ना ही किसी भी प्रकार से धर्म से नफरत की राजनीति की जाती है फिर भी अपने संस्कार को अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने के लिए ऐसा किया है कि मैं अपने देश के प्रति वफादार हूं और ईमानदारी से देश की सेवा करूँगा।
समाज का एका बनाने में साहित्य की महती भूमिका है। अगर पुष्पिता अवस्थी जी द्वारा हिंदुस्तानियों के साहित्य को संग्रहित कर ,उनपर 15 वर्षों से लेखन कर जो महान कार्य किया गया है। उसका परिणाम आज
सामने है उन्होंने 2003 में साहित्य मित्र, और विद्यानिवास सूरीनाम साहित्य सन्स्थान, का गठन किया। जहाँ से शब्द -शक्ति और हिंदीनामा पत्रिका का प्रकाशन किया साथ ही यह वही पुष्पिता अवस्थी है जिन्हें कवि और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भेजते समय यह कहा था इस बार मै एक कवि को भेज रहा हूँ और उन्होंने वहाँ सातवे विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित करने में सरकार के साथ मिलकर इसे सिद्ध कर दिया। भारतीय सांस्कृतिक केंद्र ,सूरीनाम में बतौर हिंदी प्रोफेसर सृजनात्मक काम करके देश का नाम रौशन किया।
जय हिंद
अकरम क़ादरी
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